दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
प्रिय ठलुआ-वृंद! यद्यपि हमारी सभा समता के पहियों पर चल रही है और देवताओं की भांति हममें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, तथापि आप लोगों ने मुझे इस सभा का पति बनाकर मेरे कुंआरेपन के कलंक को दूर किया है। नृपति और सेनापति होना मेरे स्वप्न से भी बाहर था। नृपति नहीं तो नारी-पति होना प्रत्येक मनुष्य की पहुंच के भीतर है, किंतु मुझ-ऐसे आलस्य-भक्त के लिए विवाह में पाणिग्रहण तक का तो भार सहना गम्य था। उसके आगे सात बार अग्नि की परिक्रमा करना जान पर खेलने से कम न था। जान पर खेल कर जान का जंजाल खरीदना मूर्खता ही है - 'अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन्, विचारमूढ: प्रतिभासि मे त्वम्' का कथन मेरे ऊपर लागू हो जाता। 'ब्याहा भला कि क्वांरा' - वाली समस्या ने मुझे अनेक रात्रि निद्रा देवी के आलिंगन से वंचित रखा था, किंतु जब से मुझे सभापतित्व का पद प्राप्त हुआ है, तब से यह समस्या हल हो गई है। आलसी के लिए इतना ही आराम बहुत है। यद्यपि मेरे सभापति होने की योग्यता में तो आप लोगों को संदेह करने के लिए कोई स्थान नहीं है, तथापि आप लोगों को अपने सिद्धांतों को बतला अपनी योग्यता का परिचय देना अनुचित न होगा।