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गुरुवार, 8 जुलाई 2021

अमंगल आचरण - काका हाथरसी

मात शारदे नतमस्तक हो, काका कवि करता यह प्रेयर
ऐसी भीषण चले चकल्लस, भागें श्रोता टूटें चेयर।

वाक् युद्ध के साथ-साथ हो, गुत्थमगुत्था हातापाई
फूट जायें दो चार खोपड़ी, टूट जायें दस बीस कलाई।

आज शनिश्चर का शासन है, मंगल चरण नहीं धर सकता
तो फिर तुम्हीं बताओ कैसे, मैं मंगलाचरण कर सकता।

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

फ्रैक्चर, प्लॉस्टर और चुनाव - राजीव उपाध्याय

अभी मैं उहापोह की स्थिति में पेंडुलम की तरह डोल ही रहा था कि चच्चा हाँफते हुए कहीं चले जा रहे थे। देखकर लगा कि चिढ़े हुए हैं। जैसे उन्होंने कोई भदइला आम जेठ के महीने में खा लिए हों और जहर की तरह दाँत से ज्यादा मन एकदम ही खट्टा हो गया हो। जब मैंने उनकी गाड़ी को अपने स्टेशन पर रुकते नहीं देखा तो मैंने चच्चा को जोर से हॉर्न देते हुए बोला,


‘अरे चच्चा! कहाँ रफ्फू-चक्कर हुए फिर रहे हैं। पैर की चकरघिरन्नी को थोड़ी देर के लिए मेरे स्टॉप पर रोकिए तो सही! क्या पता कोई सवारी ही मिल जाए?’

चच्चा पहले तो गच्चा खा गए कि बोला किसने लेकिन जैसे ही उनकी याददाश्त वापस लौटी तो खखार कर बोले, ‘तुम हो बच्चा! मैं समझा कि कोई और बोल रहा है?’

‘अरे चच्चा! ये गाड़ी लेकर कहाँ चले थे? चाची भी तो आजकल अपने मायके गई हुई हैं।’

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

तुम्हारी ऐसी तैसी - माणिक वर्मा

हरा भरा यह देश तुम्हारी ऐसी तैसी
फिर भी इतने क्लेश तुम्हारी ऐसी तैसी

बंदर तक हैरान तुम्हारी शक्ल देखकर
किसके हो अवशेष तुम्हारी ऐसी तैसी

आजादी लुट गई भांवरों के पड़ते ही
ऐसे पुजे गणेश तुम्हारी ऐसी तैसी

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

रात के बारह बजे - माणिक वर्मा

रूप की जब की बड़ाई, रात के बारह बजे
शेरनी घेरे में आई, रात के बारह बजे

कल जिसे दी थी विदाई, रात के बारह बजे
वो बला फिर लौट आई, रात के बारह बजे

हम तो अपने घर में बैठे तक रहे थे चांद को
और चांदनी क्यों छत पे आई, रात के बारह बजे

सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

चोलबे ना - राजीव उपाध्याय

चच्चा खीस से एकमुस्त लाल-पीला हो भुनभुनाए जा रहे थे मगर बोल कुछ भी नहीं रहे थे। मतलब एकदम चुप्प! बहुत देर तक उनका भ्रमर गान सुनने के बाद जब मेरे अन्दर का कीड़ा कुलबुलाने लगा। अन्त में वो अदभुत परन्तु सुदर्शन कीड़ा थककर बाहर निकल ही पड़ा।

‘चच्चा! कुछ बोलोगे भी कि बस गाते ही रहोगे? मेरे कान में शहनाई बजने लगी है; पकड़कर शादी करा दूँगा आपकी अब!’

चच्चा हैरान होकर मेरी तरफ देखने लगे। जब मैंने एक बुद्धिजीवी की तरह प्रश्नात्मक मुद्रा में उनकी ओर देखा तो वो पूछे

‘मतलब तुमने सुन ही लिया जो मैं बोल रहा था?’

मैंने वापसी की बस पकड़कर बोला, ‘आपकी चीख सुनाई नहीं दी; बस सूँघा हूँ! अब बोल भी दीजिए नहीं तो बदहजमी हो जाएगी’

रविवार, 26 जनवरी 2020

ठिठुरता हुआ गणतंत्र - हरिशंकर परसाई

चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। 

इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। 
आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? 

