मुक्तक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मुक्तक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 16 मई 2016

जरूरी नहीं - राजीव उपाध्याय

हर तस्वीर साफ ही हो ये जरूरी नहीं
जमी मिट्टी भी मोहब्बत की गवाही देती है।
-----------------------------------
मैं भी कभी हो बेसुध, नीड़ में तेरी सोता था
बात मगर तब की है, जब माँ तुझे मैं कहता था।
-----------------------------------
मोहब्बत में फकीरी है बड़े काम की
दिल को दिल समझ जाए तय मुकाम की॥
-----------------------------------
क़त्ल-ओ-गारद का सामान हर हम लाए हैं
तू चाहे खुदा बन या मौत ही दे दे मुझे।
-----------------------------------
हर आदमी यहाँ खुदा हो जाना चाहता है
कि कोई सवाल ना करे सवाल उछालना जानता है।
-----------------------------------

शनिवार, 2 जनवरी 2016

यूँ भी - राजीव उपाध्याय

मेरे कहे का यूँ कर ना यकीन कर
मतलब मेरे कहने का कुछ और था।
---------------------
मेरे जानिब भी तो कभी रूख हवा का करो
कि उदासियाँ भी सर्द मौसम सी होती हैं।
---------------------
है ही नहीं कुछ ऐसा कि मैं कहूँ कुछ तुमसे
बात मगर जुबाँ तक आती है कोई ना कोई।
--------------------- 

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

कुछ शेर

जिन्दगी जब चलती है तो पता नहीं चलता कि चल रही है मगर वो अपनी रफ्तार और मिजाज से चलती ही रहती है और ठीक उसी तरह से अपनी बात भी कहती रहती है मगर कहती है तो धीरे-धीरे कानों में जिसको सुनने के लिए ठहरकर हर शय को सुनना पड़ता है। महसूस करना पड़ता है अपनी धड़कनों से निकल रही तरंगों को तब कहीं जाकर शायद उसकी बात सुनाई देती है और उसे हम वक्त के तकाजे से नहीं बल्कि आँखों के सामने से गुजरे कारवाँ के पैमाने से नाप पाते हैं। पर बात कुछ इस तरह है कि हम हर चीज को घड़ी के काँटे और किसी और के बनाये हुए पैमाने को इस कदर अपनी जिन्दगी में शामिल कर रखे हैं कि हमारे पास हमारे अपने लिए वक्त नाम का अजायबघर का नमूना अब मिलता ही नहीं है और कई बार मिलता भी है तो वह सन्दूकों में बन्द ही मिलता है और फिर संदूक खोलने की अपनी ही उलझनें हैं। खोलें तो खोलें कैसे और खोलें तो खोलें किसके लिए? और कभी-कभी हिम्मतकर खोल भी लेते हैं तो उस सन्दूक से इतना सामान निकलकर बाहर आ बिखरता है कि लगता है कि बाढ़ आ गई हो। एक ऐसी बाढ़ जिसका हर कतरा इसी जिस्म से निकलकर आँखों के सामने दौड़ रहा हो और हम चाहते तो हैं कि आगे बढकर हर कतरे को अपने में समेट लें पर मजबूर हैं; समेट नहीं सकते। जगह बाकी कहाँ रहा हमारे अंदर अब कि उन पुरानी बातों को आँखों में सजाया जाए।
----------
समझा जिसे लहू अपने रगों का।
देखा ज़हर वो मिला रहा था॥
----------
दिल्ली शहर नहीं ये, रंगमंच सराबोर।
मिलते बिछड़ते छुटते छुड़ाते रोज॥
----------
अपने अन्तर आपने, बाँचे हैं सब कौल।
मगर नहीं कह पाते, कह देता जो मौन॥
----------
झूठी सकल किताब हैं, झूठे हैं सब वेद।
उतना ही सच जानिए, खोल सके जो भेद॥

----------
© राजीव उपाध्याय

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

कुछ शेर

वैसे तो कुछ शेर पेश-ए-खिदमत हैं पर ये शेर ही हैं ऐसा कह ना नहीं सकता क्योंकि दहाड़ते हुये इन्हें आज तलक नहीं देखा।
--------------

ग़लफ़त में ना रहिए हुज़ूर, ग़लफ़त गला देगी आपको।
तब मुक़्द्दर भी ना करेगा इनायत, शराफ़त के मुद्द्तों से।।
--------------
कहकहे भी कमाल करते हैँ, आँसुओं से सवाल करते हैं। 
तन्हा रोते हैं ज़ब हम, हँसा-हँसा कर बूरा हाल करते हैं।।

शनिवार, 28 मार्च 2015

दो मुक्तक

आदमी लिखता नहीं बस कुछ बातें जेहन में आती हैं और शब्दों में ढल जाती हैं। कभी कविता तो कभी कहानी जाने क्या-क्या नाम पाती है। कुछ ऐसे ही दो पल आपकी नज़र कर रहा हूँ। अपनी राय दें
--------------------------------


