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सोमवार, 21 जून 2021

कभी मुझ को साथ लेकर कभी मेरे साथ चल के - अहसान बिन 'दानिश'

कभी मुझ को साथ लेकर कभी मेरे साथ चल के
वो बदल गये अचानक मेरी ज़िन्दगी बदल के।

हुए जिस पे मेहरबां तुम कोई ख़ुशनसीब होगा
मेरी हसरतें तो निकलीं मेरे आंसूओं में ढल के।

कोई फूल बन गया है कोई चांद कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गये हैं तेरी अंजुमन में जल के।

बुधवार, 20 जनवरी 2021

चाँद है ज़ेरे क़दम, सूरज खिलौना हो गया - अदम गोंडवी

चाँद है ज़ेरे क़दम सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया।

शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया।

ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया।

यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया।

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

सहमा सहमा डरा सा रहता है - गुलज़ार

सहमा सहमा डरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है।

काई सी जम गई है आँखों पर
सारा मंज़र हरा सा रहता है।

एक पल देख लूँ तो उठता हूँ
जल गया घर ज़रा सा रहता है।

रविवार, 12 अप्रैल 2020

आप की याद आती रही रात भर - मख़दूम मुहिउद्दीन

आप की याद आती रही रात भर
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर

रात भर दर्द की शम्अ जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रात भर

बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर

शनिवार, 11 जनवरी 2020

काजू भुने प्लेट में ह्विस्की गिलास में - अदम गोंडवी

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।

आजादी का वो जश्न मनाएँ तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।

रविवार, 15 दिसंबर 2019

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे - गुलज़ार

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे 
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते 
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ 
फिर से बाँध के 
और सिरा कोई जोड़ के उसमें 
आगे बुनने लगते हो 
तेरे इस ताने में लेकिन 
इक भी गाँठ गिरह बुनकर की

गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता - निदा फ़ाज़ली

बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता 
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता॥

सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें 
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता॥

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में 
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता॥

बुधवार, 7 अगस्त 2019

किधर जाओगे - निदा फ़ाज़ली

घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे
हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे।

इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे।

शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्ते
बहते दरिया से जहाँ होगे ठहर जाओगे।

सोमवार, 5 अगस्त 2019

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं - कृष्ण बिहारी 'नूर'

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं, 
और क्या जुर्म है पता ही नहीं।

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं, 
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं| 

ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है 
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।

सच घटे या बड़े तो सच न रहे, 
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं।

मंगलवार, 25 जून 2019

धूप में निकलो - निदा फ़ाज़ली

धूप में निकलो घटाओं में
नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है, किताबों को
हटाकर देखो।

सिर्फ आँखों से ही दुनिया
नहीं देखी जाती 
दिल की धड़कन को भी बीनाई
बनाकर देखो।

शनिवार, 15 जून 2019

ऐसा लगता है ज़िन्दगी तुम हो - बशीर बद्र

ऐसा लगता है ज़िन्दगी तुम हो
अजनबी जैसे अजनबी तुम हो।

अब कोई आरज़ू नहीं बाकी
जुस्तजू मेरी आख़िरी तुम हो।

मैं ज़मीं पर घना अँधेरा हूँ
आसमानों की चांदनी तुम हो।

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

आज फिर मैं दिल अपना लगाना चाहता हूँ - राजीव उपाध्याय

आज फिर मैं, दिल अपना लगाना चाहता हूँ
खुश है दुनिया, खुद को जगाना चाहता हूँ॥

तन्हाइयों की रात, गुजारी हमने अकेले सारी
बहारों की फिर कोई, दुनिया बसाना चाहता हूँ॥

देर से लेकिन सही, आया हूँ लौटकर मगर मैं
दर बदर अब नहीं, घर मैं बसाना चाहता हूँ॥

देखो मुड़कर इक बार फिर, अब पराया मैं नहीं
थका हूँ चलते-चलते, दिल का ठिकाना चाहता हूँ॥

पोंछ लो इन आशुओं को, इनमें कोई पयाम नहीं
सिरफिरा ही सही, दिल फिर से चुराना चाहता हूँ॥
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 राजीव उपाध्याय

