सोमवार, 22 सितंबर 2014

हक़ीकत नहीं, ना ही फसाना है ये

हक़ीकत नहीं
ना ही फसाना है ये
ख्वाबों में बस
आना-जाना है॥
हक़ीकत नहीं, ना ही फसाना है ये॥ 

लोगों की बातें मैं सुनता नहीं

अपना कहा मैं करता नहीं
अब होने
ये क्या लगा है
दिल ही नहीं,
ना ही मयखाना है ये॥
हक़ीकत नहीं, ना ही फसाना है ये॥ 

जब आसमां से उतर

जब जमीं देखता हूँ
सड़क है ना ही पगडंडी
और ना पग के निशान
ढूँढू तो ढूँढू,
आशियाँ अपना कैसे
राह-ए-डगर को
जो रूक जाना है
हक़ीकत नहीं, ना ही फसाना है ये॥ 

© राजीव उपाध्याय




16 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद यशोदा जी कि आपने अपना कीमती समय निकालकर इसे समीक्षा हेतु अपने चिट्टे पर स्थान दे रही हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद आपको।

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  2. कामयाब कोशिश....बेहतरीन रचना...अलग रंग...अलग रूप...वाह...

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    1. धन्यवाद भास्कर जी। प्रयास किया है कि कुछ लिख सकूँ।

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  3. रचना और चित्र दोनों में बहुत सामंजस्य है | सुन्दर |
    : शम्भू -निशम्भु बध --भाग १

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद प्रसाद जी कि आपने समय निकालकर टिप्पणी की। आपसे नम्र निवेदन है कि अगर कोई त्रुटि हो तो बताएँ चाहे वो भाषा की हो या फिर शैली संबन्धित। यही मार्गदर्शन आगे बढ़ने में सहयोग देगा। पुनश्च सादर धन्यवाद

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  4. उत्तर
    1. धन्यवाद परवीन जी। अगर कोई कमी हो तो अवश्य बताएं।

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  5. धन्यवाद परवीन जी। अगर कोई कमी हो तो अवश्य बताएं।

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  6. बहुत सार्थक और सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  7. सच कहा है आपने,
    जीवन में ऐसा बहुत कुछ होता है जो न तो हक़ीकत होती है और न अफ़साना !
    ‘स्वयं शून्य’ भी ऐसी ही एक अवधारणा है ।

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    1. जी महेन्द्र जी, मैं आपसे सहमत हूँ। यही मैं भी कहना चाहता हूँ। आपने मेरी भावनाओं को वैसे ही समझा जैसा मैं कहना चाहता हूँ। स्वयं शून्य भी उसी भाव बृहत पक्ष है और रचनाएं विभिन्न पहलू।

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