लोगों से मिलना भूल जाना, अपना यही फ़साना है।
घर हमने देखा ही नहीं है, भीगना है, बह जाना है॥
*****
समझा जिसे लहू अपने रगों का।
देखा ज़हर वो मिला रहा था॥
© राजीव उपाध्याय

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

कुछ मुक्तक - 7

कहकहे भी कमाल करते हैँ
आँसुओं से सवाल करते हैं।
ज़ब रोते हैं तन्हा हम
हँसा-हँसा कर बुरा हाल करते हैं।
कहकहे भी कमाल करते हैँ


रूक रूक कर चलना, इक अदा बन गई।
कहते थे मय जिसको, वही सजा बन गई॥
नींद आती है हर रोज, जाने ही कितने बार।
पर आँखों को आजकल फ़ुर्सत कहाँ है॥

बुधवार, 25 जनवरी 2012

कुछ मुक्तक -6

याद रोज़ आती है कि जाती है, ख़बर ना मुझको
शमां जलती है कि बुझती है, है पता किसको।
देता हूँ रोज़ आवाज़, शायद देता नहीं सुनाई
बात कुछ कहती है या नहीं है मालूम किसको॥


शायद अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं, पर आज भी ये आँखें तकती हैं।
अश्क आज भी मेरे कहना चाहें बात कई, पर रुबरू होने से डरती हैं॥

मैं हर पल साथ तेरे था, बस नज़र उठाकर देखा होता
धुंधली सी परछाईं बनकर, पीछे तेरे खड़ा था॥

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -5

ये प्यार है या कुछ और है, हमको बता ये कौन है
जो नींद थी आँखों मे, अब नज़र आती नहीं
सपने हैं कुछ हसीन से, जो आँखो से जाते नहीं
ये प्यार है या कुछ और है, हमको बता ये कौन है॥

तमाम शिकवे गिले भूलाकर गए, साथ अपने हमको छुपाकर गए।
अब चलें तो चलें किस राह पर, ना मंजिल ना रास्ता बताकर गए।।


कुछ इस कदर ख़फा वो हमसे हुए,
कुछ ना कहे चले गए,
आँसू भी मेरे संग ले गए।।
©राजीव उपाध्याय

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -4

मैं हर पल साथ तेरे था, बस नज़र उठाकर देखा होता।
धुंधली सी परछाईं बनकर, पीछे तेरे खड़ा था॥
दो चार लोगों से मिलकर देखा, तो मेरे ग़म की शिनाख़्त हुई।
कभी औंधे मूँह गिरे थे, कभी कड़ती दोपहर सी बरसात हुई

तल्ख़ जिन्दगी की कश्मकश में, हम इस कदर खोए रहे
कि बदलती सूरत भी अपनी अब पहचान नहीं आती
©राजीव उपाध्याय

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -3

शाम से ही मनहुसियत छाई है, जाने कब से शमा ललचाई है।
दिल में मौत का ख़ौफ़, उजाले में अंधेरा ले के आई है॥



बस एक अदद मौत मांगी थी हमने, देकर खुद जिन्दगी का हवाला।
जिन्दगी ना मिली, मौत भी ले गया, जाने दिया कौन सा निवाला॥

परवाह ना कीजिए हुज़ूर आप, चीजें खुद बदल जाएंगी
जिन्दगी सफ़र अन्जाना, राहें मंजिल मिल जाएंगी॥
©राजीव उपाध्याय

रविवार, 11 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -2

सुना था आइने में चेहरा दिखता है।
पर आज चेहरे में चेहरा दिखा है


हम रोते हुए निकले घर से, तूम हंसते हुए।
लोगों ने समझा, एक खुश है, है दुसरा ग़म में।
पर उन्हें क्या पता, हम दोनों ही खुश हैं॥

चलना चाहता हूँ कुछ दूर तक मैं
पर मंज़िल का पता नहीं
और रास्ता भी चुपचाप है
©राजीव उपाध्याय

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -1

ग़लफ़त में ना रहिए हुजूर, ये ग़लफ़त आपको गला देगी।
तब मुक़्द्दर भी ना करेगा इनायत, शराफ़त के मुद्द्तों से।।




है मुमकिन कि तूम मुझसे ख़फ़ा हो जाओ।
जब बात कहूँ दिल की तो बेवफ़ा हो जाओ

मैं इसे नज़र का फेर कहूँ, या ज़िग़र का फेर।
कि नज़र ने नज़रबाज़ को, नज़रंदाज़ कर दिया॥
©राजीव उपाध्याय

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

टुक टुक चलती ये जीवन गाड़ी

टुक टुक चलती ये जीवन गाड़ी

और मैं इक काठ का घोड़ा

ना गाड़ीवान है ना कोई सवारी

फ़िर भी सब कुछ लगता क्यों भारी भारी?
© राजीव उपाध्याय