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सोमवार, 16 मई 2016

जरूरी नहीं - राजीव उपाध्याय

हर तस्वीर साफ ही हो ये जरूरी नहीं
जमी मिट्टी भी मोहब्बत की गवाही देती है।
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मैं भी कभी हो बेसुध, नीड़ में तेरी सोता था
बात मगर तब की है, जब माँ तुझे मैं कहता था।
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मोहब्बत में फकीरी है बड़े काम की
दिल को दिल समझ जाए तय मुकाम की॥
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क़त्ल-ओ-गारद का सामान हर हम लाए हैं
तू चाहे खुदा बन या मौत ही दे दे मुझे।
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हर आदमी यहाँ खुदा हो जाना चाहता है
कि कोई सवाल ना करे सवाल उछालना जानता है।
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शनिवार, 27 सितंबर 2014

हमसफ़र चाहता हूँ

हमसफ़र चाहता हूँ,
बस इक तेरी नज़र चाहता हूँ।
जिन्दगी कुछ यूँ हो मेरी,
बस इक घर चाहता हूँ॥
हमसफ़र चाहता हूँ॥

कदम दो कदम जो चलना जिन्दगी में
कदमों पे तेरे, कदम चाहता हूँ।
लबों पे खुशी हो तेरे सदा
ऐसी कोई कसम चाहता हूँ।
हमसफ़र चाहता हूँ॥

राह--जिन्दगी होगी हसीन
ग़र संग हम दोनों चलें
फूलों में देखो, हैं रंग कितने
उन्हीं में जीवन बसर चाहता हूँ।
हमसफ़र चाहता हूँ॥

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

जाना है मुझको

जाना है मुझको, मैं चला जाऊँगा
चाहो ना चाहो, पर याद आऊँगा।

जब-जब गुँजेगी आवाज़ तेरी,
जब नाम तेरा लिया जाएगा
हर सुर में, हर बोल को
मैं संग तेरे गुनगुनाऊँगा।
चाहो ना चाहो, पर याद आऊँगा॥

मंजिल दूर, राह ना आसान है
कभी चलूँगा, कभी ठहर जाऊँगा
मैं सफ़र का, गुमनाम मुसाफ़िर तेरा
हर पल साया बन, साथ निभाऊँगा।
जाना है मुझको, मैं चला जाऊँगा,
चाहो ना चाहो, पर याद आऊँगा॥

©राजीव उपाध्याय


सोमवार, 15 सितंबर 2014

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -5

ये प्यार है या कुछ और है, हमको बता ये कौन है
जो नींद थी आँखों मे, अब नज़र आती नहीं
सपने हैं कुछ हसीन से, जो आँखो से जाते नहीं
ये प्यार है या कुछ और है, हमको बता ये कौन है॥

तमाम शिकवे गिले भूलाकर गए, साथ अपने हमको छुपाकर गए।
अब चलें तो चलें किस राह पर, ना मंजिल ना रास्ता बताकर गए।।


कुछ इस कदर ख़फा वो हमसे हुए,
कुछ ना कहे चले गए,
आँसू भी मेरे संग ले गए।।
©राजीव उपाध्याय

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -4

मैं हर पल साथ तेरे था, बस नज़र उठाकर देखा होता।
धुंधली सी परछाईं बनकर, पीछे तेरे खड़ा था॥
दो चार लोगों से मिलकर देखा, तो मेरे ग़म की शिनाख़्त हुई।
कभी औंधे मूँह गिरे थे, कभी कड़ती दोपहर सी बरसात हुई

तल्ख़ जिन्दगी की कश्मकश में, हम इस कदर खोए रहे
कि बदलती सूरत भी अपनी अब पहचान नहीं आती
©राजीव उपाध्याय

