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गुरुवार, 8 अगस्त 2019

स्त्री कितनी आज़ाद - रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)

स्त्री कितनी आज़ाद
और
कहाँ से
मन से,
देह से
सोच से?
पुरुषों की फिसलती निगाहें
नापती हैं जब उसके
जिस्म के भूगोल को
नहीं उठता कोई भूचाल
न सुनामी आती है!
पर जब वो सचेत दिखती है
अपने संरचनाओं के प्रति,
पा जाती है कई ख़िताब वो
कुलटा, बदचलन, और भी क्या -क्या!

सोमवार, 24 जून 2019

ग़ज़ल लिख रहे हैं - रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)

रदीफ़ का पता ना काफ़िये का 
फिर भी ग़ज़ल लिख रहे हैं॥ 

दुनिया के चलन में हो रहा जो 
उसी झूठ को सीख रहे हैं॥ 

देखिये ताब टूट जाने से 
गूंगे भी अब चीख रहे हैं॥ 

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

ये बोलती बातें - रजनी मल्होत्रा नैय्यर

क्या शहर क्या गांव सब बदलने लगे
एक घर में कई चूल्हे जलने लगे

कहाँ दफ़न हो गयीं ममतामयी माएँ
गृहणियों के बच्चे आया से पलने लगे

कितना परायापन लगा उसकी आँखों में
जब बेटे के घर से माँ- बाप चलने लगे

मुफ़लिसी क्या होती है उनसे जाकर पूछिये
जो रोटी की एक टुकड़े पर मचलने लगे

लगती है गले की फ़ांस सी
जब गहरा रिश्ता भी मन को खलने लगे

लाख छुपायिये "रजनी" रंगाई - पुताई से
दिख जाती है निशानी जब उम्र ढलने लगे
-------------------------
रदीफ़ का पता ना काफ़िये का
फिर भी ग़ज़ल लिख रहे हैं

दुनिया के चलन में हो रहा जो
उसी झूठ को सीख रहे हैं

देखिये ताब टूट जाने से
गूंगे भी अब चीख रहे हैं

जो बोते रहे मेरी राह में कांटे
आज फूल बनकर बिछ रहे हैं
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सरल जिज्ञासाएँ मर रहीं ,
जन्म ले रहे अंतहीन सोच ,
द्वंद पनप रहे ,
दोनों के बीच।

संवेदन का पानी
वैसा ही है ,
बिलकुल सूखा हुआ ,
शुष्क रिश्तों
की धूप सूखा गयी
संवेदन का पानी ,
दबंगई बार - बार ,
सर उठाती है
कुचलने के लिए मखमली
आशाओं को।

गुनगुनी धूप सी
सोच ,स्फूर कर देती है
जम चुके
मानवीय चेतना को ,
और चीख कर कहती है
युग कोई भी हो
संहार तो होता है ,
मरती है दबंगई
हर युग में ,
जन्म लेगा फिर कोई युग पुरुष ,
करने को संहार।

दब जाते हैं
मखमल से लोग ,
दबंगई के आगे ...
पर मरते नहीं।
-------------------------
आधा दफ्तर पकाता है उन्हें
आधी घर में पक जाती है

आज के इस भाग- दौड़ में
आधी आबादी थक जाती है॥
-------------------------
रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)
जन्म: ७ जून, कुमंदी ग्राम, पलामू, झारखण्ड
चार काव्य संग्रह: 'स्वप्न मरते नहीं ', 'ह्रदय तारों का स्पन्दन', 'पगडंडियाँ' व 'मृगतृष्णा'
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
भाषा लेखन: हिंदी, पंजाबी, उर्दू.
लेखन: गीत, ग़ज़ल, कहानियां व कविताएँ.
शिक्षा: हिंदी व इतिहास में स्नातकोत्तर। हिंदी में पी.एच. डी. चल रही।
सम्प्रति: संगणक विज्ञान की शिक्षिका
वर्तमान पता: बोकारो (झारखण्ड)
मोबाइल नं: 9576693153, 9470190089

बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

सफर - रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)

स्त्री कितनी आज़ाद 

स्त्री कितनी आज़ाद
और
कहाँ से
मन से,
देह से
सोच से?
पुरुषों की फिसलती निगाहें
नापती हैं जब उसके
जिस्म के भूगोल को
नहीं उठता कोई भूचाल
न सुनामी आती है!
पर जब वो सचेत दिखती है
अपने संरचनाओं के प्रति,
पा जाती है कई ख़िताब वो
कुलटा, बदचलन, और भी क्या -क्या!

आज भी तू एक वस्तु है
जिसे तुल रहा
पुरुषवादी संचालन
का समाज,
जिसमें कभी अपनी
मर्ज़ी से
चलने पर
वैश्या, कुलटा-व्यभिचारिणी, पतिता ...
और जब वही
पुरुष की मर्ज़ी से प्यास मिटाती है
गाड़ियों में,
सड़कों पर,
होटलों के बंद कमरो में,

रखैल बनकर
एक रात या फिर पूरी उम्र ...
बंद हो जाती है
वो दराज़ें जिनमें
पुरुषों के लिए
कोई सजा की
विधान लिख कर
नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।

एक जिस्म
रौंदने के लिए
कुचलने के लिए
किसी और की इच्छाओं से
संचालित।
सांसों का स्पंदन
भी फीका और बेस्वाद,
धड़कता है
पर अपना
ही इख़्तियार नही उनपर…
चलते हैं पग
पर रास्ते और मंजिल भी
मेरे द्वारा तय नहीं,
रह गयी बनकर बस एक
जिस्म जिसे बनाया गया
कुचलने के लिए।

चाँद पर जाओ
या मंगल पर
सदियों से
फड़फड़ा रही है,
स्त्री की आज़ादी
अपनी शर्त पर आज़ाद होने के लिए...।
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 बुजुर्गों का भविष्य

लटकती झुर्रियां
झूलते हाथ-पांव,
ढूंढ रहे
मुक्ति का रास्ता।
भटक रहा सड़कों पर
बिता हुआ कल।
सरहद बन गयी जबसे
घर की दीवारें...
यादें नापती हैं ज़मीं
कभी आकाश।
हथियार डाले उनका आज
बैठ गया है
वील चेयर पर...
धराशायी सिपाही सा,
पुकार रहा
कुछ बुजुर्गों का भविष्य!
जी रहा है कछुआ
छिपा कर,
खोल के भीतर का रहस्य...
जो बिलकुल सपाट है।
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जारी है शोहदों का सफर

सोच की सवारी
जब पहुंच जाती है
घुटनों में
तब पैदा होते हैं
कुक्कुरमुत्तों जैसे,
हर नुक्कड़ हर गली
बिगड़ैल शोहदे ,
शब्दों के बरछी- भाले,
और तीर करते हैं
एक साथ आक्रमण।
आती -जाती
हर स्त्री वर्ग पर,
वय का कोई बंधन नहीं।
बस वो होनी चाहिए
एक स्त्री देह
जिसपर वो लिखते रहते हैं
ललचाती निगाहों से
तहरीर।
निगाहें नहीं
होती हैं,
एक्स-रे मशीन
जाँच पड़ताल के बगैर
हटती ही नहीं!
कुकुरमुत्ते की
हर प्रजातियां शामिल
होती हैं इसमें
बड़े बाप के
बिगड़ैल कुकुरमुत्ते,
उन कुकुरमुत्तों के
पिछलग्गे कुकुरमुत्ते,
कुछ,
मांग की वस्तुओं पर
पनपते कुकुरमुत्ते।
महंगे फ़ोन,
कीमती गाड़ियां,
जीन्स पैन्ट,
गॉगल्स
बना देते हैं
हर गली में एक नवाब।
साथ ही विचरते हैं
मंत्री और प्यादे भी …
तितलियों के पीछे
फिरते हैं
करते जासूसी
बता देती है
गुप्तचरों की
तहकीकात
समूह में है कि
उड़ रही अकेली तितली ...
संभल कर उड़ना
ए तितलियों।
जारी है
शोहदों का सफर …
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रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)
जन्म: ७ जून, कुमंदी ग्राम, पलामू, झारखण्ड
चार काव्य संग्रह: 'स्वप्न मरते नहीं ', 'ह्रदय तारों का स्पन्दन', 'पगडंडियाँ' व 'मृगतृष्णा'
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
भाषा लेखन: हिंदी, पंजाबी, उर्दू.
लेखन: गीत, ग़ज़ल, कहानियां व कविताएँ.
शिक्षा: हिंदी व इतिहास में स्नातकोत्तर। हिंदी में पी.एच. डी. चल रही।
सम्प्रति: संगणक विज्ञान की शिक्षिका
वर्तमान पता: बोकारो (झारखण्ड)
मोबाइल नं: 9576693153, 9470190089

