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शुक्रवार, 21 जून 2019

अंगद का पाँव - श्रीलाल शुक्ल

अंगद का पाँव - श्रीलाल शुक्ल
वैसे तो मुझे स्टेशन जा कर लोगों को विदा देने का चलन नापसंद है, पर इस बार मुझे स्टेशन जाना पड़ा और मित्रों को विदा देनी पड़ी। इसके कई कारण थे। पहला तो यही कि वे मित्र थे। और, मित्रों के सामने सिद्धांत का प्रश्न उठाना ही बेकार होता है। दूसरे, वे आज निश्चय ही पहले दर्जे में सफर करने वाले थे, जिसके सामने खड़े हो कर रूमाल हिलाना मुझे निहायत दिलचस्प हरकत जान पड़ती है।

इसलिए मै स्टेशन पहुँचा। मित्र के और भी बहुत-से मित्र स्टेशन पर पहुँचे हुए थे। उनके विभाग के सब कर्मचारी भी वहीं मौजूद थे। प्लेटफार्म पर अच्छी-खासी रौनक थी। चारों ओर उत्साह फूटा-सा पड़ रहा था। अपने दफ्तर में मित्र जैसे ठीक समय से पहुँचते थे, वैसे ही गाड़ी भी ठीक समय पर आ गई थी। अब उन्होंने स्वामिभक्त मातहतों के हाथों गले में मालाएँ पहनी, सबसे हाथ मिलाया, सबसे दो-चार रस्मी बातें कहीं और फर्स्ट क्लास के डिब्बे के इतने नजदीक खड़े हो गए कि गाड़ी छूटने का खतरा न रहे।