मंगलवार, 1 मार्च 2016

नाम पूछते हैं - राजीव उपाध्याय

वो कत्ल करने से पहले मेरा नाम पूछते हैं
नाम में छुपी हुई कोई पहचान पूछते हैं।

शायद यूँ करके ही ये दुनिया कायम है
जलाकर घर मेरा वो मेरे अरमान पूछते हैं।

तबीयत उनकी यूँ करके ही उछलती है
जब आँसू मेरे होने का मुकाम पूछते हैं।

ऐसा नहीं कि दुनिया में और कोई रंग नहीं
पर कूँचें मेरी हाथों की दुकान पूछते हैं।

हर बार कहता हूँ बस रहने दो अब नहीं
पर भीड़ में आकर वही फिर नाम पूछते हैं।
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राजीव उपाध्याय

सोमवार, 21 सितंबर 2015

अच्छा लगा - रामदरश मिश्र


आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा
सिर किये ऊँचा खड़ी है घास तो अच्छा लगा॥


आज फिर लौटा सलामत राम कोई अवध में
हो गया पूरा कड़ा बनवास तो अच्छा लगा॥


था पढ़ाया मांज कर बरतन घरों में रात-दिन
हो गया बुधिया का बेटा पास तो अच्छा लगा॥


लोग यों तो रोज़ ही आते रहे, आते रहे
आज लेकिन आप आये पास तो अच्छा लगा॥


क़त्ल, चोरी, रहज़नी व्यभिचार से दिन थे मुखर
चुप रहा कुछ आज का दिन ख़ास तो अच्छा लगा॥


ख़ून से लथपथ हवाएँ ख़ौफ-सी उड़ती रहीं
आँसुओं से नम मिली वातास तो अच्छा लगा॥
.

है नहीं कुछ और बस इंसान तो इंसान है
है जगा यह आपमें अहसास तो अच्छा लगा॥


हँसी हँसते हाट की इन मरमरी महलों के बीच
हँस रहा घर-सा कोई आवास तो अच्छा लगा॥


रात कितनी भी घनी हो सुबह आयेगी ज़रूर
लौट आया आपका विश्वास तो अच्छा लगा॥


आ गया हूँ बाद मुद्दत के शहर से गाँव में
आज देखा चाँदनी का हास तो अच्छा लगा॥


दोस्तों की दाद तो मिलती ही रहती है सदा
आज दुश्मन ने कहा–शाबाश तो अच्छा लगा॥
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रामदरश मिश्र
जन्म: 15 अगस्त 1924
जन्म स्थान: गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ: बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ, पक गयी है धूप, कंधे पर सूरज, दिन एक नदी बन गया,  आग कुछ नहीं बोलती, बारिश में भीगते बच्चे
सम्मान: शलाका सम्मान,
व्यास सम्मान

सोमवार, 2 जनवरी 2012

हवा के इक झोंके ने

हवा के इक झोंके ने रुख--जिंदगी बदल दी
जाने कहाँ से कहाँ की तय मंजिल बदल दी।



महबूब ने मेरे जाने कौन सी ली बात दिल पर
कि उस बात ने मेरी हर बात बदल दी।

कोई तक़रार हुई होती तो कुछ समझ आता
अन्जान किसी लम्हें ने सारी कायनात बदल दी

हम दिल को बता समझाएं बहलाएं कैसे
जब तूमने मेरी दिन--रात बदल दी।
©राजीव उपाध्याय

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

जो सब चाहते थे, वही कर रहा हूँ।

जो सब चाहते थे, वही कर रहा हूँ।
खुशियों को तेरी, नज़र कर रहा हूँ।।


तमाम उम्र्, जो सीखा था मैंने।
भूलाकर सब, नया शहर कर रहा हूँ॥

ये जो कहानी, कही अनकही सी।
लबों पे तेरे, लज़र कर रह हूँ॥

धूँधला ही सही, कोरा काग़ज नया हूँ।
लफ़्ज़ों पे तेरे बशर कर रहा हूँ॥
©राजीव उपाध्याय