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शनिवार, 18 जनवरी 2020

यदि मैं समालोचक होता - अमृतलाल नागर

संपादक जी,

इस सड़ी गर्मी में अपना तो क्‍या अमरीका और ब्रिटेन जैसे बड़े बड़ों का तेल निकल गया, महाराज। बरसात न होने के कारण हमारे अन्‍नमय कोष में महँगाई और चोरबाजारी के पत्‍थर पड़ रहे हैं, हम बड़े चिंताग्रस्‍त और दुखी हैं; पर यदि अपनी उदारता को पसारा देकर सोचें तो हम क्‍या और हमारा दुख भी क्‍या, क्‍या पिद्दी, क्‍या पिद्दी का शोरबा। अस्‍ली संकटग्रस्‍त और दुखी तो अंग्रेज अमरीकी कूटनीतिज्ञ राजनैतिक बेचारे महाजनगण हैं कि जिनकी आशाओं की बरसात नहीं हुई और जिनके प्राणमय कोश में इस समय केवल बगदाद पैक्‍ट की चिंदियाँ ही फरफरा रही हैं। हाय, ये क्‍या से क्‍या हो गया संपादक जी। अपि नियति नटी, अरी निष्‍ठुरे, तू बड़ी कठोर, बदमस्‍त और अल्‍हड़ है। न राजा भोज को पहचाने, न गँगुआ तेली को; अपनी मस्‍ती में समभाव से और बिना अवसर देखे ही तू जिस-तिस के मिजाज की मूँछें उखाड़ लेती है या सीधे किसी की छाती पर ही वज्र-प्रहार करती है। हमें गुसाई जी पर भी इस समय क्रोध आ रहा है जो ''हानि-लाभ जीवन-मरण यश-अपयश विधि हाथ'' सौंप गए। इन संतों को भावावेश में चट से शाप या वरदान दे डालने की अवैज्ञानिक आदत होती थी, इनके ज्ञानमय कोश में इतनी भी सामाजिक-राजनैतिक चेतना और दूरदर्शिता न थी कि तेल देखते, तेल की धार देखते। इसके अलावा अपने पुराने कवियों को भी हम क्‍या कहें, न जाने क्‍या देखकर नियति को नटी कह गए। यह नटी होती तो भला मौका चूकती! यह अवसर तो भवों, आँखों, होठों और गर्दन पर शोखी और भोलेपन के दोहरे डोरे डाल, नैन नचा, ठोकर मार, फिर चट से आँखों में घोर विस्‍मय का भाव ला ठोड़ी पर ऊँगली रखकर कहने का था : ''उई अल्‍लाह ये क्‍या हो गया?'' फिर दोनों की चोटें सहलाती हुई नियति नटी आँखों में आँसू भर चेहरे पर मासूमियत का भाव लाकर कहती : ''माफ करना डैडी, माफ करना अंकल, मैं तो नाच रही थी। हाय ये मुझसे क्‍या भूल हो गई!'' फिर टपाटप आँसू टपकाने लगती। नियति रानी को वर्ष का सर्वश्रेष्‍ठ अभिनय-पुरस्‍कार मिलता, हम दुखियारे भारतीयों को भाग्‍य से वर्षा मिलती : अनाज के भाव गिरते। फसल अच्‍छी न होने से हमारा करेला यों ही क्‍या कम कड़वा था कि ऊपर से महायुद्ध की नीम भी चढ़ने लगी। जाने कैसे और क्‍यों कर जी रहे हैं हम, ऊपर से ये लड़ाई की धमकी हो गई।

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

सिकंदर हार गया - अमृतलाल नागर

अमृतलाल नागरअपने जमाने से जीवनलाल का अनोखा संबंध था। जमाना उनका दोस्‍त और दुश्‍मन एक साथ था। उनका बड़े से बड़ा निंदक एक जगह पर उनकी प्रशंसा करने के लिए बाध्‍य था और दूसरी ओर उन पर अपनी जान निसार करनेवाला उनका बड़े से बड़ा प्रशंसक किसी ने किसी बात के लिए उनकी निंदा करने से बाज नहीं आता था, भले ही ऐसा करने में उसे दुख ही क्‍यों न हो। परिचित हो या अपरिचित, चाहे जीवनलाल का शत्रु ही क्‍यों न हो, अगर मुसीबत में है तो वह बेकहे-बुलाए आधी रात को भी तन-मन-धन से उसकी सहायता करने के लिए तैयार हो जाते थे। उस समय वे अपने नफे-नुकसान की तनि‍क भी परवाह न करते थे। लेकिन व्‍यवहार में बड़ी ओछी तबीयत के थे, अपने टके के लाभ के लिए किसी की हजारों की हानि करा देने में उन्‍हें तनिक भी हानि न होती थी। वह स्‍त्री के संबंध में भी बड़े मनमाने थे। इज्जत-आबरूदार लोग उनसे अपने घर की स्त्रियों का परिचय कराने में हिचकते थे और ऐसा करने पर भी वे प्रायः जीवनलाल से जीत नहीं पाते थे। शहर के कई प्रतिष्ठित धनीमानियों की घेरलू अथवा व्‍यावसायिक अथवा दोनों तरह की आबरूओं को उन्‍होंने अपने खूबसूरत शिकंजे में जकड़ रखा था, वह भी इस तरह कि 'हम मासूम हैं। तुम्‍हारे गुनाह में फँसाए गए हैं, खुद गुनहगार नहीं।'