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बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

सपनों में रिश्ते बुनते देखा

सपनों में रिश्ते बुनते देखा
जब आँख खुली तो
कुछ ना था;
आँखों को हाथों से
मलकर देखा
कुछ ना दिखा;
ख़्वाब था शायद ख़्वाब ही होगा।
सपनों में रिश्ते बुनते देखा॥

जब ना यकीं
हुआ आँखों को
धाव कुरेदा
ख़ूँ बहा कर देखा;
बहते ख़ूँ से
दिल पर
मरहम लगा कर देखा;
धाव था शायद धाव ही होगा।

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

जीने की लत

जीने की लत
जो हमने है पाली
जीने की लत……….

जीता हूँ दिल पर
बोझ लिए अब
रात अंधेरी
है काटे हरदम।
जब बोझिल
कुछ कदम बढाऊँ
राह मुझे छोड़े जाती है॥
जीने की लत……….

इक पल
मुझको चैन मिले जो
नज़र कुछ आती हैं।
कुछ चुप रहतीं हैं
कुछ कहतीं
फ़िर हाथ पकड़कर
जाने कहाँ


जीने की लत……….

बुधवार, 24 सितंबर 2014

चलना मेरा काम

राही हूँ मैं, चलना मेरा काम
चलते जाना, है मेरा अन्जाम।
राही हूँ मैं, चलना मेरा काम॥

दौड़ लगाना, फिर हाँफ जाना
रुकना नहीं, है मेरा ईनाम।
दरिया और मरु, सब बेगाने
ज़ोर लगाना, मेरा इन्तज़ाम
राही हूँ मैं, चलना मेरा काम॥

हार जीत का, मतलब क्या
राह जब, है मेरा मुकाम।
थकना मैंने, सीखा ही नहीं
मिट जाना, है मेरा इन्तकाम।
राही हूँ मैं, चलना मेरा काम॥

© राजीव उपाध्याय

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

जाना है मुझको

जाना है मुझको, मैं चला जाऊँगा
चाहो ना चाहो, पर याद आऊँगा।

जब-जब गुँजेगी आवाज़ तेरी,
जब नाम तेरा लिया जाएगा
हर सुर में, हर बोल को
मैं संग तेरे गुनगुनाऊँगा।
चाहो ना चाहो, पर याद आऊँगा॥

मंजिल दूर, राह ना आसान है
कभी चलूँगा, कभी ठहर जाऊँगा
मैं सफ़र का, गुमनाम मुसाफ़िर तेरा
हर पल साया बन, साथ निभाऊँगा।
जाना है मुझको, मैं चला जाऊँगा,
चाहो ना चाहो, पर याद आऊँगा॥

©राजीव उपाध्याय


सोमवार, 22 सितंबर 2014

हक़ीकत नहीं, ना ही फसाना है ये

हक़ीकत नहीं
ना ही फसाना है ये
ख्वाबों में बस
आना-जाना है॥
हक़ीकत नहीं, ना ही फसाना है ये॥ 

लोगों की बातें मैं सुनता नहीं

अपना कहा मैं करता नहीं
अब होने
ये क्या लगा है
दिल ही नहीं,
ना ही मयखाना है ये॥
हक़ीकत नहीं, ना ही फसाना है ये॥ 

जब आसमां से उतर

जब जमीं देखता हूँ
सड़क है ना ही पगडंडी
और ना पग के निशान
ढूँढू तो ढूँढू,
आशियाँ अपना कैसे
राह-ए-डगर को
जो रूक जाना है
हक़ीकत नहीं, ना ही फसाना है ये॥ 

© राजीव उपाध्याय




शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

विरोध जारी रखें

ये अच्छी बात है कि आप बुद्धिमान, ज्ञानी एवं बुद्धिजीवी हैं। आप चीजों का विश्लेषण कर सकते हैं। परन्तु आपका ज्ञान एवं विश्लेषण करने की क्षमता का प्रयोग कहाँ हो रहा है यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। आजकल एक अच्छा रिवाज है कि आप अपने ज्ञान को प्रदर्शित करने लिए किसी का विरोध करना प्रारम्भ कर दीजिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका विरोध सही है या गलत। बस आपको अति की स्थिति तक विरोध करने आना चाहिए और विरोध करते समय आप अपने कार्यों को विश्लेषण ना करने की आदत होनी चाहिए। शायद ये अच्छा तरीका भी है लोगों के नज़रों में बने रहने का। कई बार पारितोषिक भी मिलता है। जी चाहे तो हर बड़े चर्चित नाम के इतिहास को देख लें। अतः विरोध करने की परम्परा बनाए रखें चाहे भले ही वो आपका मजाक उड़ाए।
© राजीव उपाध्याय

