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मंगलवार, 8 मार्च 2022

कह सकता नहीं - राजीव उपाध्याय

बहुत कुछ है
जो कहना चाहता हूँ
कह सकता नहीं मगर
कि रौशन हैं कई चुल्हे
मेरी इस एक चुप्पी पर!

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

चुप रहने की सलाहियत - राजीव उपाध्याय

जानता हूँ
चुप रहने की सलाहियत
वो यूँ ही नहीं देते।

हर बार रोए हैं
वो लफ्जों की लकीरों पर
जिनकी मात्राओं में
ना जाने किस किस की कहानी है।

सोमवार, 19 जुलाई 2021

कहानी व किरदार - राजीव उपाध्याय

मेरी कहानी में
कई किरदार हैं;
कुछ तनकर खडे रहते हैं
और झुके रहते हैं कुछ सदा।
कुछ बेलगाम बोलते रहते हैं
कुछ बेजुबान जीव,
कुछ बातें बडी करते हैं
और कुछ बदजुबान।

मंगलवार, 29 जून 2021

शब्दों के मायने - राजीव उपाध्याय

तुम जिन रिसालों के जानिब
दुनिया बदलना चाहते हो
तुम जानते नहीं शायद
कि लोग उनको अब पढते नहीं।

खबर तुमको नहीं ये भी शायद अब
कि शब्दों के मायने जो तुमने सीखा था कभी
वक्त की सडक़ पर घिसकर
मानी उनका अब कुछ और ही है हो गया!

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

डरी रहती है - राजीव उपाध्याय

वो रह रहकर पूछती रहती है
ठीक तो हूँ मैं?

बहुत डरी रहती है
किसी अंजाने भय से!
कई बार
वो खुद को भी भूल जाती है
मेरी ही चिन्ता में
जैसे बहुत जरूरी हूँ मैं दुनिया के लिए!

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

फ्रैक्चर, प्लॉस्टर और चुनाव - राजीव उपाध्याय

अभी मैं उहापोह की स्थिति में पेंडुलम की तरह डोल ही रहा था कि चच्चा हाँफते हुए कहीं चले जा रहे थे। देखकर लगा कि चिढ़े हुए हैं। जैसे उन्होंने कोई भदइला आम जेठ के महीने में खा लिए हों और जहर की तरह दाँत से ज्यादा मन एकदम ही खट्टा हो गया हो। जब मैंने उनकी गाड़ी को अपने स्टेशन पर रुकते नहीं देखा तो मैंने चच्चा को जोर से हॉर्न देते हुए बोला,


‘अरे चच्चा! कहाँ रफ्फू-चक्कर हुए फिर रहे हैं। पैर की चकरघिरन्नी को थोड़ी देर के लिए मेरे स्टॉप पर रोकिए तो सही! क्या पता कोई सवारी ही मिल जाए?’

चच्चा पहले तो गच्चा खा गए कि बोला किसने लेकिन जैसे ही उनकी याददाश्त वापस लौटी तो खखार कर बोले, ‘तुम हो बच्चा! मैं समझा कि कोई और बोल रहा है?’

‘अरे चच्चा! ये गाड़ी लेकर कहाँ चले थे? चाची भी तो आजकल अपने मायके गई हुई हैं।’

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस - राजीव उपाध्याय

आज अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। मतलब अबतक की चली आ रही परंपरा के अनुसार एक इवेंट। सालगिरह टाइप का! यदि इसे इवेंटनुमा तरीक़े से देखा जाए तो बधाई तो बनती ही है। मतलब कुछ 'हार्दिक बधाई' या 'हार्दिक शुभकामना' जैसे परंपरागत परन्तु पॉप्युलर (शायद थोड़े प्रोग्रेसिव भी) जूमलों को आसमान में तो उछाला जाना ही चाहिए। और इस तरह इस वार्षिक इवेंट का इतिश्री रेवा खण्डे समाप्तः; बिल्कुल हिन्दी दिवस व पखवाड़े की तरह! वैसे इन जूमलों से कुछ हो ना हो परन्तु थोड़ी जनजागृति व थोड़ा माहौल तो बन ही जाता है और माहौल का अपना ही अंतर्निहित सुख होता है! शायद स्वार्गिक!

सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

चोलबे ना - राजीव उपाध्याय

चच्चा खीस से एकमुस्त लाल-पीला हो भुनभुनाए जा रहे थे मगर बोल कुछ भी नहीं रहे थे। मतलब एकदम चुप्प! बहुत देर तक उनका भ्रमर गान सुनने के बाद जब मेरे अन्दर का कीड़ा कुलबुलाने लगा। अन्त में वो अदभुत परन्तु सुदर्शन कीड़ा थककर बाहर निकल ही पड़ा।

‘चच्चा! कुछ बोलोगे भी कि बस गाते ही रहोगे? मेरे कान में शहनाई बजने लगी है; पकड़कर शादी करा दूँगा आपकी अब!’

चच्चा हैरान होकर मेरी तरफ देखने लगे। जब मैंने एक बुद्धिजीवी की तरह प्रश्नात्मक मुद्रा में उनकी ओर देखा तो वो पूछे

‘मतलब तुमने सुन ही लिया जो मैं बोल रहा था?’

मैंने वापसी की बस पकड़कर बोला, ‘आपकी चीख सुनाई नहीं दी; बस सूँघा हूँ! अब बोल भी दीजिए नहीं तो बदहजमी हो जाएगी’

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

जिन्दगी की कहानी - राजीव उपाध्याय

जिन्दगी की ये कहानी बहुत ही अजीबोगरीब है। इसे कहना, समझना और इस जिन्दगी में किसका कितना हिस्सा है बताना बहुत ही मुश्किल है। मुश्किल ही नहीं शायद नामुमकिन है! जिन्दगी की इस कहानी में जाने-अनजाने जाने कितने ही किरदार और भाव आते हैं और चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता है। कुछ दरवाजे पर बिना दस्तक दिए जिन्दगी में शामिल हो जाते हैं तो कुछ बिना शोर किए चुपचाप दरवाजे से कहीं बाहर निकल जाते हैं कहीं आसमान में खो जाने के लिए। कुछ आते हैं और भीड़ में कहीं खो से जाते हैं और सही मौके पर आकर सामने खड़े हो जाते हैं। कुछ आते हुए बताते हैं मगर कब कहीं छूट गए या हाथ छूड़ाकर चले गए, खबर ही नहीं लगती। कुछ चुपचाप आते हैं मगर जिन्दगी की पहचान बन जाते हैं। कुछ आते हैं और छोड़कर चले भी जाते हैं मगर साथ में हर सामान ले जाते हैं और हम चुपचाप टकटकी लगाकर देखते रह जाते हैं। रोकना चाहते हैं मगर रोक नहीं पाते और जब रोकते हैं तो वो चुपचाप नज़र झुकाकर चले जाते हैं। 

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

कि तुम्हारा ख़त मिला - राजीव उपाध्याय

डाकिए ने 
थाप दी हौले से 
आज दरवाजे पर मेरे 
कि तुम्हारा ख़त मिला। 

तुमने हाल सबके सुनाए 
ख़त-ए-मजमून में 
कुछ हाल तुमने ना मगर 
अपना सुनाया 
ना ही पूछा 
किस हाल में हूँ? 
कि तुम्हारा ख़त मिला। 

सोमवार, 9 दिसंबर 2019

क्योंकि मैं रुक ना सकी मृत्यु के लिए - एमिली डिकिंसन

क्योंकि
मैं रुक ना सकी
मृत्यु के लिए
दयालुता से मगर
इन्तजार उसने मेरा किया
और रूकी जब 
तो हम और अमरत्व
बस रह गए।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

बंधन भी मुक्ति का द्वार है - राजीव उपाध्याय

उलझनें हर बार छटपटाहट में बदल जाती हैं 
और मन जैसे किसी कालकोठरी में हो बंद 
मुक्त होने का स्वप्न लेकर 
देता है दस्तक तेरे महल के दरवाजे पर 
लिखा है जहाँ शब्दों में बडे 
‘कि अंदर आना मना है।'

सोमवार, 2 सितंबर 2019

370 का रीचार्ज - राजीव उपाध्याय

टीवी खोला ही था कि धमाका हुआ और धमाका देखकर मेरे बालमन का मयूर नाच उठा। बालमन का मयूर था तो नौसिखिया नर्तक होना तो लाजमी ही था। परन्तु नौसिखिए नर्तक के साथ सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि उसे हर काम में ‘साथी हाथ बढ़ाना’ वाले भाव में एक साथी की आवश्यकता महसूस होती है। उसको नाचने में मजा तब आता है जब कोई साथ देने वाला हो। और मेरे पास पिता-मेड पत्नी के होने का घोर सुख प्राप्त था तो मैंने खुश होकर श्रीमती जी को आवाज लगाई, 

“एक बात जानती हो?”

