ऐसा कुछ भी नहीं जिंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए।
काँटों बीच उगी डाली पर कल
जागी थी जो कोमल चिंगारी,
वो कब उगी खिली कब मुरझाई
याद न ये रख पाई फुलवारी।
ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए।
काँटों बीच उगी डाली पर कल
जागी थी जो कोमल चिंगारी,
वो कब उगी खिली कब मुरझाई
याद न ये रख पाई फुलवारी।
ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए।