कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 18 जुलाई 2021

पहले अपना प्याला खाली करो

जापानी सदगुरु ‘नानहन' ने श्रोताओं से दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर का परिचय कराया। उसके बाद अतिथि गृह के प्याले में वह उन प्रोफेसर के लिए चाय उड़ेलते ही गए। भरे प्याले में छलकती चाय को देख कर प्रोफेसर अधिक देर तक स्वयं को रोक न सके।
उन्होंने कहा- 'कृपया रुकिए! प्याला पूरा भर चुका है। उसमें अब और चाय नहीं आ सकती।'
नानइन ने कहा- 'इस प्याले की तरह आप भी अपने अनुमानों और निर्णयों से भरे हुए हैं। जब तक पहले आप अपने प्याले को खाली न कर लें, मैं झेन की ओर संकेत कैसे कर सकता हूँ?'

रविवार, 11 जुलाई 2021

सब धन धूलि समान

जयनगर के राजा कृष्णदेवराय ने जब राजगुरु व्यासराय के मुख से संत पुरन्दरदास के सादगी भरे जीवन और लोभ से मुक्त होने की प्रशंसा सुनी, तो उन्होंने संत की परीक्षा लेने की ठानी। एक दिन राजा ने सेवकों द्वारा संत को बुलवाया और उनको भिक्षा में चावल डाले। संत प्रसन्न हो बोले,‘महाराज! मुझे इसी तरह कृतार्थ किया करें।’

घर लौट कर पुरन्दरदास ने प्रतिदिन की तरह भिक्षा की झोली पत्नी सरस्वती देवी के हाथ में दे दी। किंतु जब वह चावल बीनने बैठीं, तो देखा कि उसमें छोटे-छोटे हीरे हैं। उन्होंने उसी क्षण पति से पूछा,‘कहां से लाए हैं आज भिक्षा?’ पति ने जब कहा कि राजमहल से, तो पत्नी ने घर के पास घूरे में वे हीरे फेंक दिए। अगले दिन जब पुरन्दरदास भिक्षा लेने राजमहल गये, तो सम्राट को उनके मुख पर हीरों की आभा दिखी और उन्होंने फिर से झोली में चावल के साथ हीरे डाल दिए। ऐसा क्रम एक सप्ताह तक चलता रहा।

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

फ्रैक्चर, प्लॉस्टर और चुनाव - राजीव उपाध्याय

अभी मैं उहापोह की स्थिति में पेंडुलम की तरह डोल ही रहा था कि चच्चा हाँफते हुए कहीं चले जा रहे थे। देखकर लगा कि चिढ़े हुए हैं। जैसे उन्होंने कोई भदइला आम जेठ के महीने में खा लिए हों और जहर की तरह दाँत से ज्यादा मन एकदम ही खट्टा हो गया हो। जब मैंने उनकी गाड़ी को अपने स्टेशन पर रुकते नहीं देखा तो मैंने चच्चा को जोर से हॉर्न देते हुए बोला,


‘अरे चच्चा! कहाँ रफ्फू-चक्कर हुए फिर रहे हैं। पैर की चकरघिरन्नी को थोड़ी देर के लिए मेरे स्टॉप पर रोकिए तो सही! क्या पता कोई सवारी ही मिल जाए?’

चच्चा पहले तो गच्चा खा गए कि बोला किसने लेकिन जैसे ही उनकी याददाश्त वापस लौटी तो खखार कर बोले, ‘तुम हो बच्चा! मैं समझा कि कोई और बोल रहा है?’

‘अरे चच्चा! ये गाड़ी लेकर कहाँ चले थे? चाची भी तो आजकल अपने मायके गई हुई हैं।’

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

ठंडा गोश्त - सआदत हसन मंटो

ईशर सिंह जूंही होटल के कमरे में दाख़िल हुआ। कुलवंत कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज़ तेज़ आँखों से उसकी तरफ़ घूर के देखा और दरवाज़े की चटख़्नी बंद कर दी। रात के बारह बज चुके थे, शहर का मुज़ाफ़ात एक अजीब पुर-असरार ख़ामोशी में ग़र्क़ था।

कुलवंत कौर पलंग पर आलती पालती मार कर बैठ गई। ईशर सिंह जो ग़ालिबन अपने परागंदा ख़यालात के उलझे हुए धागे खोल रहा, हाथ में कृपान लिये एक कोने में खड़ा था। चंद लम्हात इसी तरह ख़ामोशी में गुज़र गए। कुलवंत कौर को थोड़ी देर के बाद अपना आसन पसंद न आया, और वो दोनों टांगें पलंग से नीचे लटका कर हिलाने लगी। ईशर सिंह फिर भी कुछ न बोला।

कुलवंत कौर भरे भरे हाथ पैरों वाली औरत थी। चौड़े चकले कूल्हे, थुलथुल करने वाले गोश्त से भरपूर कुछ बहुत ही ज़्यादा ऊपर को उठा हुआ सीना, तेज़ आँखें। बालाई होंट पर बालों का सुरमई गुबार, ठोढ़ी की साख़्त से पता चलता था कि बड़े धड़ल्ले की औरत है।

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

जिहाद - प्रेमचंद

बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आ कर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिष्र के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुन कर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिंदुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं; बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आँधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिष्ला भी उन्हीं भागनेवालों में था। दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियाँ बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिंता और भय से त्रास्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे जोर से न रोते थे।