उनके कान पीपल के पत्ते की तरह फड़फड़ा उठे और शोएब अख्तर के गेंद की तरह उनकी आवाज आई, “क्या?” 

मुझे लगा आउट हो जाऊँगा परन्तु फुल लेन्थ कि बॉल थी सम्भाल लिया। वैसे भी विवाहित पुरूष एक खिलाड़ी से कम नहीं होता है। खैर। मैंने कहा, 

बुधवार, 28 अगस्त 2019

हिन्दी-भोजपुरी विवाद: दम्भ जनित हीनता - राजीव उपाध्याय

हिन्दी-भोजपुरी विवाद Hindi Bhojpuriपिछले कुछ समय से हिन्दी के उपभाषाएँ एवं बोलोयाँ कही जाने वाली भोजपुरी, राजस्थानी व अन्य लोकभाषाएँ अपने स्वतंत्र अस्तित्व व अधिकारों के लिए कागज से लेकर सड़क और सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष कर रही हैं। जिसका असर ये हुआ है कि हिन्दी के समर्थन में भी ध्रूवीकरण प्रारम्भ हो गया। हिन्दी के समर्थक इन माँगों को हिन्दी को कमजोर करने वाली व राष्ट्र की अस्मिता के लिए खतरा तक बता रहे हैं तो वहीं भोजपुरी व अन्य लोकभाषाओं के समर्थक हिन्दी को सामन्तवादी रुझान वाली भाषा बताते थक नहीं रहे हैं। यदि हम इन दो खेमों के माँगों एवं तर्कों पर ध्यान दें तो कम से कम इतना तो साफ हो ही जाता है कि दोनों तरफ कुछ ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं जो कतई ही स्वीकार्य नहीं किए जा सकते। हिन्दी पर सामन्तवादी होने का आरोप हो या फिर भोजपुरी व अन्य लोकभाषाओं के स्वतंत्र अस्तित्व से राष्ट्रीय अस्मिता पर आँच का आरोप सर्वदा ही प्रलाप हैं जो बिना सोचे समझे अपनी माँगों को मजबूती प्रदान के लिए दिया जा रहा है।

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

सूर्ख शर्तें - राजीव उपाध्याय

कुछ चेहरे
बस चेहरे नहीं होते
सूर्ख शर्तें होती हैं हमारे होने की।

कुछ बातें
बस बातें नहीं होतीं
वजह होती हैं हमारे होने की।

सोमवार, 29 जुलाई 2019

ग़रीबी - पाब्लो नेरूदा

आह! नहीं चाहती हो तुम
कि डरी हुई हो 
ग़रीबी से तुम;
घिसे जूतों में नहीं जाना चाहती हो बाज़ार तुम
और नहीं चाहती हो लौटना उसी पुराने कपड़े में। 

मेरी प्रेयसी! पसन्द नहीं है हमें,
कि दिखें हमें उस हाल में, है जो पसंद कुबेरों को;
तंगहाली हमारी। 

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

बस पढनेवाला नहीं कोई - राजीव उपाध्याय

मेरे घर का मेरा वो कोना
जो अब तुम्हारा हो चुका है
मुझमें तेरे होने की 
वही कहानी कहता है
जो कभी माँ
पिताजी के साथ सुनती थी
और ईया बाबा को बताती थीं। 

कुछ भी नया नहीं है;
ना झगड़ा
ना ही बातें प्यार की। 

सोमवार, 22 जुलाई 2019

मेरी कहानी - राजीव उपाध्याय

तूफान कोई आकर
क्षण में चला जाता है
पर लग जाते हैं बरसों
हमें समेटने में खुद को
संभला ही नहीं कि बारिश कोई
जाती है घर ढहाकर।

शनिवार, 22 जून 2019

उसके कई तलबगार हुए - राजीव उपाध्याय

कभी हम सौदा-ए-बाज़ार हुए 
कभी हम आदमी बीमार हुए 
और जो रहा बाकी बचा-खुचा 
उसके कई तलबगार हुए॥ 

सितम भी यहाँ ढाए जाते हैं 
रहनुमाई की तरह 
पैर काबे में है 
और जिन्दगी कसाई की तरह॥

गुरुवार, 20 जून 2019

यकीन - राजीव उपाध्याय

दूर-दूर तक
आदमी ऐसा कोई दिखता नहीं
कि कर लें यकीन 
उस पर एक ही बार में।

यकीन मगर करना भी है
तुझ पर भी
और मुझ पर भी।