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

एक भूतपूर्व मंत्री से मुलाकात - शरद जोशी

मंत्री थे तब उनके दरवाजे कार बँधी रहती थी। आजकल क्वार्टर में रहते हैं और दरवाजे भैंस बँधी रहती है। मैं जब उनके यहाँ पहुँचा वे अपने लड़के को दूध दुहना सिखा रहे थे और अफसोस कर रहे थे कि कैसी नई पीढ़ी आ गई है जिसे भैंसें दुहना भी नहीं आता।

मुझे देखा तो बोले - 'जले पर नमक छिड़कने आए हो!'

'नमक इतना सस्ता नहीं है कि नष्ट किया जाए। कांग्रेस राज में नमक भी सस्ता नहीं रहा।'

'कांग्रेस को क्यों दोष देते हो! हमने तो नमक-आंदोलन चलाया।' - फिर बड़बड़ाने लगे, 'जो आता है कांग्रेस को दोष देता है। आप भी क्या विरोधी दल के हैं?'

'आजकल तो कांग्रेस ही विरोधी दल है।'

वे चुप रहे। फिर बोले, 'कांग्रेस विरोधी दल हो ही नहीं सकती। वह तो राज करेगी। अंग्रेज हमें राज सौंप गए हैं। बीस साल से चला रहे हैं और सारे गुर जानते हैं। विरोधियों को क्या आता है, फाइलें भी तो नहीं जमा सकते ठीक से। हम थे तो अफसरों को डाँट लगाते थे, जैसा चाहते थे करवा लेते थे। हिम्मत से काम लेते थे। रिश्तेदारों को नौकरियाँ दिलवाईं और अपनेवालों को ठेके दिलवाए। अफसरों की एक नहीं चलने दी। करके दिखाए विरोधी दल! एक जमाना था अफसर खुद रिश्वत लेते थे और खा जाते थे। हमने सवाल खड़ा किया कि हमारा क्या होगा, पार्टी का क्या होगा?'

बुधवार, 22 जनवरी 2020

आलस्य भक्त - गुलाब राय

अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।

प्रिय ठलुआ-वृंद! यद्यपि हमारी सभा समता के पहियों पर चल रही है और देवताओं की भांति हममें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, तथापि आप लोगों ने मुझे इस सभा का पति बनाकर मेरे कुंआरेपन के कलंक को दूर किया है। नृपति और सेनापति होना मेरे स्‍वप्‍न से भी बाहर था। नृपति नहीं तो नारी-पति होना प्रत्‍येक मनुष्‍य की पहुंच के भीतर है, किंतु मुझ-ऐसे आलस्‍य-भक्‍त के लिए विवाह में पाणिग्रहण तक का तो भार सहना गम्‍य था। उसके आगे सात बार अग्नि की परिक्रमा करना जान पर खेलने से कम न था। जान पर खेल कर जान का जंजाल खरीदना मूर्खता ही है - 'अल्‍पस्‍य हेतोर्बहु हातुमिच्‍छन्, विचारमूढ: प्रतिभासि मे त्‍वम्' का कथन मेरे ऊपर लागू हो जाता। 'ब्‍याहा भला कि क्‍वांरा' - वाली समस्‍या ने मुझे अनेक रात्रि निद्रा देवी के आलिंगन से वंचित रखा था, किंतु जब से मुझे सभापतित्‍व का पद प्राप्‍त हुआ है, तब से यह समस्‍या हल हो गई है। आलसी के लिए इतना ही आराम बहुत है। यद्यपि मेरे सभापति होने की योग्‍यता में तो आप लोगों को संदेह करने के लिए कोई स्‍थान नहीं है, तथापि आप लोगों को अपने सिद्धांतों को बतला अपनी योग्‍यता का परिचय देना अनुचित न होगा।

सोमवार, 20 जनवरी 2020

एक कुत्ते की डायरी - प्रभाकर माचवे

शुनिचैव श्‍वापाके च पंडित: समदर्शिन:। (गीता)