गुरुवार, 19 मार्च 2020

पेशावर एक्सप्रेस - कृष्ण चंदर

जब मैं पेशावर से चली तो मैंने छका छक इत्मिनान का सांस लिया। मेरे डिब्बों में ज़्यादा-तर हिंदू लोग बैठे हुए थे। ये लोग पेशावर से हुई मरदान से, कोहाट से, चारसदा से, ख़ैबर से, लंडी कोतल से, बन्नूँ नौशहरा से, मांसहरा से आए थे और पाकिस्तान में जानो माल को महफ़ूज़ न पाकर हिन्दोस्तान का रुख कर रहे थे, स्टेशन पर ज़बरदस्त पहरा था और फ़ौज वाले बड़ी चौकसी से काम कर रहे थे। इन लोगों को जो पाकिस्तान में पनाह गजीं और हिन्दोस्तान में शरणार्थी कहलाते थे उस वक़्त तक चैन का सांस न आया जब तक मैंने पंजाब की रूमानख़ेज़ सरज़मीन की तरफ़ क़दम न बढ़ाए, ये लोग शक्ल-ओ-सूरत से बिल्कुल पठान मालूम होते थे, गोरे चिट्टे मज़बूत हाथ पांव, सिर पर कुलाह और लुंगी, और जिस्म पर क़मीज़ और शलवार, ये लोग पश्तो में बात करते थे और कभी कभी निहायत करख़्त क़िस्म की पंजाबी में बात करते थे। उनकी हिफ़ाज़त के लिए हर डिब्बे में दो सिपाही बंदूक़ें लेकर खड़े थे। वजीह बल्लोची सिपाही अपनी पगड़ियों के अक़ब मोर के छत्तर की तरह ख़ूबसूरत तुर्रे लगाए हुए हाथ में जदीद राइफ़लें लिए हुए उन पठानों और उनके बीवी बच्चों की तरफ़ मुस्कुरा मुस्कुरा कर देख रहे थे जो एक तारीख़ी ख़ौफ़ और शर के ज़ेर-ए-असर उस सरज़मीन से भागे जा रहे थे जहां वो हज़ारों साल से रहते चले आए थे जिसकी संगलाख़ सरज़मीन से उन्होंने तवानाई हासिल की थी। जिसके बर्फ़ाब चश्मों से उन्होंने पानी पिया था। आज ये वतन यकलख़्त बेगाना हो गया था और उसने अपने मेहरबान सीने के किवाड़ उन परबंद कर दिए थे और वो एक नए देस के तपते हुए मैदानों का तसव्वुर दिल में लिए बादिल-ए-नाख़्वासता वहां से रुख़्सत हो रहे थे। इस अमर की मसर्रत ज़रूर थी कि उनकी जानें बच गई थीं। उनका बहुत सा माल-ओ-मता और उनकी बहुओं, बेटीयों, माओं और बीवीयों की आबरू महफ़ूज़ थी लेकिन उनका दिल रो रहा था और आँखें सरहद के पथरीले सीने पर यों गड़ी हुई थीं गोया उसे चीर कर अंदर घुस जाना चाहती हैं और उसके शफ़क़त भरे मामता के फ़व्वारे से पूछना चाहती हैं, बोल माँ आज किस जुर्म की पादाश में तू ने अपने बेटों को घर से निकाल दिया है। अपनी बहुओं को इस ख़ूबसूरत आँगन से महरूम कर दिया है। जहां वो कल तक सुहाग की रानियां बनी बैठी थीं। अपनी अलबेली कुँवारियों को जो अंगूर की बेल की तरह तेरी छाती से लिपट रही थीं झिंझोड़ कर अलग कर दिया है। किस लिए आज ये देस बिदेस हो गया है। मैं चलती जा रही थी और डिब्बों में बैठी हुई मख़लूक़ अपने वतन की सतह-ए-मुर्तफ़े उसके बुलंद-ओ-बाला चटानों, उसके मर्ग़-ज़ारों, उसकी शादाब वादियों, कुंजों और बाग़ों की तरफ़ यूं देख रही थी, जैसे हर जाने-पहचाने मंज़र को अपने सीने में छिपा कर ले जाना चाहती हो जैसे निगाह हर लहज़ा रुक जाये, और मुझे ऐसा मालूम हुआ कि इस अज़ीम रंज-ओ-अलम के बारे मेरे क़दम भारी हुए जा रहे हैं और रेल की पटरी मुझे जवाब दिए जा रही है। हुस्न अबदाल तक लोग यूँही मह्ज़ुं अफ़्सुर्दा यासो नकबत की तस्वीर बने रहे। हुस्न अबदाल के स्टेशन पर बहुत से सिख आए हुए थे। पंजा साहिब से लंबी लंबी किरपानें लिए चेहरों पर हवाईयां उड़ी हुई बाल बच्चे सहमे सहमे से, ऐसा मालूम होता था कि अपनी ही तलवार के घाव से ये लोग ख़ुद मर जाऐंगे। डिब्बों में बैठ कर उन लोगों ने इत्मिनान का सांस लिया और फिर दूसरे सरहद के हिंदू और सिख पठानों से गुफ़्तगु शुरू हो गई। किसी का घर-बार जल गया था कोई सिर्फ़ एक क़मीज़ और शलवार में भागा था, किसी के पांव में जूती न थी और कोई इतना होशयार था कि अपने घर की टूटी चारपाई तक उठा लाया था। जिन लोगों का वाक़ई बहुत नुक़्सान हुआ था वो लोग गुम-सुम बैठे हुए थे। ख़ामोश , चुप-चाप और जिसके पास कभी कुछ न हुआ था वो अपनी लाखों की जायदाद खोने का ग़म कर रहा था और दूसरों को अपनी फ़र्ज़ी इमारत के क़िस्से सुना सुना कर मरऊब कर रहा था और मुसलमानों को गालियां दे रहा था।

मंगलवार, 17 मार्च 2020

हाथी की फाँसी - गणेशशंकर विद्यार्थी

हाथी की फाँसी - गणेशशंकर विद्यार्थी
कुछ दिन से नवाब साहब के मुसाहिबों को कुछ हाथ मारने का नया अवसर नही मिला था। नवाब साहब थे पुराने ढंग के रईस। राज्‍य तो बाप-दादे खो चुके थे, अच्‍छा वसीका मिलता था। उनकी ‘इशरत मंजिल’ कोठी अब भी किसी साधारण राजमहल से कम न थी। नदी-किनारे वह विशाल अट्टालिका चाँदनी रात में ऐसी शोभा देती थी, मानो ताजमहल का एक टुकड़ा उस स्‍थल पर लाकर खड़ा कर दिया गया हो। बाहर से उसकी शोभा जैसी थी, भीतर से भी वह वैसी ही थी। नवाब साहब को आराइश का बहुत खयाल रहता था। उस पर बहुत रुपया खर्च करते थे और या फिर खर्च करते चारों ओर मुसाहिबों की बातों पर। उम्र ढल चुकी थी, जवानी के शौक न थे, किंतु इन शौकों पर जो खर्च होता, उसे कहीं अधिक यारों की बेसिर-पैर की बातों पर आए दिन हो जाया करता था। नित्‍य नए किस्‍से उनके सामने खड़े रहते थे। पिछला किस्‍सा यहाँ कह देना बेज़ा न होगा। यारों ने कुछ सलाह की और दूसरे दिन सवेरे कोर्निश और आदाब के और मिज़ाजपुर्सी के बाद लगे वे नवाब साहब की तारीफ में ज़मीन और आसमान के कुलाबे एक करने। यासीन मियाँ ने एक बात की, तो सैयद नज़मुद्दीन ने उस पर हाशिया चढ़ाया। हाफिज़जी ने उस पर और भी रंग तेज़ किया। अंत में मुन्‍ने मिर्जा ने नवाब साहब की दीनपरस्‍ती पर सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘खुदावंद, कल रात को मैंने जो सपना देखा, उससे तो यही जी चाहता है कि हुजूर के कदमों पर निसार हो जाऊँ और जिंदगी-भर इन पाक-कदमों को छोड़कर कहीं जाने का नाम न लूँ।’’

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

सिकंदर हार गया - अमृतलाल नागर

अमृतलाल नागरअपने जमाने से जीवनलाल का अनोखा संबंध था। जमाना उनका दोस्‍त और दुश्‍मन एक साथ था। उनका बड़े से बड़ा निंदक एक जगह पर उनकी प्रशंसा करने के लिए बाध्‍य था और दूसरी ओर उन पर अपनी जान निसार करनेवाला उनका बड़े से बड़ा प्रशंसक किसी ने किसी बात के लिए उनकी निंदा करने से बाज नहीं आता था, भले ही ऐसा करने में उसे दुख ही क्‍यों न हो। परिचित हो या अपरिचित, चाहे जीवनलाल का शत्रु ही क्‍यों न हो, अगर मुसीबत में है तो वह बेकहे-बुलाए आधी रात को भी तन-मन-धन से उसकी सहायता करने के लिए तैयार हो जाते थे। उस समय वे अपने नफे-नुकसान की तनि‍क भी परवाह न करते थे। लेकिन व्‍यवहार में बड़ी ओछी तबीयत के थे, अपने टके के लाभ के लिए किसी की हजारों की हानि करा देने में उन्‍हें तनिक भी हानि न होती थी। वह स्‍त्री के संबंध में भी बड़े मनमाने थे। इज्जत-आबरूदार लोग उनसे अपने घर की स्त्रियों का परिचय कराने में हिचकते थे और ऐसा करने पर भी वे प्रायः जीवनलाल से जीत नहीं पाते थे। शहर के कई प्रतिष्ठित धनीमानियों की घेरलू अथवा व्‍यावसायिक अथवा दोनों तरह की आबरूओं को उन्‍होंने अपने खूबसूरत शिकंजे में जकड़ रखा था, वह भी इस तरह कि 'हम मासूम हैं। तुम्‍हारे गुनाह में फँसाए गए हैं, खुद गुनहगार नहीं।'

बुधवार, 1 जनवरी 2020

हार की जीत - सुदर्शन

सर्वश्रेष्ठ कालजयी हिन्दी कहानी Best Hindi Storyमाँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद् - भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे "सुल्तान" कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रुपया, माल, असबाब, जमीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे - से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। "मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा," उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, "ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।" जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ - दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।

खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते - होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, "खडगसिंह, क्या हाल है?"

