बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता॥
सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता॥
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता॥
वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यूँ नहीं जाता॥
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शब्द नहीं है बहुत ही खूबसूरत लिखा है आपने दिल को छू गई आपकी ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंसादर आभार
हटाएंचर्चा में स्थान देने के लिए सादर धन्यवाद।
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