कचहरी में बैठकर वह लगभग रो दिया था। ऐसा मामूली कार्य भी वह नहीं कर सकता? छोटे-छोटे आदमियों से असफल सिफारिश की खिन्नता लिए वह शाम को स्टेशन की ओर टहलता गया।
तभी आते-जाते लोगों के बीच दिखायी पड़ा तहसील-स्तर का नया ग्राम-नेता - दुबला, लंबा, मूँछें सफाचट, गेहुँआ रंग। ढीला-ढाला लंबा कुरता सफेद खादी का, कुरते की बाँहें काफी बड़ी, अर्थात् कलाई पर से लगभग एक बित्ता मुड़ी हुई, मुख पर टँगी धूर्त अहमन्यता, नकली तेजस्विता और ओढ़ी भद्रता। उसका झोला पीछे आता सस्ते गल्ले का एक ग्रामीण दुकानदार ढो रहा था। ग्राम-नेता की उँगलियों में बिना जलाई सिगरेट थी, वह वास्तव में दियासलाई की ताक में था और कुछ लंबा होने के कारण दूर-दूर की झाँकी ले रहा था। वह स्टेशन की ओर इस प्रकार बढ़ रहा था मानो किसी उद्घाटन में फीता काटना है। वी.आई.पी. मार्का चाल क्या सीखनी पड़ती है? - नहीं, स्वयं आ जाती है।
नेता की चिड़ीमार उड़ती निगाहों में वह फँस गया। '...तो ठीक है, शायद कुछ काम बने... आपके रहते यह अदना-सा काम नहीं हो रहा है!'
'आपका वह काम हो गया है!' उसने अत्यंत निर्लिप्त-निर्भाव सादी शब्दावली में उत्तर दिया, 'मुझे मालूम है। आप ग्यारह बजे कचहरी में मिलिए, फाइल निकलवाकर दिखा दूँगा। ...और कोई हुक्म?'
विमल मारे खुशी के सन्न! हाथ जोड़ मुस्कराते और इस प्रकार हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते-करते नया नेता जब चेहरे पर पूर्ववत् निर्भाव गांभीर्य सँभाले हाथ जोड़ एक ओर बढ़ गया तब अचानक झटका लगा - 'साला सारी कचहरी को दिखाना चाहता है कि एक भले आदमी को चेला बनाकर पीछे-पीछे घुमा रहा है! ...फिर तुरंत बादल छँट गए। बेकार ही वह हीनत्व-भाव धारण कर अपने को सता रहा है। संभव है, काम हो गया हो और सवाल उसके पता लगाने का हो। ...लेकिन यही तो मोर्चा है! एक-से-एक विराट्-बीहड़ खोह-कंदरा की भाँति यह दफ्तर, वह दफ्तर, टेबुल, क्लर्क और फाइल! ...तो इसके लिए एक्सपर्ट चाहिए जो कास्मिक चूहे की भाँति एक क्षण में कागज की सारी अँधेरी परतों में रेंगकर बाधाओं के फीतों को कुतर दे और सही-सही टोह ले ले। ...यह कितना सुखद है कि इस देश में बहुजन-हिताय नेता हैं। नया ग्राम-नेता नित्य सुबह की ट्रेन से आगे-पीछे दस जनों को लटकाए आता है और दिन जिला परिषद् में, चकबंदी दफ्तर, कचहरी और चायखाने में गुजारकर, जनता का काम कर वापस चला जाता है!'
