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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

याद है तुम्हें? - नवीन कुमार 'नीरज'

याद है तुम्हें?
हर रोज हम उस सड़क पर घूमने जाया करते थे?
वही सड़क जो बहुत दूर तक जाती थी।
हमने सुना था, बहुत दूर वह किसी दूसरे देश तक जाती थी।
वह सड़क बागों के बीच से होकर गुज़रती थी।
शायद इस दुनिया में कोई और सड़क बागों के बीच से होकर नहीं गुज़रती ---
जो इतनी लंबी हो और बहुत दूर किसी दूसरे देश तक जाती हो।
अकसर ही हम अपनी कल्पनाओं में उस देश में पहुंच जाया करते थे।
जहाँ हम अपने मन से चीज़ें गढ़ते रहते थे।

याद है तुम्हें?
हम कैसे-कैसे घर बनाया करते थे?
हम झोपड़ी से लेकर महल तक बनाया करते थे।
झोपड़ी भी उतनी ही सुंदर होती थी, जितने कि महल।
वहाँ के लोग कितने निराले होते थे, बिल्कुल हमारे मन की तरह।
वे बहुत प्यारे होते थे और बहुत सुंदर भी।
वे हमेशा खुश रहते थे।
वे सभी जीवन का उत्सव मनाते रहते थे।
वे हमेशा हँसते, गाते, गुनगुनाते रहते थे।
वे हमेशा प्यार के गीत गाया करते थे।
वे एक-दूसरे का हाथ थामे, सड़कों पर घूमते हुए गाया करते थे।
उस देश में कितने रंग-बिरंगे फूल थे!
देखो तो बस देखते रह जाओ!
हम उसे साथ-साथ निहारा करते थे।
और अकसर ही हम उसमें खो जाते थे।
उन फूलों पर कितने सुंदर भँवरें मंडराते रहते थे!
जो अपनी धुन में गीत गाते हुए फूलों को रिझाते रहते थे।
हम उस भँवरें की अदा को देख-देखकर मुसकराते थे।
तब तुम मेरी आँखों में झांकती थी और कितने प्यार से मुसकराती थी!
फिर तुम मेरे कांधे से सिर टिका कर आँख बंद कर लेती थी।
और फिर मेरी बांहों का सहारा लिए मेरे साथ चलती थी।
और हम सिर्फ चलते रहते थे।
हम उस सड़क पर चलते रहते थे, जो बहुत दूर तक जाती थी।
या फिर उस दूसरे देश की सड़क पर जिसे हमने गढ़े थे।