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

उसने कहा था - चंद्रधर शर्मा गुलेरी

बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

घनचक्कर - विवेकी राय

घनचक्कर - विवेकी राय
कचहरी में बैठकर वह लगभग रो दिया था। ऐसा मामूली कार्य भी वह नहीं कर सकता? छोटे-छोटे आदमियों से असफल सिफारिश की खिन्‍नता लिए वह शाम को स्‍टेशन की ओर टहलता गया।

तभी आते-जाते लोगों के बीच दिखायी पड़ा तहसील-स्‍तर का नया ग्राम-नेता - दुबला, लंबा, मूँछें सफाचट, गेहुँआ रंग। ढीला-ढाला लंबा कुरता सफेद खादी का, कुरते की बाँहें काफी बड़ी, अर्थात् कलाई पर से लगभग एक बित्ता मुड़ी हुई, मुख पर टँगी धूर्त अहमन्‍यता, नकली तेजस्विता और ओढ़ी भद्रता। उसका झोला पीछे आता सस्‍ते गल्‍ले का एक ग्रामीण दुकानदार ढो रहा था। ग्राम-नेता की उँगलियों में बिना जलाई सिगरेट थी, वह वास्‍तव में दियासलाई की ताक में था और कुछ लंबा होने के कारण दूर-दूर की झाँकी ले रहा था। वह स्‍टेशन की ओर इस प्रकार बढ़ रहा था मानो किसी उद्घाटन में फीता काटना है। वी.आई.पी. मार्का चाल क्‍या सीखनी पड़ती है? - नहीं, स्‍वयं आ जाती है।

बुधवार, 19 जून 2019

धुआँ - गुलजार

बात सुलगी तो बहुत धीरे से थी, लेकिन देखते ही देखते पूरे कस्बे में 'धुआँ' भर गया। चौधरी की मौत सुबह चार बजे हुई थी। सात बजे तक चौधराइन ने रो-धो कर होश सम्भाले और सबसे पहले मुल्ला खैरूद्दीन को बुलाया और नौकर को सख़्त ताकीद की कि कोई ज़िक्र न करे। नौकर जब मुल्ला को आँगन में छोड़ कर चला गया तो चौधराइन मुल्ला को ऊपर ख़्वाबगाह में ले गई, जहाँ चौधरी की लाश बिस्तर से उतार कर ज़मीन पर बिछा दी गई थी। दो सफेद चादरों के बीच लेटा एक ज़रदी माइल सफ़ेद चेहरा, सफेद भौंवें, दाढ़ी और लम्बे सफेद बाल। चौधरी का चेहरा बड़ा नूरानी लग रहा था।

मुल्ला ने देखते ही 'एन्नल्लाहे व इना अलेहे राजेउन' पढ़ा, कुछ रसमी से जुमले कहे। अभी ठीक से बैठा भी ना था कि चौधराइन अलमारी से वसीयतनामा निकाल लाई, मुल्ला को दिखाया और पढ़ाया भी। चौधरी की आख़िरी खुवाहिश थी कि उन्हें दफ़न के बजाय चिता पर रख के जलाया जाए और उनकी राख को गाँव की नदी में बहा दिया जाए, जो उनकी ज़मीन सींचती है।

रविवार, 16 अगस्त 2015

पापा और पापा का स्कूटर - नवीन कुमार 'नीरज'

“ज़िंदगी दो पहिए की स्कूटर की तरह है, जब ठीक है तो फर्राटे भरती है, जब खराब हो गई तो एक दम से रूक जाती है।”
मुझे मालूम है, मैं फिजूल की बात कर रहा हूँ। यह ठीक है कि ज़िंदगी और स्कूटर के बीच कोई कनेक्शन नहीं है। लेकिन कभी-न-कभी कोई कनेक्शन तो होता ही है। ऐसा ही एक कनेक्शन मेरे पापा और स्कूटर के बीच है। मुझे इसकी खबर नहीं थी। यह तो मुझे बाद में पता चला। … बेहतर है कि आपको शुरू से सब कुछ सुनाऊँ।
पहले हम सरकारी मकान में रहते थे। पापा जब रिटायर हुए, तब हम सरकारी मकान से अपने घर में आ गए। पापा ने जमीन पहले ही खरीद ली थी, लेकिन घर नहीं बनाया था।
जब हमारे पास कार नहीं थी, पापा मम्मी को स्कूटर पर बिठा कर मार्केट जाते थे। जब मैंने स्कूटर चलाना सीख लिया तब मैं मम्मी को स्कूटर पर बिठाता था। मैं अपनी नई दुल्हन को बाईक पर बिठाकर घुमाने ले जाता था।
लेकिन कार की ज़रूरत तब हो गई, जब हम अपने खुद के घर में रहने लगे। जबकि अब पापा को ऑफिस नहीं जाना था। मम्मी को अब बाज़ार शायद ही जाना पड़ता था। मेरी दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी। मुझे रोज़ कार चलाना नहीं था, क्योंकि महीने में पन्द्रह दिन, मैं अपने काम की वजह से दिल्ली से बाहर ही रहता था। लेकिन कार तो दरवाज़े पर होनी ही चाहिए, क्योंकि हर एक दरवाज़े पर कार थी। किसी दरवाज़े पर एक, किसी पर दो, किसी-किसी दरवाज़े पर तो तीन भी थी।

हमने कहा कार तो हमें भी चाहिए और आश्चर्य कि किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। न मम्मी ने, न पापा ने, जबकि दोनों फिजूलखर्ची बिल्कुल पसंद नहीं करते। मामला इतना आसानी से सुलझ जाएगा, इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। मैंने सोचा था, वाद होगा, विवाद होगा, मुझे रूठना होगा, उन्हें मनाना होगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ! उन्हें भी मेरी तरह कार की ज़रूरत महसूस हो रही थी। तो हमने थोड़ी-सी सलाह-मसविरा के बाद एक नई कार ले ली। सब खुश थे। जैसे हमारे घर में एक दुल्हन आ गई थी। घर में जब नए लोग आते हैं तो कुछ दिनों तक उस घर का माहौल बड़ा खुशनुमा होता है। लोग सोच-सोच कर खुश होते रहते हैं, भले ही बाद में दुखी हो जाए।

सौभाग्य से मैं कार चलाना जानता था। वह इकलौता दिन था जब हम पूरा परिवार उस कार में बैठे थे। जब हम कार की पूजा के लिए कालकाजी मंदिर गए थे। बड़ा खुशनुमा माहौल था। सब खुश थे। सबसे ज्यादा खुश मेरी तीन साल की बेटी थी।

मैंने प्लान बना लिया था कि हम साथ मिलकर कार से ही पूरा परिवार वैष्णोदेवी जाएंगे, वृंदावन जाएंगे, पता नहीं, मैं और कहाँ-कहाँ जाने के बारे में सोच रहा था। पर हकीक़त यही है कि उसके बाद हम सभी साथ में और कहीं नहीं गए।

पर अब मुझे मुद्दे पर आ जाना चाहिए। … जो मुझे कहना है उसकी शुरूआत अब मैं करता हूँ।