दूसरे दिन ठीक ग्यारह बजे विमल कचहरी पहुँच गया। चायखाने में बहुत भीड़ थी और बेलाग बातें चल रही थीं। 'ओह, यह चायखाने का हल्ला तो अमृत है जो अगणित लोगों को जिला रहा है!' उसने सोचा। जनहित के तपियों के इस अड्डे की चप्पलों से कुचली धूप में, दियासलाई की अधजली तीलियों, सेव-दालमोठ के टुकड़ों और अधजली बीड़ियों आदि से भरी धूल में एक प्रकार की पवित्रता है। यज्ञधूम की भाँति उठते कोयले के धुएँ की कड़वाहट को वहाँ सिगरेट का धुँआ पचा डालता है। राजनीतिक चर्चा-चर्वणाओं के टॉनिक से जिनकी तंदरुस्ती बेहया (सदाबहार) की भाँति सदा हरी-भरी रहती है ऐसे टिनोपाली और टेरीकाटी नादेहंद बकवासियों से भरी चायखाने की बेंचों के आसपास उस समय इमरजेंसी-पूर्व का आधुनिक विधानसभाई 'अनुशासन' पूरे जोर पर था और कुछ देर के लिए वह भूल गया कि उसे किसी की तलाश है। न जाने कैसे-कैसे आश्रमों में पहुँचकर मन हलका और एकाग्र हो जाता है और देश के बारे में कुछ क्या, बहुत कुछ सोचने की इच्छा होने लगती है।
कचहरी में न जाने कहाँ-कहाँ से आए लंबे-लंबे लोग दिखायी पड़ते हैं। ये अगर कुरते-धोती में हैं और कुरता संयोग से तंबू-काट है तो भ्रम में पड़ जाना स्वाभाविक है। ऐसे ही भ्रम में विमल चायखाने से उठकर जिला परिषद् में गया, पर उसका अभीष्ट नेता नहीं था। उसी जाति का वह एक दूसरा जीव था, जिसके साथ नत्थी एक नाटे कद के नंगे-पाँव किसान का कोई केस खराब होने-होने को हो गया था और वह लंबा उसे भावी सफलता की नई आचार-संहिता समझा रहा था। तभी विमल का ग्राम-नेता आ गया। उसने नमस्ते की तो नेता ने जैसे सिर से मक्खी उड़ा दी। इससे ऐसा लगा कि घिरे हुए लोगों के बीच उसकी कोई गंभीर बात चल रही है। अब वे सब लोग एक कमरे में घुसे और खाली पड़ी टेबुल के चारों ओर लदर-फदर जम गए। 'आपका काम अभी हो जाता है,' - एक उड़ती निगाह विमल पर फेंककर नेता ने कहा और फिर निरपेक्ष गंभीरता ओढ़कर कार्यरत हो गया। ...अब उसके आगे एक रजिस्टर फैला था जिसमें तमाम दुनिया भर की अँगूठा-निशानी और टेढ़े-मेढ़े हस्ताक्षर थे। वह एक सस्ते गल्ले का लाइसेंसी ग्रामीण दुकानदार था जो राशन-वितरण-पंजिका दिखाकर उसे समझा रहा था कि तमाम माल हमने वितरित कर दिये, ब्लैक कहाँ से हुआ? फिर कहता है, 'यदि कुछ गलती-सही हुई भी हो तो मैं आपसे बाहर कहाँ हूँ?' पास बैठे एक यूरिया के बोरे-जैसे कसे, नाटे, खादीधारी शरीरवाले नई खेती के गुदगर किसान की 'पॉकिट' में हाथ डालकर हँसते हुए नेता कुछ निकालता है तो सिगरेट की डिब्बी, बस के टिकट और 'आश्चर्य मलहम' की डिबिया के साथ निकल आता है दो रुपये का मैला, लाल नोट। 'पट्ठा असली मालमत्ता छिपाकर रखता है।' कहता हुआ नेता अब एक अन्य व्यक्ति की ओर, जो देखते ही लगता है कि स्कूल मास्टर है और ट्रांसफर के चक्कर में निरीह बना पीछे लगा है, झुकता है, 'लो, जाकर कहीं से दो रुपये का बढ़िया केला ले आओ।'
अब विमल के कार्य की बारी आई। नेता उधर बैठे चंट किस्म के, दाढ़ी-बढ़े, अधेड़ मुकदमेबाज किसान की ओर घूमता है, 'हे, देखो, उस सिपाही को पहचानते हो? ...क्या नाम है? हाँ, वह थाने में डाक लाता है... हाँ-हाँ, उसी को, देखो कहीं होगा, फौरन बुलाओ तो, आपका काम बैठे-बैठे हो जाएगा।' नेता ने विमल की ओर देखा, तृप्ति और कृतज्ञता से वह भर गया, फिर उधर मुड़ा, 'हाँ-हाँ, तुम्हारा भी खयाल है। अच्छा, लो केला आ गया। खाते जाओ। उधर से लौटो तो चाय का प्रबंध करो।'
उसी समय व्यापारी नेता के पास आ उसके कानों में कुछ फुसफुसाने लगा जिसे सुनकर वह भड़क उठा। तभी एक मोटा आदमी दरवाजे पर प्रकट हुआ, जिसकी लाल होकर फिर काली पड़ी दंतावलियाँ गहरे तांबूल-रस में डूबी थीं और उसे देखते ही हाथ का समूचा केला लिए नेता उसके सामने जा खड़ा हुआ, 'लीजिए!' पान थूककर केले के साथ न्याय करते वह मोटा जो कुछ कह रहा था वह विमल की समझ के बाहर था। दोनों कहीं जाने के लिए उधर बढ़े तो थोड़ी दूर जाकर नेता ने घूमकर कहा, 'आइए श्रीमानजी, आपका काम भी उधर है।' अब विमल उनके पीछे था, अहाते के बाहर आकर उसने देखा कि वह आदमी जो सिपाही बुलाने गया था, सड़क पर खाली पड़ी एक पान की दुकान में सोया है और अब कुर्सी से उठकर सफाई दे रहा है, 'खोजते-खोजते हैरान हो गया। सिपाही दिखाई नहीं पड़ा। यहाँ बैठा हूँ कि शायद इधर से निकले...'