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

उम्र सारी है सुलगने को - रजनी मल्होत्रा नैय्यर

हर लम्हे की अपनी कहानी होती है भले ही वो लम्हा हमारी नज़रों में कितना ही छोटा या फिर बेवजह ही क्यों ना हो पर उसके होने में वजह और सबब दोनों ही होता है। उसका होना ही इस बात की गवाही है। पर हम उन चीजों के होने से ही इत्तेफाक़ रखते हैं जो हममें इत्तेफाक़ रखते हैं। कितना दे सकता है और कितना ले सकता है शायद इतना ही कारोबार है। पर इसके परे एक बहुत बड़ी दुनिया है; शायद सबसे बड़ी जो ना आँखों से बयाँ होती है और ना ही बेवश शब्दों से। होती है तो बस सांसो से। कुछ ऐसी ही बातें ये मन के मनके कहना चाहते हैं।
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चूम लिय माँ ने लगा कर गले से
हर बला मेरे सर से टल गयी

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शिकवा करते कट गयी उम्र सारी
बता खूबियों से क्या दुश्मनी थी

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 नुमाइश पर उतर जाएँ जब राज़ आपके
छिपाने से भी वो राज़ छिपाए नहीं जाते

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 समझ से सुलझा लेती थी अम्मा हर बात
दूर रखा था गृहस्थी को हर तक़रार से

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 उतरी नहीं जो निगाहों से पिलाई थी तुमने
लड़खड़ाये क़दम चला जा रहा हूँ

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 पालना बेशक़ तू हर शौक अपने,
पूरी करने की ज़िद में राख़ न हो जाना

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 आपस में मिलने लगे हैं हर चेहरे आजकल,
क्या एक ही सांचे में सबको ढाला जा रहा है

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 कल कुछ अच्छा होगा कल कुछ बेहतर होगा
कितने कल गुजर जाते हैं लोगों के इस आस में

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 बिकने पर आमादा हो जाये मंडी
कुछ इस तरह से सौदा खरा कर

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 बिक गयी एक शेर पर ही महफ़िल सारी
पूरी ग़ज़ल सुनते तो क्या हो जाता

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 अश्क ख़ुद गिर पड़े क़दमों में उनके
मेरे पास पूजने को पानी नहीं था

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 दे-दे के वास्ता सीता का हर बार
अपनी तमन्नाओं को लोग सुलाते रहे

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 समेट कर एक दायरे सा
ज़िन्दगी को रुमाल कर दिया है

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 एक हादसा है ज़िन्दगी
हर दिन घट रही है

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 जोश जगा कर चमका लो जंग पड़े हथियारों को
क्यों हाथ बांधे हम देखें देश के इन गद्दारों को