मेरा नाम 'टाइगर' है, गो शक्‍ल-सूरत और रंग-रूप में मेरा किसी भी शेर या 'सिंह' से कोई साम्‍य नहीं। मैं दानवीर लाला अमुक-अमुक का प्रिय सेवक हूँ; यद्यपि वे मुझे प्रेम से कभी-कभी थपथपाते हुए अपना मित्र और प्रियतम भी कह देते हैं। वैसे मैं किस लायक हूँ? मतलब यह है कि लालाजी का मुझ पर पुत्रवत प्रेम है। नीचे मैं अपने एक दिन के कार्यक्रम का ब्‍यौरा आपके मनोरंजनार्थ उपस्थित करता हूँ -

6 बजे सवेरे - घर की महरी बहुत बदमाश हो गई है। मेरी पूँछ पर पैर रख कर चली गई। अंधी हो गई क्‍या? और ऊपर से कहती है - अँधेरा था। किसी दिन काट खाऊँगा। गुर्र-गुर्र... अच्‍छा-चंगा हड्डीदार सपना देख रहा था और यह महरी आ गई - इसने मेरे सपने के स्‍वर्ण-संसार पर पानी फेर दिया। विचार-श्रृंखला टूट गई। बात यह है कि मैं एक शाकाहारी घर में पल रहा हूँ। अत: कभी-कभी मांसाहार का सपना आ जाना पाप नहीं! यह मेरी अतृप्‍त वासना है, ऐसा परसों मालिक से मिलने को आए एक बड़े मनोवैज्ञानिकजी कह रहे थे।... फिर सो गया।

शनिवार, 18 जनवरी 2020

यदि मैं समालोचक होता - अमृतलाल नागर

संपादक जी,

इस सड़ी गर्मी में अपना तो क्‍या अमरीका और ब्रिटेन जैसे बड़े बड़ों का तेल निकल गया, महाराज। बरसात न होने के कारण हमारे अन्‍नमय कोष में महँगाई और चोरबाजारी के पत्‍थर पड़ रहे हैं, हम बड़े चिंताग्रस्‍त और दुखी हैं; पर यदि अपनी उदारता को पसारा देकर सोचें तो हम क्‍या और हमारा दुख भी क्‍या, क्‍या पिद्दी, क्‍या पिद्दी का शोरबा। अस्‍ली संकटग्रस्‍त और दुखी तो अंग्रेज अमरीकी कूटनीतिज्ञ राजनैतिक बेचारे महाजनगण हैं कि जिनकी आशाओं की बरसात नहीं हुई और जिनके प्राणमय कोश में इस समय केवल बगदाद पैक्‍ट की चिंदियाँ ही फरफरा रही हैं। हाय, ये क्‍या से क्‍या हो गया संपादक जी। अपि नियति नटी, अरी निष्‍ठुरे, तू बड़ी कठोर, बदमस्‍त और अल्‍हड़ है। न राजा भोज को पहचाने, न गँगुआ तेली को; अपनी मस्‍ती में समभाव से और बिना अवसर देखे ही तू जिस-तिस के मिजाज की मूँछें उखाड़ लेती है या सीधे किसी की छाती पर ही वज्र-प्रहार करती है। हमें गुसाई जी पर भी इस समय क्रोध आ रहा है जो ''हानि-लाभ जीवन-मरण यश-अपयश विधि हाथ'' सौंप गए। इन संतों को भावावेश में चट से शाप या वरदान दे डालने की अवैज्ञानिक आदत होती थी, इनके ज्ञानमय कोश में इतनी भी सामाजिक-राजनैतिक चेतना और दूरदर्शिता न थी कि तेल देखते, तेल की धार देखते। इसके अलावा अपने पुराने कवियों को भी हम क्‍या कहें, न जाने क्‍या देखकर नियति को नटी कह गए। यह नटी होती तो भला मौका चूकती! यह अवसर तो भवों, आँखों, होठों और गर्दन पर शोखी और भोलेपन के दोहरे डोरे डाल, नैन नचा, ठोकर मार, फिर चट से आँखों में घोर विस्‍मय का भाव ला ठोड़ी पर ऊँगली रखकर कहने का था : ''उई अल्‍लाह ये क्‍या हो गया?'' फिर दोनों की चोटें सहलाती हुई नियति नटी आँखों में आँसू भर चेहरे पर मासूमियत का भाव लाकर कहती : ''माफ करना डैडी, माफ करना अंकल, मैं तो नाच रही थी। हाय ये मुझसे क्‍या भूल हो गई!'' फिर टपाटप आँसू टपकाने लगती। नियति रानी को वर्ष का सर्वश्रेष्‍ठ अभिनय-पुरस्‍कार मिलता, हम दुखियारे भारतीयों को भाग्‍य से वर्षा मिलती : अनाज के भाव गिरते। फसल अच्‍छी न होने से हमारा करेला यों ही क्‍या कम कड़वा था कि ऊपर से महायुद्ध की नीम भी चढ़ने लगी। जाने कैसे और क्‍यों कर जी रहे हैं हम, ऊपर से ये लड़ाई की धमकी हो गई।