मेरे पास बाईक थी और पापा के पास स्कूटर। मेरे पास नई बाईक थी और पापा के पास पुराना स्कूटर। अब कार आ गई थी। उस स्कूटर का उपयोग बहुत कम हो गया था। इसलिए मैंने तय कर लिया कि स्कूटर अब दरवाज़े से हट जानी चाहिए। इस फैसले के पीछे दो कारण थे। एक तो बेमतलब वह जगह घेर रहा था। दूसरा यह कि वह घर का प्रभाव खराब कर रहा था, माफ कीजिएगा मैं उचित शब्द प्रयोग नहीं कर रहा हूँ। मेरे मन में कुछ और शब्द आ रहा है, लेकिन मैं शिष्टता के नाते उसका प्रयोग नहीं करूँगा। मैं क्या कहना चाहता हूँ, आप भली-भाँति समझ रहे होंगे।

कार के आ जाने से स्कूटर मुझे कुछ ज्यादा ही खटकने लगा था। मैंने तय कर लिया था कि अब वह दरवाज़े पर नहीं दिखना चाहिए। मैंने अपना विचार पापा को बता दिया। उनको कोई आपत्ति होगी, यह मैंने नहीं सोचा था। उन्होंने उस वक्त मुझसे कुछ कहा भी नहीं। बस मुझे याद आ रहा है कि उनका चेहरा कुछ मुर्झा गया था, जिस ओर मैंने ध्यान नहीं दिया था। बाद में उन्होंने मुझसे कहा था, अगर वह दरवाज़े पर है ही तो क्या दिक्कत है। दिक्कत क्या थी, मैंने उनको समझा दिया। आपत्ति के बावजूद वह मुझसे प्रतिवाद नहीं कर सके। जवान बेटे के सामने बूढ़ा बाप कमज़ोर हो ही जाता है। उनके मन की कई बातें उनके मन में ही रह जाती है, बेटा समझ भी नहीं पाता है।

मैंने एक कबाड़ी वाले को बुलाकर वह स्कूटर बेच दी। दुर्भाग्य यही था कि उस समय पापा दिल्ली में नहीं थे। वह गाँव चले गए थे। जब वह गाँव से लौटे तब उन्होंने पाया कि उनका स्कूटर वहाँ मौजूद नहीं है। संयोग से उस वक्त मैं निकलने ही वाला था और मैं एक सप्ताह के लिए दिल्ली से बाहर जा रहा था। उन्हें मालूम चल गया कि मैंने स्कूटर बेच दी है। जब तक वह मुझ पर चिल्लाते, मैं दरवाज़े से बाहर निकल चुका था, क्योंकि मेरे ट्रेन का वक्त हो गया था। उनको सिर्फ इतना वक्त मिला कि वह मुझसे पूछ सके कि मैंने स्कूटर किसे बेचा है? “कबाड़ी वाले को।”, मैंने इतना ही कहा। मैं चला गया।

जब एक सप्ताह बाद मैं वापिस आया, स्कूटर अपनी जगह खड़ा था! मुझे क्या महसूस हुआ होगा, इसे आप समझ सकते हैं। मेरी तो इच्छा हो रही थी कि मैं उस स्कूटर में आग लगा दूँ! या फिर उसे इस दुनिया से ही ग़ायब कर दूँ! मैंने पूरे घर को अपने सिर पर उठा लिया! पापा चोर थे और मैं सिपाही! …… बस मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि मैं क्या महसूस कर रहा था और पापा क्या महसूस कर रहे थे। सचमुच उनको लग रहा था कि वह एक मुज़रिम हैं। जैसे बचपन में हम कभी पापा के जेब से पैसे निकालकर सिनेमा देख आते हैं और पकड़े जाने पर जिस तरह अपने पापा के सामने खड़े होते हैं, कुछ वैसे ही पापा मेरे सामने खड़े थे। उनके पास कोई जवाब नहीं था।
उन्होंने क्यों स्कूटर घर लाया? --- यह मेरा सवाल था। पर उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था। मेरा सवाल उचित था। उनको भी लगा होगा, मेरा सवाल उचित है, तभी तो उनके पास जवाब नहीं था।  
और इस झड़प ने हमारे बीच एक कड़वाहट पैदा कर दी। दूरी हमारे बीच पैदा हो गई। हम दोनों अपने तरीके से इस दूरी को बरकरार रखने की कोशिश करने लगे। एक पतली-सी दीवार खिंचती चली गई। दीवार के उस पार वो दीवार के इस पार मैं। जबकि बात कुछ भी नहीं थी। उसके बाद कोई बात ही नहीं हुई। उसके बाद कुछ भी नहीं हुआ। मैंने यह मान लिया कि स्कूटर अब यहीं रहना है। अब मुझे उस स्कूटर से कोई आपत्ति भी नहीं थी। लेकिन मैंने उस दीवार के बारे में नहीं सोचा।
पापा जैसे जेल में बंद हो गए थे। अब वह गुमसुम रहते थे, अपने में सिमटे रहते थे। जैसे उनकी ज़िंदगी से इत्मीनान को मैंने छिन लिया था।  
एक दिन मुझे पता चला कि पापा गाँव जाना चाहते हैं, साथ में मम्मी भी जाना चाहती हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, अभी-अभी तो पापा गाँव से आए हैं, फिर जाने की ज़रूरत क्या है? और मम्मी को जाने की क्या ज़रूरत है? वह तो बहुत साल से गई भी नहीं। गाँव में हमारे हिस्से सिर्फ जमीन है, घर भी नहीं है। पापा दो-चार दिन अपने भाईयों के पास, अपने नाते-रिश्तेदारों के पास रुक लेते हैं, मम्मी जाएगी तो कहाँ रुकेगी? … तब मेरी पत्नी ने मुझे बताया कि पापा गाँव में बसने के बारे में सोच रहे हैं।“ उनका दिमाग खराब हो गया है!” मैं ज़ोर से चिल्लाया। मैं इस तरह चिल्लाया कि पत्नी सहम गई। मेरे मन में यही विचार उठा कि बूढ़ऊ का दिमाग खराब हो गया है! मेरा ऐसा सोचना स्वाभाविक भी था। पापा ने कभी इस बात का जिक्र ही नहीं किया कि वह गाँव में बसना चाहते हैं। बाप-दादा की ज़मीन है, जिसे वह बेचना नहीं चाहते, इसलिए हर साल जाकर थोड़ा-बहुत कुछ ले आते हैं।

मुझे पूरी रात नींद नहीं आई। मैंने सुबह-ही-सुबह माँ से पूछा। माँ से पता चला, बात सही है। पापा ने तय कर लिया है और वह घर बनाने जाने वाले हैं। कुछ दिनों के बाद जब घर बन जाएगा, तब मम्मी जाएगी। सब कुछ तय हो गया और मुझे कुछ भी पता नहीं! मुझे गुस्सा भी आ रहा था और दुख भी हो रहा था। उन्होंने मुझे बताने की ज़रूरत भी नहीं समझी। जबकि आज तक कोई काम उन्होंने मुझसे पूछे बगैर नहीं किया था। घर का एक काँच भी बदलवाना होता था, तब वह मुझसे ज़रूर कहते थे। और इतना बड़ा फैसला उन्होंने मुझे बगैर बताए कर लिया था। मुझे बहुत अंदर तक तकलीफ़ हुई। बात तकलीफ़ की थी ही।

