जिन्दगी जब चलती है तो पता नहीं चलता कि चल रही है मगर वो अपनी रफ्तार और मिजाज से चलती ही रहती है और ठीक उसी तरह से अपनी बात भी कहती रहती है मगर कहती है तो धीरे-धीरे कानों में जिसको सुनने के लिए ठहरकर हर शय को सुनना पड़ता है। महसूस करना पड़ता है अपनी धड़कनों से निकल रही तरंगों को तब कहीं जाकर शायद उसकी बात सुनाई देती है और उसे हम वक्त के तकाजे से नहीं बल्कि आँखों के सामने से गुजरे कारवाँ के पैमाने से नाप पाते हैं। पर बात कुछ इस तरह है कि हम हर चीज को घड़ी के काँटे और किसी और के बनाये हुए पैमाने को इस कदर अपनी जिन्दगी में शामिल कर रखे हैं कि हमारे पास हमारे अपने लिए वक्त नाम का अजायबघर का नमूना अब मिलता ही नहीं है और कई बार मिलता भी है तो वह सन्दूकों में बन्द ही मिलता है और फिर संदूक खोलने की अपनी ही उलझनें हैं। खोलें तो खोलें कैसे और खोलें तो खोलें किसके लिए? और कभी-कभी हिम्मतकर खोल भी लेते हैं तो उस सन्दूक से इतना सामान निकलकर बाहर आ बिखरता है कि लगता है कि बाढ़ आ गई हो। एक ऐसी बाढ़ जिसका हर कतरा इसी जिस्म से निकलकर आँखों के सामने दौड़ रहा हो और हम चाहते तो हैं कि आगे बढकर हर कतरे को अपने में समेट लें पर मजबूर हैं; समेट नहीं सकते। जगह बाकी कहाँ रहा हमारे अंदर अब कि उन पुरानी बातों को आँखों में सजाया जाए।
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समझा जिसे लहू अपने रगों का।
देखा ज़हर वो मिला रहा था॥
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दिल्ली शहर नहीं ये, रंगमंच सराबोर।
मिलते बिछड़ते छुटते छुड़ाते रोज॥
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अपने अन्तर आपने, बाँचे हैं सब कौल।
मगर नहीं कह पाते, कह देता जो मौन॥
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झूठी सकल किताब हैं, झूठे हैं सब वेद।
उतना ही सच जानिए, खोल सके जो भेद॥
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© राजीव उपाध्याय
देखा ज़हर वो मिला रहा था॥
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दिल्ली शहर नहीं ये, रंगमंच सराबोर।
मिलते बिछड़ते छुटते छुड़ाते रोज॥
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अपने अन्तर आपने, बाँचे हैं सब कौल।
मगर नहीं कह पाते, कह देता जो मौन॥
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झूठी सकल किताब हैं, झूठे हैं सब वेद।
उतना ही सच जानिए, खोल सके जो भेद॥
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© राजीव उपाध्याय
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