गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता - निदा फ़ाज़ली

बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता 
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता॥

सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें 
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता॥

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में 
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता॥

मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा 
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता॥

वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा न बदन है 
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यूँ नहीं जाता॥
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