आजकल वह स्कूटर को भी नहीं छूते थे, जबकि पहले उसे हमेशा पोंछते-घिसते रहते थे। कहीं नहीं भी जाना हो तो स्टार्ट ज़रूर करते थे। मैंने देखा कि स्कूटर पर धूल जमी थी। उन्होंने शायद उसे बहुत दिनों से छुआ नहीं था। वह एक कोने में अकेले चुपचाप पड़े होते थे। मुझे तो अकसर वह नज़र ही नहीं आते थे। वह घर में होकर भी जैसे घर में नहीं होते थे। आखिर बात तो ज़रूर कुछ थी।

मैं उनके पास गया। वह बाहर बरामदे एक कुर्सी पर बैठे थे। मुझे देखकर वह थोड़े-से विचलित हुए।
“पापा आप गाँव जाने वाले हैं?” मैंने उनसे पूछा।
“हाँ, सोच रहा हूँ, गाँव ही चला जाऊँ। यहाँ मन नहीं लगता।” उन्होंने मुझसे कहा। वह थोड़े-से उखड़े हुए थे।
“पापा आपने मुझे बताया नहीं?” मैंने उनसे शिकायत की।
“मैं तुम्हें बताने ही वाला था। वैसे भी तुम घर पर हमेशा रहते नहीं हो, तो मैंने सोचा था, इस बारे में तुमसे बात करूँगा। वैसे भी गाँव जाना ज़रूरी है। हमारी जो भी थोड़ी-बहुत ज़मीन है, वह पूर्वजों की निशानी है, उसकी हिफाज़त करना भी ज़रूरी है। हम दूसरे के हाथों में उसे कब तक छोड़ेंगे।”

उन्होंने कोई नयी बात नहीं कही थी, लेकिन उनका कहने का अंदाज़ नया ज़रूर था। पहली बार वह मुझसे इतनी गंभीरता से बात कर रहे थे। हमारा बाप-बेटे का संबंध पहले वाला नहीं था।
“पापा आपने अचानक से ऐसा प्लान क्यों बना लिया?” मैं कारण जानना चाहता था।
“आकाश बेटा समझा करो! गाँव जाना ज़रूरी है। मैंने बहुत पहले ही सोचा था, जब रिटायर हो जाऊँगा, तब गाँव चला जाऊँगा। यह मैंने बहुत पहले फैसला किया था, जब तुम आए भी नहीं थे।”
“लेकिन आपने इसका जिक्र हमसे कभी किया ही नहीं। कभी तो आप हमसे कहते कि मैं फिर से गाँव में बस जाऊँगा। आप वहाँ जाकर करेंगे भी क्या? आपसे खेती तो होगी नहीं। सबसे बड़ी बात आप रहेंगे कहाँ, आप खाएँगे क्या, आपकी देखभाल कौन करेगा? आपने यह सोचा कैसे?” मेरे पास उनसे पूछने के लिए बहुत से बुनियादी सवाल थे, जिनको वह टाल नहीं सकते थे। लेकिन उत्तर देने का उनका अपना एक तरीका था।
उन्होंने कहा, “सब हो जाएगा। आदमी जब रहने लगता है तो सब बंदोबस्त हो जाता है। धीरे-धीरे सब हो जाएगा। टूटे हुए गोदाम को मरम्मत कराकर रहने लायक बना लूँगा, उसमें खर्चा भी ज्यादा नहीं आएगा। बाकी सब कुछ तो वहाँ है ही। वहाँ कौन नहीं है, भाई-भतीजा सब तो वहीं है।”

उनकी बातें व्यवाहारिक सूझ-बूझ से परे थी। मेरे लिए तो यह बहुत आश्चर्यजनक था। जो आदमी ज़िंदगी भर व्यवाहारिकता की वकालत करता रहा हो, वह बुढ़ापे में आकर इस तरह की बात करेगा, यह मेरे समझ से परे था। कुछ भी हो दुनियावी ज्ञान मैंने उनसे ही सीखा था।
“बात क्या है पापा! आप मुझे साफ-साफ समझाइए?” मैंने हर बात को परे हटाकर सीधे शब्दों में यह सवाल पूछ लिया।
वह मेरा मुँह देखने लगे। उन्हें कोई जवाब देते नहीं बन पा रहा था।
“कोई बात नहीं है, कोई बात ही नहीं है।” उन्होंने ज़ोर देकर कहा और उठ खड़े हुए। यही उनका अंतिम जवाब था।

आगे हमारी कोई बात नहीं हुई।

मायूसी मेरे अंदर घर कर गई। मुझे लगा कि मैं कितना अकेला हो गया हूँ। पहले मेरा भरा-पूरा परिवार था, मेरे मम्मी-पापा थे, मेरी पत्नी और बच्चे थे। अब मैं अधूरा हो गया था। कुछ तो था, जो मुझे परेशान कर रहा था। एक अनजाना डर भी मेरे ऊपर हावी हो गया। अब तक मैं एक लापरवाह किस्म का ही इंसान था। अब तक मैंने कुछ भी गंभीरता से नहीं सोचा था। लेकिन अब लापरवाही से मुझे डर लगने लगा था। कहीं किसी काम में व्यस्त होता, अचानक से मुझे पापा की याद आ जाती और उस पल में एक अजीब प्रकार का भय मुझमें समा जाता था, जैसे कि अभी-अभी मैं किसी कार के नीचे दबने से बचा हूँ। अचानक से ज़िंदगी की एक दूसरी राह पर मैं अपने को खड़ा पाता था। मैं अनजाने ही पापा के बारे में सोचने लगता था।

मेरे पापा! ... पहले मैंने उनके बारे में सोचा ही नहीं था। कितने कमाल के इंसान हैं वो! उनके बगैर तो मेरी ज़िंदगी अधूरी ही रहती! कल अगर वे मेरी ज़िंदगी में नहीं होंगे तो मेरा क्या होगा? मैं कैसे क्या करूँगा? मैंने अकेले आज तक किया ही क्या है? … फिर मुझे सब कुछ याद आने लगा। कैसे मैंने चलना सीखा। कैसे मैं उनकी ऊँगली पकड़ कर बड़ा हुआ। वह मेरे लिए क्या हैं! … आजतक मैंने सोचा ही नहीं था! अगर आज मेरे अंदर कोई बहुत प्यारा-सा इंसान बसता है तो वह मेरे पापा की वजह से। उन्होंने मेरे अंदर एक प्यारे इंसान को विकसित किया।

उनके उसूलों को अगर मैं अपनी ज़िंदगी से निकाल दूँ तो मेरे पास बचता क्या है? उन्होंने मुझे सच बोलना सिखाया। ईमानदारी का पाठ मैंने अपने पापा से सीखा। अपना काम खुद करना, अपने पास जितना हो उसमें खुश रहना। … बहुत छोटी-छोटी पर बहुत महत्वपूर्ण चीज़ मैंने अपने पापा से सीखी। उनका जीवन मेरे सामने एक उदाहरण था। और ऐसे ही सोचते-सोचते मुझे कुछ सूत्र हाथ लग गया। मुझे कुछ ऐसा हाथ लगा जिससे मैं उलझी गुत्थी सुलझा सकता था। पापा और उनका स्कूटर। मुझे लगा कि मैंने कुछ भारी ग़लती की है।

मुझे वह दिन याद आया जब पापा ने स्कूटर खरीदा था। तब मैं उतना भी छोटा नहीं था कि मुझे उसकी याद न हो। हमारे घर जश्न का माहौल था। कई दिनों तक हमारे यहाँ एक छोटा-सा मेला लगा रहा था। शर्मा जी ने स्कूटर खरीदा है। और उसे देखने के लिए मुहल्ले भर से लोग आते थे। आज़ तो लोग हेलीकॉप्टर भी अपने छत पर उतार ले तो लोग पूछने न जाए। लेकिन उस समय मुहल्ले भर से लोग पापा का स्कूटर देखने आए थे।