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 घूरती है जिस्म को लालची निगाहें
कोई तो नज़र हो जो रूह को छूले

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तेरे हुनर के क़द सा कुछ भी नहीं,
तुझ पर लिखूं भी तो क्या लिखूं माँ
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खरीदार तो मिला था ,
गौहर बिक नहीं पाये

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नाज़ हुआ ज़िन्दगी पर जिसे
अगले ही पल वो फ़ना हो गया

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क्या कहा जाये इसे शर्मिन्गी
जब बाप ही बच्चों से डरने लगे ?
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रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)
जन्म: ७ जून, कुमंदी ग्राम, पलामू, झारखण्ड
चार काव्य संग्रह: 'स्वप्न मरते नहीं ', 'ह्रदय तारों का स्पन्दन', 'पगडंडियाँ' व 'मृगतृष्णा'
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
भाषा लेखन: हिंदी, पंजाबी, उर्दू.
लेखन: गीत, ग़ज़ल, कहानियां व कविताएँ.
शिक्षा: हिंदी व इतिहास में स्नातकोत्तर। हिंदी में पी.एच. डी. चल रही।
सम्प्रति: संगणक विज्ञान की शिक्षिका
वर्तमान पता: बोकारो (झारखण्ड)
मोबाइल नं: 9576693153, 9470190089

बुधवार, 5 अगस्त 2015

लम्हों से गुजरकर लफ्ज़ तक - रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)


रजनी मल्होत्रा (नैय्यर) जी के कुछ लम्हें जो लफ्जों में ढलकर सामने से गुजर जाते हैं और कह जाते हैं कुछ ऐसी बातें तो ठहरकर सोचने को मजबूर कर देते हैं तो वहीं कभी मन के उस कोने को भी छूकर गुजर जाते हैं जहाँ हम अक्सर नहीं ही जाते हैं। जब वो कहती हैं 'बनाकर बूत मुझे छोड़कर बुतख़ाने में, आ गए वो रस्में निभाने ज़माने से।' तो यकीनन आदमी ठहर सोचने को मजबूर हो जाता है; खुद अपने बारे में और दूसरों के बारे में भी। ठीक कुछ ऐसी ही बातें जो दिल-ओ-दिमाग में हलचल पैदा कर देती हैं उनके और कई शे'र भी करते हैं।
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छोड़ दिया कर कुछ वक़्त पर भी
अच्छा नहीं हर बात पर ख़ुदा हो जाना।
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पथरायी आँखों की कफ़स को तोड़कर
एक-एक कर ख़्वाबों के परिंदे उड़ जाते हैं।
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बनाकर बूत मुझे छोड़कर बुतख़ाने में
आ गए वो रस्में निभाने ज़माने से।
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जहाँ तुम दफ़न कर आये मुझसे जुड़ी यादों को,
देख लो वो मेरी आज में शामिल होकर ज़िंदा हैं।
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जिस्म पर दावेदारी करते रहें वो
रूह पर तो बोली हमारी लगी है।
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तुम्हारी आँखों से निकलकर बेघर हुए ख़्वाब
मुझसे आकर "रजनी" पनाह मांगते हैं।
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रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)
जन्म: ७ जून, कुमंदी ग्राम, पलामू, झारखण्ड
चार काव्य संग्रह: 'स्वप्न मरते नहीं ', 'ह्रदय तारों का स्पन्दन', 'पगडंडियाँ' व 'मृगतृष्णा'
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
भाषा लेखन: हिंदी, पंजाबी, उर्दू.
लेखन: गीत, ग़ज़ल, कहानियां व कविताएँ.
शिक्षा: हिंदी व इतिहास में स्नातकोत्तर। हिंदी में पी.एच. डी. चल रही।
सम्प्रति: संगणक विज्ञान की शिक्षिका
वर्तमान पता: बोकारो (झारखण्ड)
मोबाइल नं: 9576693153, 9470190089