सोमवार, 15 सितंबर 2014

सोमवार, 2 जनवरी 2012

हवा के इक झोंके ने

हवा के इक झोंके ने रुख--जिंदगी बदल दी
जाने कहाँ से कहाँ की तय मंजिल बदल दी।



महबूब ने मेरे जाने कौन सी ली बात दिल पर
कि उस बात ने मेरी हर बात बदल दी।

कोई तक़रार हुई होती तो कुछ समझ आता
अन्जान किसी लम्हें ने सारी कायनात बदल दी

हम दिल को बता समझाएं बहलाएं कैसे
जब तूमने मेरी दिन--रात बदल दी।
©राजीव उपाध्याय

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -5

ये प्यार है या कुछ और है, हमको बता ये कौन है
जो नींद थी आँखों मे, अब नज़र आती नहीं
सपने हैं कुछ हसीन से, जो आँखो से जाते नहीं
ये प्यार है या कुछ और है, हमको बता ये कौन है॥

तमाम शिकवे गिले भूलाकर गए, साथ अपने हमको छुपाकर गए।
अब चलें तो चलें किस राह पर, ना मंजिल ना रास्ता बताकर गए।।


कुछ इस कदर ख़फा वो हमसे हुए,
कुछ ना कहे चले गए,
आँसू भी मेरे संग ले गए।।
©राजीव उपाध्याय

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -4

मैं हर पल साथ तेरे था, बस नज़र उठाकर देखा होता।
धुंधली सी परछाईं बनकर, पीछे तेरे खड़ा था॥
दो चार लोगों से मिलकर देखा, तो मेरे ग़म की शिनाख़्त हुई।
कभी औंधे मूँह गिरे थे, कभी कड़ती दोपहर सी बरसात हुई

तल्ख़ जिन्दगी की कश्मकश में, हम इस कदर खोए रहे
कि बदलती सूरत भी अपनी अब पहचान नहीं आती
©राजीव उपाध्याय

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

जो सब चाहते थे, वही कर रहा हूँ।

जो सब चाहते थे, वही कर रहा हूँ।
खुशियों को तेरी, नज़र कर रहा हूँ।।


तमाम उम्र्, जो सीखा था मैंने।
भूलाकर सब, नया शहर कर रहा हूँ॥

ये जो कहानी, कही अनकही सी।
लबों पे तेरे, लज़र कर रह हूँ॥

धूँधला ही सही, कोरा काग़ज नया हूँ।
लफ़्ज़ों पे तेरे बशर कर रहा हूँ॥
©राजीव उपाध्याय

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -3

शाम से ही मनहुसियत छाई है, जाने कब से शमा ललचाई है।
दिल में मौत का ख़ौफ़, उजाले में अंधेरा ले के आई है॥



बस एक अदद मौत मांगी थी हमने, देकर खुद जिन्दगी का हवाला।
जिन्दगी ना मिली, मौत भी ले गया, जाने दिया कौन सा निवाला॥

परवाह ना कीजिए हुज़ूर आप, चीजें खुद बदल जाएंगी
जिन्दगी सफ़र अन्जाना, राहें मंजिल मिल जाएंगी॥
©राजीव उपाध्याय

रविवार, 11 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -2

सुना था आइने में चेहरा दिखता है।
पर आज चेहरे में चेहरा दिखा है


हम रोते हुए निकले घर से, तूम हंसते हुए।
लोगों ने समझा, एक खुश है, है दुसरा ग़म में।
पर उन्हें क्या पता, हम दोनों ही खुश हैं॥

चलना चाहता हूँ कुछ दूर तक मैं
पर मंज़िल का पता नहीं
और रास्ता भी चुपचाप है
©राजीव उपाध्याय

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

कुछ मुक्तक -1

ग़लफ़त में ना रहिए हुजूर, ये ग़लफ़त आपको गला देगी।
तब मुक़्द्दर भी ना करेगा इनायत, शराफ़त के मुद्द्तों से।।




है मुमकिन कि तूम मुझसे ख़फ़ा हो जाओ।
जब बात कहूँ दिल की तो बेवफ़ा हो जाओ

मैं इसे नज़र का फेर कहूँ, या ज़िग़र का फेर।
कि नज़र ने नज़रबाज़ को, नज़रंदाज़ कर दिया॥
©राजीव उपाध्याय