स्कूटर में पापा का आधा जीवन बसता था। लोग ताश खेलते हैं, बैठकर गप्पे हाँकते हैं, लेकिन पापा तो अपने स्कूटर में ही लगे रहते थे। उसे धोते रहते थे, उसे पोंछते रहते थे। शाम को ऑफिस से आने के बाद, थोड़ा-सा सुस्ता कर पापा स्कूटर की सेवा में लग जाते थे। हल्की-सी खरोंच भी कहीं लगी हो तो उन्हें पता चल जाता था। जब वह मेकेनिक के पास अपना स्कूटर ले जाते थे तो वह स्कूटर के साथ ही वापिस आते थे, चाहे सुबह से शाम क्यों न हो जाए। वह भूखे पेट दिन भर मेकेनिक के गैराज में डटे रहते थे। घर आने पर मम्मी उन्हें लंबी डांट पिलाती थी और वह छोटे बच्चे की तरह पी भी लेते थे! जैसे कोई अपने बहुत चाहने वाला का बहुत खास खयाल रखता है और उसे अकेला नहीं छोड़ता है, खासकर विपत्ति के समय में, वैसे ही पापा अपने स्कूटर का खयाल रखते थे।

कुछ ही दिनों में उन्हें स्कूटर ठीक करना आ गया। उन्हें मेकेनिक के यहाँ जाने की ज़रूरत नहीं रह गई। इससे मुहल्ले के कुछ लोगों को भी सहुलियत मिलने लगी। क्योंकि अब बिना पैसे खर्च किए ही उनका स्कूटर बन जाया करता था। ज्यादा-से-ज्यादा खुश होकर लोग पापा को चाय पिला देते थे। मुझे याद आता है कि पापा ने कभी किसी का स्कूटर ठीके करने के लिए ना नहीं किया था। वह दूसरों के काम के लिए हमेशा हाजिर होते थे। पापा के पास स्कूटर ठीक करने का सारा तामझाम था। यहाँ तक कि टायर में हवा भरने के लिए उनके पास पंप भी था। वह दूसरे के स्कूटरों में भी हवा भर दिया करते थे। टायर भी तो रोज़ पंचर नहीं होता था। मेकेनिक ज्यादा दूर नहीं था। लेकिन मेरे पापा तो पापा थे।

जब मैं कभी स्कूटर ले जाता था तो यह कहना नहीं भूलते थे कि ठीक से चलाना। अगर हल्की-सी भी खरोंच लग जाए तो स्कूटर को कम उनको ज्यादा तकलीफ़ होती थी। यह भी सही है कि उनका स्कूटर हमेशा जवान रहा। उसे कब का बूढ़ा हो जाना चाहिए था, लेकिन उनका स्कूटर जवान ही रहा। पापा का स्कूटर पापा को बहुत प्यारा था। और उनका यह प्यार तमाम उम्र रहा। यहाँ तक कि मम्मी को इससे जलन होती थी और मौका आने पर वह ताना मारने से भी नहीं चूकती थी। लेकिन पापा कुछ भी नहीं कहते थे, सब कुछ चुपचाप सुन लेते थे। इस तरह मम्मी को पापा से कुछ कहने का जरिया मिल गया था। कोई और जरिया था ही नहीं, जिससे मम्मी पापा को कुछ कह सकती। बेचारे बहुत भोले इंसान थे, बहुत ही शरीफ, सीधे-सादे। जो समय का पाबंद रखता हो और अपने काम से मतलब रखता हो। शिकायत का कोई मौका मम्मी को देते ही नहीं थे। मम्मी अकसर कहती थी, तुम्हारे पापा बहुत भोले हैं और जब वह ऐसा कहती थी तो उनकी आँखों में गर्व होता था और पापा के लिए ढेर सारा प्यार।

अब मैं पापा को समझने की कोशिश कर रहा था। मैं उनके मन के अंदर घुसकर तो नहीं जान सकता था। हाँ, मैंने तीस साल उनके साथ गुज़ारे थे। उनका बहुत कुछ तो मुझमें होना ही चाहिए। उनका खून तो मेरे अंदर है ही। लेकिन उन्हें जानने के लिए कोई तरकीब तो चाहिए ही। वह जो करने जा रहे थे, वह मेरे समझ से परे था और मैं वही समझने की कोशिश कर रहा था।

‘जैसा उन्होंने कहा था कि वह रिटायर होने के बाद गाँव बसना चाहते थे और उन्होंने यह फैसला मेरे पैदा होने से पहले किया था। उस समय उनके मन में कुछ रहा होगा, तभी तो उन्होंने ऐसा सोचा था। बाद में उनकी सोच बदल गई। क्योंकि हम पैदा हो गए। हमसे लगाव इतना बढ़ गया कि अपनी पुरानी सोच की ओर ध्यान देना छोड़ दिया।
‘फिर से इतने दिनों बाद यह उनके मन में हावी हो गया। वह अकेले बैठे अकसर उसके बारे में सोचते रहते हैं। वह बहुत व्यावहारिक आदमी है। वह बहुत छोटी-छोटी चीज़ों का खयाल रखते हैं। जब मैं सफर पर जाता हूँ तब मुझे याद दिलाते रहते हैं कि मैंने तौलिया रखा या नहीं, मैंने टिफीन रखा कि नहीं, मैंने पानी की बोतल लिया कि नहीं। रखकर खाने के लिए अखबार रखा कि नहीं। … बहुत छोटी-छोटी चीज़ों का ध्यान रखते हैं। उसी आदमी ने जब बुढ़ापे में वनवास में जिन्दगी गुजारने का फैसला किया हो तो व्यावहारिक पक्ष को तो नज़रअंदाज नहीं कर सकता।
‘जो आदमी चालीस साल तक गाँव से बाहर रहा हो, फिर वह गाँव में बसने के बारे में क्यों सोचेगा, वह भी अपने बाल-बच्चे को छोड़कर? वह खुद कहते थे कि वहाँ की स्थिति अच्छी नहीं है, उन्हें देखकर लोगों को खुशी नहीं होती। वे चाहते हैं कि हम अपने हिस्से की ज़मीन बेच दें। लेकिन पापा की ज़िद है, चाहे जो हो, बाप-दादा की संपत्ति को नहीं बेचेंगे, बाद में चाहे जो हो जाए। संपत्ति बचाने का खयाल तो उनके मन नहीं रहा होगा, जब उन्होंने यह फैसला लिया होगा। अगर ऐसी बात होती तो, वह मुझसे ज़रूर कहते …………।’

इसे समझने में मुझे देर ज़रूर हुई, लेकिन इतना मैं समझ गया कि उन्हें दिल पर चोट लगी थी। और उसके लिए मैं ज़िम्मेदार था, इसे मैंने गहरे तक महसूस किया। एक तरह से यह मेरी आंतरिक यात्रा थी। मैं अपने-ही-अपने में हर चीज़ को समझने की कोशिश कर रहा था। जब पापा मुझसे दूर जाने की कोशिश कर रहे थे, मैं उनके पास आने की कोशिश कर रहा था। मैं इतना तो जान ही गया था कि मैं उन्हें बहुत प्यार करता हूँ।

अब मैं बहाने बनाकर उनके करीब जाने की कोशिश करता। जब दूरी बढ़ जाती है, तब अंदर कहीं नज़दीकी भी बढ़ जाती है। हम पहले से अधिक कोशिश करने लगते हैं और ऐसा करने से चीज़े असहज हो जाती है। हम दोनों ही कुछ अधिक ही कोशिश कर रहे थे, जिस कारण से हम अपनी बात कह नहीं पाते थे।