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

बुद्धिजीवियों का दायित्व - शरद जोशी

लोमड़ी पेड़ के नीचे पहुँची। उसने देखा ऊपर की डाल पर एक कौवा बैठा है, जिसने मुँह में रोटी दाब रखी है। लोमड़ी ने सोचा कि अगर कौवा गलती से मुँह खोल दे तो रोटी नीचे गिर जाएगी। नीचे गिर जाए तो मैं खा लूँ।

लोमड़ी ने कौवे से कहा, ‘भैया कौवे! तुम तो मुक्त प्राणी हो, तुम्हारी बुद्धि, वाणी और तर्क का लोहा सभी मानते हैं। मार्क्सवाद पर तुम्हारी पकड़ भी गहरी है। वर्तमान परिस्थितियों में एक बुद्धिजीवी के दायित्व पर तुम्हारे विचार जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। यों भी तुम ऊँचाई पर बैठे हो, भाषण देकर हमें मार्गदर्शन देना तुम्हें शोभा देगा। बोलो... मुँह खोलो कौवे!’

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

घनचक्कर - विवेकी राय

घनचक्कर - विवेकी राय
कचहरी में बैठकर वह लगभग रो दिया था। ऐसा मामूली कार्य भी वह नहीं कर सकता? छोटे-छोटे आदमियों से असफल सिफारिश की खिन्‍नता लिए वह शाम को स्‍टेशन की ओर टहलता गया।

तभी आते-जाते लोगों के बीच दिखायी पड़ा तहसील-स्‍तर का नया ग्राम-नेता - दुबला, लंबा, मूँछें सफाचट, गेहुँआ रंग। ढीला-ढाला लंबा कुरता सफेद खादी का, कुरते की बाँहें काफी बड़ी, अर्थात् कलाई पर से लगभग एक बित्ता मुड़ी हुई, मुख पर टँगी धूर्त अहमन्‍यता, नकली तेजस्विता और ओढ़ी भद्रता। उसका झोला पीछे आता सस्‍ते गल्‍ले का एक ग्रामीण दुकानदार ढो रहा था। ग्राम-नेता की उँगलियों में बिना जलाई सिगरेट थी, वह वास्‍तव में दियासलाई की ताक में था और कुछ लंबा होने के कारण दूर-दूर की झाँकी ले रहा था। वह स्‍टेशन की ओर इस प्रकार बढ़ रहा था मानो किसी उद्घाटन में फीता काटना है। वी.आई.पी. मार्का चाल क्‍या सीखनी पड़ती है? - नहीं, स्‍वयं आ जाती है।

सोमवार, 2 सितंबर 2019

370 का रीचार्ज - राजीव उपाध्याय

टीवी खोला ही था कि धमाका हुआ और धमाका देखकर मेरे बालमन का मयूर नाच उठा। बालमन का मयूर था तो नौसिखिया नर्तक होना तो लाजमी ही था। परन्तु नौसिखिए नर्तक के साथ सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि उसे हर काम में ‘साथी हाथ बढ़ाना’ वाले भाव में एक साथी की आवश्यकता महसूस होती है। उसको नाचने में मजा तब आता है जब कोई साथ देने वाला हो। और मेरे पास पिता-मेड पत्नी के होने का घोर सुख प्राप्त था तो मैंने खुश होकर श्रीमती जी को आवाज लगाई, 

“एक बात जानती हो?”

उनके कान पीपल के पत्ते की तरह फड़फड़ा उठे और शोएब अख्तर के गेंद की तरह उनकी आवाज आई, “क्या?” 