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

आहिस्ता आहिस्ता दर्द बढ़ता है

आहिस्ता आहिस्ता
दर्द बढ़ता है
दिल के किसी कोने में।



यादों की पुरवाई
आकर मुझसे कहती है
तन्हाई के मौसम में॥
©राजीव उपाध्याय

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

कुछ तो कहो क्यों चुप रहते हो - 2

पहले पहल
जब तूम हंसते थे
दिल हंसता था
ज़ाँ आती थी;
तेरे संग
आँख मिचौली करते थे;
तूमसे छिपते थे
तूमसे ही मिलते थे।



तेरी आँखों की लय पर
जीवन डोर टिकाई है।
ग़म जो भी हों
कह दो
दे दो मुझको
चुप्पी तेरी
जाँ पर बन आयी है।
कह दो
जो भी हो दिल में तेरे
दिल थाम हाथों में
सांस रोके खड़े हैं।
जिंदगी
ये अब जिंदगी नहीं
जबसे उदास हो चले हो।
कुछ तो कहो
क्यों चुप रहते हो?
©राजीव उपाध्याय

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -3

शाम से ही मनहुसियत छाई है, जाने कब से शमा ललचाई है।
दिल में मौत का ख़ौफ़, उजाले में अंधेरा ले के आई है॥



बस एक अदद मौत मांगी थी हमने, देकर खुद जिन्दगी का हवाला।
जिन्दगी ना मिली, मौत भी ले गया, जाने दिया कौन सा निवाला॥

परवाह ना कीजिए हुज़ूर आप, चीजें खुद बदल जाएंगी
जिन्दगी सफ़र अन्जाना, राहें मंजिल मिल जाएंगी॥
©राजीव उपाध्याय

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

कुछ तो कहो, क्यों चुप रह्ते हो -1

बड़ी मुद्द्त बाद मिले हो
कुछ तो कहो
क्यों चुप रह्ते हो?


कई दिनों से
रस्ते पर तेरे
नज़रें टिकाए
तुझे तकते थे;
कुछ कहते थे
तूम ना आओगे;
पर दिल की जवाँ
धड़कन ले कर
साथ तेरे रहते थे।
क्या हुआ
क्यों उदास हो
क्यों बेख़बर दिखते हो?
कुछ तो कहो
क्यों चुप रह्ते हो?
©राजीव उपाध्याय

रविवार, 11 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -2

सुना था आइने में चेहरा दिखता है।
पर आज चेहरे में चेहरा दिखा है


हम रोते हुए निकले घर से, तूम हंसते हुए।
लोगों ने समझा, एक खुश है, है दुसरा ग़म में।
पर उन्हें क्या पता, हम दोनों ही खुश हैं॥

चलना चाहता हूँ कुछ दूर तक मैं
पर मंज़िल का पता नहीं
और रास्ता भी चुपचाप है
©राजीव उपाध्याय

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -1

ग़लफ़त में ना रहिए हुजूर, ये ग़लफ़त आपको गला देगी।
तब मुक़्द्दर भी ना करेगा इनायत, शराफ़त के मुद्द्तों से।।




है मुमकिन कि तूम मुझसे ख़फ़ा हो जाओ।
जब बात कहूँ दिल की तो बेवफ़ा हो जाओ

मैं इसे नज़र का फेर कहूँ, या ज़िग़र का फेर।
कि नज़र ने नज़रबाज़ को, नज़रंदाज़ कर दिया॥
©राजीव उपाध्याय

रविवार, 4 दिसंबर 2011

सब सोते हैं, मैं रोता हूँ

सब सोते हैं, मैं रोता हूँ
सब जगते हैं, मैं सोता हूँ।



इश्क ने जब से है रंगत बदली
डुबा डुबा सा रहता हूँ
घाव मरहम है अब जख़्मों का
ख़ून से अपने यूँ धोता हूँ।
सब सोते हैं, मैं रोता हूँ।।

कोई तल्ख़ी अब ना रही
आँखों में अब तूम रहती हो
बरसों बीत गए, तूमसे मिले-बिछड़े
पर अब भी सांसों में बची हो।
सब कुछ खोकर तूमको पाता हूँ
मैं नहीं अब, बस तूममें जीता हूँ।
सब सोते हैं, मैं रोता हूँ।।
© राजीव उपाध्याय