जब बुनियाद ही कमजोर थी
उस इमारत की
तो गिरना ही था उसे
हवा-पानी से।
वैसे भी
कोई कहाँ टिक सका है
हवा-पानी में।
इमारत गिरनी थी
गिर ही गई
पर वजह कुछ और थी,
वैसे तो खड़ी रह सकती थी
पर कागज के इक टूकड़े में
ज़ोर इतना था
कि लिखावट उसकी
कहर बनकर गिरी,
कि जिसकी ठोकरों से
इमारत भरभराकर ढ़ह गई।
जिन्दा तो रहना चाहती थी
पर किसी के
चाहत की आग में
वो अनचाही ही
धू-धू कर जल गई॥
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राजीव उपाध्याय
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-06-2019) को "राह दिखाये कौन" (चर्चा अंक- 3363) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद सर।
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार जून 11, 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंस्थान देने लिए आपको सादर धन्यवाद।
हटाएंस्थान देने लिए आपको सादर धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लाज़वाब अभिव्यक्ति👍
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद श्वेता। जी
हटाएंपर कागज के इक टूकड़े में
जवाब देंहटाएंज़ोर इतना था
कि लिखावट उसकी
कहर बनकर गिरी,
कि जिसकी ठोकरों से
इमारत भरभराकर ढ़ह गई। वाह बेहतरीन प्रस्तुति
उत्साह बढाने के लिए सादर धन्यवाद।
हटाएंवाह!!बहुत खूब!!
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद।
हटाएंबहुत सुंदर रचना ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद। नमन।
हटाएंबहुत खूब राजिव जी ... हवा में टिक पाना सच में मुश्किल है ...
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद सर। आपके ये उत्साहवर्धक शब्द ही मन को शक्ति देते हैं बात कह पाने की।
हटाएंआजकल लिखने का टोन बिलकुल अलग ?
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद संजय जी। हाँ। हर समय का अपना समकालीन टोन होता है।
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