वे कुछ ही दिनों में कुछ ज्यादा ही बूढ़े हो गए थे। एक अलग तरह की उदासी उनकी आँखों में समाई रहती थी। पहले की तरह अब उनके अंदर कुछ भी नहीं था। पहले की तरह अब वह कुछ करते भी नहीं थे। अकेले चुपचाप बैठे रहते थे। जबकि पहले वह कुछ-न-कुछ करते रहते थे। बाहर की खिड़की साफ करते थे, बरामदे पर झाड़ू लगा देते थे। किसी पुरानी पड़ी मशीन को झाड़-पोंछकर उसमें तेल डाल देते थे। घर के पंखें-कूलर वह खुद ही बना लेते थे। पहले मेरा एक साल का बेटा उन्हीं के आगे-पीछे घूमता रहता था। लेकिन अब तो जैसे वह मोह त्याग चुके थे।

मैं हरदम सोचता रहता था कि उनसे कहूँ कि वह गाँव न जाए, लेकिन मैं अपने अंदर इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता था। मम्मी का तो बुरा हाल था। बेचारी न इधर की थी न उधर की। उनको पति भी प्यारा था और बेटा भी। मैं जब भी इस विषय पर मम्मी से बात करना चाहता, वह यह कहकर टाल जाती कि मुझे पापा से पूछना चाहिए। वनवास तो उनको भी पसंद नहीं रहा होगा, लेकिन वह यह कैसे कहती। क्योंकि अगर पापा को पता चल जाता कि मम्मी जाना नहीं चाहती तो चाहे ज़मीन-आसमान इधर-से-उधर हो जाता, वह मम्मी को अपने साथ कभी नहीं ले जाते। मम्मी यह अच्छी तरह जानती थी, इसलिए उन्होंने चुप्पी साध रखी थी।

हम सब लोग पता नहीं क्यों इस विषय पर बात करने से कतराते थे। मैं अपनी पत्नी से कुछ नहीं कह पाता था, न ही वह कुछ कह पाती थी। हम सभी इस विषय पर सोचते थे पर एक-दूसरे से कहे कैसे, यही हम समझ नहीं पाते थे। मैं यह भी देख रहा था कि मेरी पत्नी भी मेरी तरह महसूस कर रही थी और सचमुच वह नहीं चाहती थी कि मम्मी-पापा यहाँ से जाएं। पापा तो उसे बेहद पसंद थे, उसके नज़र में मम्मी भी बुरी नहीं थी, लेकिन पापा की बात ही कुछ और थी। पापा थे ही ऐसे!

पापा का जाना तय था। वह सारी तैयारी कर चुके थे। वह टिकट बनवा चुके थे। जैसे-जैसे उनके जाने का दिन नज़दीक आ रहा था, हम सब के मन की व्यथा गहराती जा रही थी। जब भी मैं पापा के पास जाता था, वह चौंक जाते थे। मैं जानता था वह कुछ सोचते रहते थे। वह उलझे रहते थे यह तो मैं समझ ही रहा था। मैं यह भी समझ रहा था कि यह उलझन उन्हें चिंता में धकेल रही थी। लेकिन वह किसी से कुछ भी कहने के लिए तैयार नहीं थे। आहट पाते ही वह हड़बड़ा कर सचेत हो जाते और सब कुछ अपने मन की ओट में छिपा लेते थे। उनसे कुछ भी कहना अब आसान नहीं रह गया था। उन्होंने अपने आगे एक दीवार खड़ी कर ली थी। वह जो कुछ भी सोच रहे थे, वह उन्हीं तक सीमित था।

आखिरकार वह दिन आ गया जिस दिन उन्हें जाना था। सब लोग बुझे हुए मन से उनके जाने की तैयारी कर रहे थे। मैं भी उस दिन घर पर ही था। पहली बार मैं पापा का सामान पैक कर रहा था। मैंने हर एक चीज़ का खास खयाल रखा था, जैसे वह मेरा रखते थे। बाज़ार से उनके लिए सब कुछ नया-नया ले आया था। तौलिया, ब्रश, कंघी, बनियान, धोती जिसे वह घर में पहनते थे। उनके नास्ते के लिए वह भुजिया जो उन्हें बेहद पसंद था, चाय पीते वक्त वह ज़रूर खाते थे। वगैरह, वगैरह।

ट्रेन शाम को थी। पता नहीं क्यों, मैं बहुत थक गया था। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। दिल के अंदर कहीं कोई बोझ-सा था। बहुत गहरे तक मुझे पीड़ा हो रही थी। कुछ भी सोचने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। बस एक ही उपाय था कि मैं सब कुछ सहूँ।

ट्रेन शाम को सात बजकर पैंतीस मिनट पर थी, लेकिन पापा तीन बजे से ही हल्ला मचाने लगे। वे हमेशा ऐसा ही करते हैं। घर से जल्दी निकल जाते हैं और दो घंटे तक प्लेटफॉर्म पर बैठकर ट्रेन के आने का इंतजार करते हैं। आखिर हमें चार बजे निकलना ही पड़ा। निकलते समय उन्होंने घर में सबको बड़े शांति से आशीर्वाद दिया। मैं कार ड्राइव कर रहा था, पापा मेरे बगल में बैठे थे। हम पूरे रास्ते चुप रहे। साढ़े पाँच बजे हम स्टेशन पर पहुँच चुके थे। जब हम प्लेटफॉर्म पर पहुँचे, ट्रेन लगी हुई थी।

हम अपनी जगह पर जाकर बैठ गए। अभी इक्के-दुक्के ही लोग आए थे। मैं उनके बगल में चुपचाप बैठ गया। उस समय मेरे मन में क्या चल रहा था, इसका मुझे अंदाज़ा नहीं है। आप यकीन नहीं मानेंगे, हम दोनों एक घंटे तक चुपचाप बैठे रहे। धीरे-धीरे लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी थी। पता नहीं इसी बीच मुझे क्या हुआ, मैंने पापा से कहा, “पापा आप मत जाइए!” मैं पूरे यकीन से कहता हूँ, मैंने इसके बारे में सोचा नहीं था। वह मेरा चेहरा देखने लगे, उनके अंदर कुछ हलचल हुई, ऐसा मुझे लगा। लेकिन दूसरे ही पल वह सोच में पड़ गए और उन्होंने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

कोई दस मिनट बाद मैंने फिर से यही बात दोहरायी। पापा कुछ देर सोचते रहे, मैं लगातार उनका चेहरा देख रहा था। वह कुछ बोलना चाह रहे थे, पर बोल नहीं पा रहे थे। मैंने कहा, “पापा क्या सोच रहे हैं मत जाइए!” मैं उनसे याचना कर रहा था। उन्होंने बहुत हिम्मत जुटा कर कहा, “अब तो देर हो गई है, तुम्हें पहले कहना चाहिए था!” बहुत उदास होकर उन्होंने ऐसा कहा था। जैसे उनके अंदर कोई उम्मीद थी, लेकिन वह टूट गई थी, कुछ इस तरीके से उनके कहने का अंदाज था।

कोई दस मिनट और गुज़र गये। ट्रेन में सब लोग आ चुके थे। सभी कुछ-न-कुछ बोल रहे थे। पर मेरा ध्यान ट्रेन के अंदर हो रही हलचल की ओर था ही नहीं। मैं जैसे उन हलचलों से बहुत दूर था। पापा का भी कुछ वही हाल था। कहीं कुछ बहुत तेज़ी से घटित हो रहा था। ट्रेन खुलने में पाँच मिनट बचे थे। पर मैं अपनी जगह बैठा था। पापा भी मुझसे नहीं कह रहे थे कि मैं उतर जाऊँ, जबकि वह पन्द्रह मिनट पहले मुझे ट्रेन से उतार देते थे।