'तो ठीक है, नजर रखो। मिले तो कलक्टर साहब के यहाँ भेजो,' नेता ने उससे कहा और कुछ मिनटों में वे लोग जहाँ पहुँचे वह चकबंदी अधिकारी का इजलास था। वहाँ कुछ लोगों से चार-चार चोंचे लड़ा नेता अब सीधे उधरवाले चायखाने पर पहुँचा और बैठे-ठाले दहेज-प्रथा पर बहस करते कुछ जवान वकीलों के बीच धँस गया। विमल को लगा, यहाँ बैठना भी एक सुख है। कितने, कहाँ-कहाँ के, फुर्सत में अथवा हड़बड़ाए, मौजमस्ती में अथवा उद्विग्न लोग इस चित्रकूट-घाट के संतों के बीच उपस्थित हैं।
चाय-समोसे की खटक से विमल का ध्यान भंग हुआ। उसे आश्चर्य हुआ कि चायखाने के काउंटर पर वही सस्ते गल्लेवाला दुकानदार भुगतान के लिए खड़ा होकर चाय पीनेवालों की गिनती कर रहा है! यह कहाँ से आ गया? 'अच्छा, चलिए श्रीमान् अब आपका काम हो।' नेता उठकर चला तो उसके पीछे-पीछे अब विमल तथा पाँच-छ: जने और घिसट रहे थे। 'यहाँ कोई भी काम बहुत मुश्किल से होता है,' पान के दो बीड़े, जिसे साथवाले किसान सज्जन लपककर कहीं से लाये थे, मुँह में दबाते हुए नए ग्राम-नेता ने अत्यंत ऊँची दार्शनिक मुद्रा में कहा और तब तक परगना-हाकिम का इजलास आ गया। नेता पेशकार के सामने खड़ा हुआ। 'ठीक है, लंबी तारीख रहे तो ठीक है!' जैसी दो-एक बातों के बाद नेता बाहर निकला, फिर कचहरी के पिंजड़ों, कठघरों, गलियारों और इजलासी डिब्बों में घंटों मतलब-बेमतलब पूरी 'आरतों की पलटन' को रेंगाता, फिकरों के टुकड़े फेंकता, सारे अहलकारों को निकम्मा घोषित करता, 'एक मिनट यहाँ भी...' करता अंत में फिर बैतलवा डाल पर! जिला परिषद् के कमरे में आकर नेता अब पसर गया।
तभी एक और कहीं का ग्राम-नेता आया और उसने सूचना दी कि आज डी.आई.जी. का यहाँ मुआयना है।
इस छोटे-से समाचार को सुनते ही नेता उछल पड़ा। उसकी आँखें चमक उठीं। उसने विमल से कहा, 'श्रीमानजी, सुना आपने? आज तो डी.आई.जी. धमक पड़े हैं। आज इस दौरान तो कुछ नहीं होने को है! जाइए, आराम कीजिए। फिर दो दिन बाद यहीं मुलाकात होगी।'
- विवेकी राय
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (25-12-2019) को "यीशू को प्रणाम करें" (चर्चा अंक-3560) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'