रविवार, 25 जुलाई 2021

ऐसा कुछ भी नहीं - कैलाश वाजपेयी

ऐसा कुछ भी नहीं जिंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए।

काँटों बीच उगी डाली पर कल
जागी थी जो कोमल चिंगारी,
वो कब उगी खिली कब मुरझाई
याद न ये रख पाई फुलवारी।
ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए।

चाहे मन में हो या राहों में
हर अँधियारा भाई-भाई है,
मंडप-मरघट जहाँ कहीं छायें
सब किरणों में सम गोराई है
पर चन्दा को मन के दाग दिखाने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं चाँदनी में कि जलता मस्तक शबनम से धोया जाये।

साँप नहीं मरता अपने विष से
फिर मन की पीड़ाओं का डर क्या,
जब धरती पर ही सोना है तो
गाँव-नगर-घर-भीतर- बाहर क्या।
प्यार बिना दुनिया को नर्क बताने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं बंधनों में कि सारी उम्र किसी का भी होया जाए।

सूरज की सोनिल शहतीरों ने
साथ दिया कब अन्धी आँखों का,
जब अंगुलियाँ ही बेदम हों तो
दोष भला फिर क्या सूराखों का|
अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन!
ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए।
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कैलाश वाजपेयी




4 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (26-07-2021 ) को 'अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन!' (चर्चा अंक 4137) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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