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शनिवार, 27 जुलाई 2019

कुटज - हजारी प्रसाद द्विवेदी

हजारी प्रसाद द्विवेदी, Hajari Prasad Dwivedi
कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्‍या। पूर्व और अपार समुद्र - महोदधि और रत्‍नाकर - दोनों को दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय 'पृथ्‍वी का मानदंड' कहा जाय तो गलत क्‍यों है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह जो श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे 'शिवालिक' श्रृंखला कहते हैं। 'शिवालिक' का क्‍या अर्थ है? 'शिवालक' या शिव के जटाजूट का निचला हिस्‍सा तो नहीं है? लगता तो ऐसा ही है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। वैसे, अलकनंदा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर हैं, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा। संपूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्‍य महादेव की मूर्ति स्‍पष्‍ट हुई होगी। उसी समाधिस्‍य महोदव के अलक-जाल के निचले हिस्‍से का प्रतिनिधित्‍व यह गिरि श्रृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े दिख अवश्‍य जाते हैं, पर और कोई हरियाली नहीं। दूब तक सूख गई है। काली-काली चट्टानों और बीच-बीच में शुष्‍कता की अंतर्निरुद्ध सत्ता का इजहार करनेवाली रक्‍ताभ रेती। रस कहाँ है? ये जो ठिंगने-से लेकिन शानदार दरख्‍त गर्मी भी भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्‍यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, इन्‍हें क्‍या कहूँ? सिर्फ जी ही नहीं रहे है, हँस भी रहे हैं। बेहया हैं क्‍या? या मस्‍तमौला हैं? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरे पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोग्‍य खींच लाते हैं।