मुझे लगा आउट हो जाऊँगा परन्तु फुल लेन्थ कि बॉल थी सम्भाल लिया। वैसे भी विवाहित पुरूष एक खिलाड़ी से कम नहीं होता है। खैर। मैंने कहा, 

बुधवार, 26 जून 2019

नेहरू के नाम मंटो का खत - सआदत हसन मंटो

सआदत हसन मंटो Saadat Hasan Manto
पंडित जी,
अस्‍सलाम अलैकुम।

यह मेरा पहला खत है जो मैं आपको भेज रहा हूँ। आप माशा अल्‍लाह अमरीकनों में बड़े हसीन माने जाते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरे नाक-नक्श भी कुछ ऐसे बुरे नहीं हैं। अगर मैं अमरीका जाऊँ तो शायद मुझे हुस्‍न का रुतबा अता हो जाए। लेकिन आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और मैं पाकिस्‍तान का महान कथाकार। इन दोनों में बड़ा अंतर है। बहरहाल हम दोनों में एक चीज साझा है कि आप कश्‍मीरी हैं और मैं भी। आप नेहरू हैं, मैं मंटो... कश्‍मीरी होने का दूसरा मतलब खूबसूरती और खूबसूरती का मतलब, जो अभी तक मैंने नहीं देखा।


मुद्दत से मेरी इच्‍छा थी कि मैं आपसे मिलूँ (शायद बशर्ते जि़ंदगी मुलाकात हो भी जाए)। मेरे बुजुर्ग तो आपके बुजुर्गों से अक्सर मिलते-जुलते रहे हैं लेकिन यहाँ कोई ऐसी सूरत न निकली कि आपसे मुलाकात हो सके।

शुक्रवार, 21 जून 2019

अंगद का पाँव - श्रीलाल शुक्ल

अंगद का पाँव - श्रीलाल शुक्ल
वैसे तो मुझे स्टेशन जा कर लोगों को विदा देने का चलन नापसंद है, पर इस बार मुझे स्टेशन जाना पड़ा और मित्रों को विदा देनी पड़ी। इसके कई कारण थे। पहला तो यही कि वे मित्र थे। और, मित्रों के सामने सिद्धांत का प्रश्न उठाना ही बेकार होता है। दूसरे, वे आज निश्चय ही पहले दर्जे में सफर करने वाले थे, जिसके सामने खड़े हो कर रूमाल हिलाना मुझे निहायत दिलचस्प हरकत जान पड़ती है।

इसलिए मै स्टेशन पहुँचा। मित्र के और भी बहुत-से मित्र स्टेशन पर पहुँचे हुए थे। उनके विभाग के सब कर्मचारी भी वहीं मौजूद थे। प्लेटफार्म पर अच्छी-खासी रौनक थी। चारों ओर उत्साह फूटा-सा पड़ रहा था। अपने दफ्तर में मित्र जैसे ठीक समय से पहुँचते थे, वैसे ही गाड़ी भी ठीक समय पर आ गई थी। अब उन्होंने स्वामिभक्त मातहतों के हाथों गले में मालाएँ पहनी, सबसे हाथ मिलाया, सबसे दो-चार रस्मी बातें कहीं और फर्स्ट क्लास के डिब्बे के इतने नजदीक खड़े हो गए कि गाड़ी छूटने का खतरा न रहे।

रविवार, 16 जून 2019

क्रमशः प्रगति - शरद जोशी

खरगोश का एक जोड़ा था, जिनके पाँच बच्चे थे।

एक दिन भेड़िया जीप में बैठकर आया और बोला - असामाजिक तत्वों तुम्हें पता नहीं सरकार ने तीन बच्चों का लक्ष्य रखा है। और दो बच्चे कम करके चला गया।

कुछ दिनों बाद भेड़िया फिर आया और बोला कि सरकार ने लक्ष्य बदल दिया और एक बच्चे को और कम कर चला गया। खरगोश के जोड़े ने सोचा, जो हुआ सो हुआ, अब हम शांति से रहेंगे। मगर तभी जंगल में इमर्जेंसी लग गई।

