बहुत कुछ है
जो कहना चाहता हूँ
कह सकता नहीं मगर
कि रौशन हैं कई चुल्हे
मेरी इस एक चुप्पी पर!
जो कहना चाहता हूँ
कह सकता नहीं मगर
कि रौशन हैं कई चुल्हे
मेरी इस एक चुप्पी पर!
अभी मैं उहापोह की स्थिति में
पेंडुलम की तरह डोल ही रहा था कि चच्चा हाँफते हुए कहीं चले जा रहे थे।
देखकर लगा कि चिढ़े हुए हैं। जैसे उन्होंने कोई भदइला आम जेठ के महीने में
खा लिए हों और जहर की तरह दाँत से ज्यादा मन एकदम ही खट्टा हो गया हो। जब
मैंने उनकी गाड़ी को अपने स्टेशन पर रुकते नहीं देखा तो मैंने चच्चा को जोर
से हॉर्न देते हुए बोला,
चच्चा खीस से एकमुस्त लाल-पीला हो भुनभुनाए जा रहे थे मगर बोल कुछ भी नहीं रहे थे। मतलब एकदम चुप्प! बहुत देर तक उनका भ्रमर गान सुनने के बाद जब मेरे अन्दर का कीड़ा कुलबुलाने लगा। अन्त में वो अदभुत परन्तु सुदर्शन कीड़ा थककर बाहर निकल ही पड़ा।
जिन्दगी की ये कहानी बहुत ही अजीबोगरीब है। इसे कहना, समझना और इस जिन्दगी में किसका कितना हिस्सा है बताना बहुत ही मुश्किल है। मुश्किल ही नहीं शायद नामुमकिन है! जिन्दगी की इस कहानी में जाने-अनजाने जाने कितने ही किरदार और भाव आते हैं और चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता है। कुछ दरवाजे पर बिना दस्तक दिए जिन्दगी में शामिल हो जाते हैं तो कुछ बिना शोर किए चुपचाप दरवाजे से कहीं बाहर निकल जाते हैं कहीं आसमान में खो जाने के लिए। कुछ आते हैं और भीड़ में कहीं खो से जाते हैं और सही मौके पर आकर सामने खड़े हो जाते हैं। कुछ आते हुए बताते हैं मगर कब कहीं छूट गए या हाथ छूड़ाकर चले गए, खबर ही नहीं लगती। कुछ चुपचाप आते हैं मगर जिन्दगी की पहचान बन जाते हैं। कुछ आते हैं और छोड़कर चले भी जाते हैं मगर साथ में हर सामान ले जाते हैं और हम चुपचाप टकटकी लगाकर देखते रह जाते हैं। रोकना चाहते हैं मगर रोक नहीं पाते और जब रोकते हैं तो वो चुपचाप नज़र झुकाकर चले जाते हैं।
पिछले कुछ समय से हिन्दी के उपभाषाएँ एवं बोलोयाँ कही जाने वाली भोजपुरी, राजस्थानी व अन्य लोकभाषाएँ अपने स्वतंत्र अस्तित्व व अधिकारों के लिए कागज से लेकर सड़क और सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष कर रही हैं। जिसका असर ये हुआ है कि हिन्दी के समर्थन में भी ध्रूवीकरण प्रारम्भ हो गया। हिन्दी के समर्थक इन माँगों को हिन्दी को कमजोर करने वाली व राष्ट्र की अस्मिता के लिए खतरा तक बता रहे हैं तो वहीं भोजपुरी व अन्य लोकभाषाओं के समर्थक हिन्दी को सामन्तवादी रुझान वाली भाषा बताते थक नहीं रहे हैं। यदि हम इन दो खेमों के माँगों एवं तर्कों पर ध्यान दें तो कम से कम इतना तो साफ हो ही जाता है कि दोनों तरफ कुछ ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं जो कतई ही स्वीकार्य नहीं किए जा सकते। हिन्दी पर सामन्तवादी होने का आरोप हो या फिर भोजपुरी व अन्य लोकभाषाओं के स्वतंत्र अस्तित्व से राष्ट्रीय अस्मिता पर आँच का आरोप सर्वदा ही प्रलाप हैं जो बिना सोचे समझे अपनी माँगों को मजबूती प्रदान के लिए दिया जा रहा है।