आखिरकार ट्रेन की सीटी बजी। मैंने पापा से कहा, “पापा क्या सोच रहे हैं, चलिए! ट्रेन चल चुकी है!” सचमुच ट्रेन चल चुकी थी। वह उठ खड़े हुए और मुझसे बोले चलो। हमने सामान निकालना शुरू किया। हमारे पास तीन बड़े-बड़े बैग थे। एक बैग पापा के हाथ में था और दो मेरे हाथ में। पापा आगे-आगे चल रहे थे मैं पीछे-पीछे। बीच कंपार्टमेंट से जगह बनाते-बनाते हम गेट तक पहुँचे। ट्रेन तेज़ हो चुकी थी। हमने तीनों बैग फेंक दिये। मैं सोच रहा था कि पापा उतरेंगे कैसे। वैसे ही वे कहते हैं कि पहले तुम उतरो। बहस करने का समय बिल्कुल नहीं था। मैं उतर गया। ट्रेन प्लेटफॉर्म के अंतिम सिरे पर पहुंच चुकी थी। मैं होश संभाल कर खड़े होकर लंबी-लंबी साँस ले ही रहा था कि पापा मेरे पास चलकर आए। मैं उन्हें उतरते देख नहीं पाया था। “तुम्हें चोट तो नहीं लगी? तुम उतरने के बाद दो-चार कदम और चले होते तो तुम नहीं गिरते।” कहकर पापा मेरे पैंट पर लगे धुल को झाड़ने लगे।

उनका चश्मा टूट गया था, जो कि बैग में रखा हुआ था। वह बैग में पड़ी चीज़ों का मुआइना कर रहे थे, जबकि मैं कार ड्राइव कर रहा था। हम लगातार बतियाते जा रहे थे। वह मुझे समझा रहे थे, मुझे बैग कैसे फेंकना चाहिए था, उतरते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, कार चलाते समय पीछे मुड़कर नहीं देखूँ। फिर हम ट्रेन में बैठे लोगों के बारे में बात करने लगे। इसी तरह हम बात करते-करते घर पहुँच गए। यह याद रहा ही नहीं कि कुछ देर पहले पापा हम सबसे दूर जा रहे थे।

घर पहुँचते ही मैं शुरू हो गया। पुरानी बातें सब लोग भूल गए, जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं था। पापा मम्मी से बता रहे थे कि उतरने में मैंने क्या ग़लती की थी। मेरी पत्नी ने एकांत में मुझसे पूछा, मैंने उसे बता दिया पापा नहीं जाएंगे, सुनकर वह इतनी खुश हुई कि मैं बता नहीं सकता! सब कुछ पहले जैसा हो गया! सब लोग खुश थे!

एक दिन पापा मुझसे पूछ रहे थे कि मैंने स्कूटर कितने में बेचा था? मैंने उन्हें बताया, ढाई हजार में। उन्होंने उसे कितने में खरीदा था, उसकी कहानी मुझसे कहने लगे।
पहले तो उन्हें पता करने में पापड़ बेलना पड़ा कि मैंने किसे बेचा था। घर में किसी को पता नहीं था। वह मुझसे पूछ नहीं सकते थे। मैंने जाते हुए सिर्फ कबाड़ी कहा था। वे सभी कबाड़ी वालों के पास जा-जाकर पूछते रहे। तब एक कबाड़ी वाले ने स्वीकारा, लेकिन वह उस स्कूटर को किसी और के हाथ बेच चुका था। फिर उन्हें उस खरीददार के बारे में पता लगाना पड़ा, जिसमें उन्हें पूरे दो दिन लग गए, क्योंकि कबाड़ी वाला उसे जानता नहीं था। उसके साथ में एक आदमी था, उस आदमी के बारे में उस कबाड़ी वाले को पता था। जब वह उस आदमी के पास गए, वह एक दलाल निकला। उसे भी पता नहीं था उस आदमी के बारे में। लेकिन संयोग से जब वह आदमी उससे मिलने आया था, तब उसने किसी का नाम लिया था। पापा उस नाम वाले आदमी के पास गए, फिर वह याद करता रहा, शुक्र था कि उसे याद आ गया और वह आदमी पापा को मिल गया, जिसने स्कूटर खरीदा था।

उसने चार हजार में उसे खरीदा था। लेकिन वह स्कूटर बेचने के लिए तैयार नहीं था। पापा उसे मनाते रहे, उसके सामने गिरगिराते रहे, तब जाकर वह आदमी पिघला क्योंकि पापा हजार रूपया बढ़ाकर उसे दे रहे थे!

मैंने पापा से पूछा, “आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?” उन्होंने कहा, तब मैं नाराज़ हो जाता, इसलिए तब नहीं बताया। उन्होंने यह कहानी मुझे तब सुनाई थी, जब मैंने उनके स्कूटर पर बैठना शुरू कर दिया था।

…… मैं स्टेशन आया हूँ, पापा को लेने, वे आज गाँव से आ रहे हैं।

पता नहीं कैसे, पर पापा से मेरी दोस्ती हो गई है। उनके साथ कुछ समय गुज़ारना मुझे अच्छा लगता है। मैं उनके स्कूटर पर बैठने लगा हूँ, मैं उनका स्कूटर चलाने लगा हूँ। मैं पापा से कहता हूँ, “पापा मैं दो मिनट में आया।” और उनका स्कूटर लेकर मैं आस-पास घूम आता हूँ, कभी मंडी से सब्जी ले आता हूँ, कभी बाज़ार से हो आता हूँ। उनको अच्छा लगता है, जब मैं उनका स्कूटर चलाता हूँ। कभी आकर मैं कहता हूँ कि स्कूटर की आवाज़ बढ़ गई है तो मुझसे स्टार्ट करने को कहते हैं। जब मैं स्टार्ट करता हूँ, तब वह आवाज़ को ध्यान लगाकर सुनते हैं। उन्हें पता चल जाता कि बीमारी क्या है। फिर वह मुझसे सामान लाने को कहते। जब मैं सामान लाता हूँ, वह मुझसे स्कूटर खोलने को कहते हैं। और इस तरह मैंने भी थोड़ी-बहुत स्कूटर रिपेयर करना सीख लिया है।

स्कूटर के साथ उनकी उम्र थोड़ी-सी घट जाती है। उनमें जोश और उत्साह भर जाता है। वह अब भी स्कूटर चला लेते हैं, लेकिन अब उन्हें मेरे पीछे बैठना ज्यादा पसंद है। वह मेरे साथ कार के बजाए स्कूटर पर बैठना ज्यादा पसंद करते हैं। पता नहीं क्यों, मुझे भी स्कूटर चलाना अच्छा लगने लगा है। 
 -----------------------------------------------------------

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

दो दरवाज़े

मरने के बाद आदमी ने स्वयं को दो दरवाजों के बीच खड़े पाया. एक पर लिखा था “लालसा”, और दूसरे पर “भय” लिखा था.
एक देवदूत उस तक आया और बोला, “तुम किसी भी द्वार को चुन सकते हो. दोनों ही नित्यता के मार्ग पर खुलते हैं”.
आदमी ने बहुत सोचा पर उसे तय करते नहीं बना. उसने देवदूत से ही पूछा, “मुझे कौन सा दरवाज़ा चुनना चाहिए?”
देवदूत ने मुस्कुराते हुए कहा, “उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. दोनों ही यात्राओं की परिणति दुःख में होती है.”