शुक्रवार, 7 जून 2019

प्रोफेसर - मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

आज फिर उनके सम्मान में हजरत रंजूर अकबराबादी एडीटर, प्रिंटर, पब्लिशर व प्रूफरीडर त्रैमासिक 'नया क्षितिज' ने एक शाम-भोज दिया था।

जिस दिन से प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस, एम.ए., बी.टी. गोल्ड मैडलिस्ट (मिर्जा का कहना है कि यह पदक उन्हें मिडिल में बिना नागा उपस्थिति पर मिला था) यूनिवर्सिटी की नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद बैंक ऑफ चाकसू लिमिटेड में डायरेक्टर, पब्लिक रिलेशन्स एंड एडवरटाइजिंग की हैसियत में धाँस दिए गए थे, उनके सम्मान में इस तरह के शाम-भोज, स्वागत-समारोह और डिनर दैनिक दफ्तरी जीवन का तत्व बल्कि जीवन का अंग बन गए थे। घर पर नेक कमाई की रोटी तो केवल बीमारी के समय में ही बरदाश्त करते थे, वरना दोनों समय स्वागत-भोज ही खाते थे। बैंक की नौकरी प्रोफेसरश्री के लिए एक अजीब अनुभव साबित हुई, जिसका मूल्य वो हर तरह से महीने की तीस तारीख को वसूल कर लेते थे।

शुक्रवार, 31 मई 2019

आवारा भीड़ के खतरे - हरिशंकर परसाई

Image result for हरिशंकर परसाईएक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया – पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर माडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया।आसपास के लोगों ने पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया-हरामजादी बहुत खूबसूरत है।

हम ४-५ लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ये सवाल दुनिया में भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं-पश्चिम के सम्पन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी। अमेरिका से आवारा हिप्पी और’हरे राम हरे कृण्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का काम मिले,अमेरिका में रहूँ । ‘स्टेट्स’ जाना है यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है। ये अपवाद है। भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है,जो हताश,बेकार और कुद्ध हैं। संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार और भारत के युवकों के व्यवहार में अंतर हैं।

गुरुवार, 23 मई 2019

चुनावी चक्कलस का मंत्र - राजीव उपाध्याय

सुबह सुबह की बात है (कहने का मन तो था कि कहूँ कि बहुत पहले की बात है मतलब बहुत पहले की परन्तु सच ये है कि आज शाम की ही बात है)। मैं अपनी रौ में सीटी बजाता टहल रहा था। टहल क्या रहा था बल्कि पिताजी से नजर बचाकर समय घोंटते हुए मटरगश्ती कर रहा था (इसका चना-मटर से कोई संबंध नहीं है परन्तु आप भाषाई एवं साहित्यिक स्तर पर कल्पना करने को स्वतंत्र हैं। शायद कोई अलंकार या रस ही हो जिससे मैं परिचित ना होऊँ और अनजाने में मेरे सबसे बड़े साहित्यिक योगदान को मान्यता मिलते-मिलते रह जाए)। तभी मेरी नजर चच्चा पर पड़ी जो एक हाथ में धोती का एक कोन पकड़े तेज रफ्तार में चले जा रहे थे जैसे कि दिल्ली की राजधानी एक्सप्रेस पकड़नी हो! मैंने भी ना आव देखा ना ताव; धड़ दे मारी आवाज,

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

भारत एक अजायबघर - राजीव उपाध्याय

हम सभी भारत नामक अजायबघर में रहते हैं। इस अजायबघर में इस अजायबघर के लिए जान देने वालों की कीमत कुछ भी नहीं। चाहे वो मरने वाले सी आर पी एफ के जवान हों या सरहदों पर जान देने वाले वीर सैनिक (हो सकता है वो कायर भी हों। जांच की आवश्यकता है। संसद की कोई समिति बनानी चाहिए।)। इस अजायबघर की विद्वान जनता इन्हें मूर्ख मानती है और ये पगले इस अजायबघर के लिए पागल होकर जान तक दे देते हैं। ओह मैं तो भूल ही गया कि ये होते ही हैं मरने के लिए। अच्छा ही है कि कुछ तो वेतन के कर्ज से मुक्त हो पाते हैं वरना इन्हे भी औरों की तरह नर्क और दोखज में जाने किन-किन यातनाओं से होकर गुजरना पड़ता।