याद है तुम्हें?
लोग हमें साथ-साथ चलते देखकर कितने प्यार से मुसकराते थे?
जब वे हमारे बगल से गुज़रते, झुक कर हमारा अभिवादन करते।
ऐसे ही तो हम उस सड़क पर चलते हुए प्यार बाँटा करते थे।
हम चलते हुए या बैठे हुए कितनी सुंदर कहानियाँ गढ़ लिया करते थे।
हम इंद्र धनुष से भी सुंदर और प्यारी कहानियाँ गढ़ लेते थे।
उन कहानियों में बच्चे से लेकर बूढ़े तक, सबका जिक्र हुआ करता था।
जिसमें सभी हँसते और गाते रहते थे।
उन कहानियों में कोई रोता नहीं था।
वे कितनी सुंदर कहानियाँ होती थी!
और लोग भी कितने सुंदर होते थे!
उनकी आँखों में नूर बसता था।
हमेशा उनका चेहरा खिला होता था,
जैसे वे हमेशा प्रेम में ही डूबे रहते हों।
हम अपनी कहानियों में सबसे सुंदर बूढ़े दंपत्तियों को गढ़ते थे।
जो एक-दूसरे के साथ धीरे-धीरे सड़क पर चला करते थे।
जब वे थक जाते, किसी सुंदर बाग़ में बैठ, चिड़ियों के गीत सुना करते।
वे पास से गुज़रते युगल प्रेमी को देख मुसकराते, जैसे उन्हें कुछ याद हो आया हो।
ऐसे वक्त में अकसर ही वे किन्हीं खयालों में डूब जाते थे,
वे एक-दूसरे के बगल में बैठे होते थे --- एक-दूसरे को सहारा दिए हुए।
हम अकसर ही ऐसे दंपत्तियों को बहुत ग़ौर से देखते रहते थे।
हम उन्हें देखते हुए सोचने लग जाते थे, वे एक-दूसरे से कैसे मिले होंगे?
कैसे उन्होंने एक-दूसरे से प्यार का इज़हार किया होगा?
उन्होंने एक-दूसरे से क्या कहा होगा?
और फिर हम एक नई कहानी गढ़ लेते थे।
ऐसे ही हम कहानी से कहानियाँ गढ़ते रहते थे।
एक-के-बाद-एक सुंदर और प्यारी-प्यारी कहानियाँ,
जिसमें सिर्फ प्यार-ही-प्यार होता था,
जिसमें जीवन और प्यार के गीत होते थे।
ऐसे ही तो हम गीत भी गढ़ते रहते थे।
न जाने कितने गीत हमने ऐसे ही गढ़े थे,
जिसे हम अकसर गाया करते थे --- तुम और मैं।
हाँ, हमने उस सड़क पर चलते हुए बहुत से गीत गाए थे।

याद है तुम्हें?
जब हम कभी चुप रहते, बच्चे हमसे कैसे ज़िद करते थे?
कैसे हमसे कोई गीत सुनाने को कहते थे?
हम उन्हें देखकर मुसकराते थे।
हम जानते थे उन बच्चों को किसने भेजा था।
फिर हम एक-दूसरे की आँखों में झांकते और गाने लगते थे।
धीरे-धीरे हमारे साथ बहुत-से लोग गाने लगते थे,
बच्चे, बूढ़े, जवान, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी --- सभी गाते थे।
हम सब मिलकर गाते थे।
वहाँ के फूल भी गाते थे, पेड़ और पौधे भी, तने और पत्ते भी।
हवा भी, धरती और आकाश भी।
वह सड़क भी।
याद है तुम्हें?
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गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

ढूँढ़ते हैं - नवीन कुमार 'नीरज'

रोज़ घर से निकलते हैं, यह सोचकर ---
एक हमराही आज ढूँढ़ लाएंगे
हम गलियों-नुक्कड़ पर मंडराते हैं
हर गली हर मुहल्ले चक्कर लगाते हैं
मन की आँखों से हर चेहरें निहारते हैं
इस उम्मीद से कि हमराही ढूँढ़ लेंगे
हम तैयार हैं ---
हर काँटे को फूल समझने के लिए
बस एक हसरत है ---
मेरे मन को वह आबाद करे
फूल न सही काँटे ही राज करे
हम हँसकर काँटो की चुभन को
फूलों की हार समझकर
खुश हो लेंगे
खुशी न सही
दर्द के साथ ही, जी लेंगे
कोई अपना तो होगा
सूने मन में कोई सपना तो होगा
किसी के लिए दर्द तो सहेंगे
सूने आँगन में कुछ तो खरकेगा
कोई दो बोल तो बोलेगा
लाख अँधेरा होगा,
कभी बिजली भी तो चमकेगी
दुश्वारियों के बीच
कभी आशा की किरण भी तो होगी
उस किरण से हम
मन की बत्ती जला लेंगे
जगमगाहट न सही
एक दीए की लौ से
अँधेरा मिटा लेंगे
उस दीप को बुझने न देंगे
आँधी के बीच भी
दीए जलाए रखेंगे
चलने के लिए
एक डगर तो होगी।
टूटी कश्ती ही सही
दरिया पार लगा लेंगे
तूफानों के बीच भी
जीवन बिता लेंगे।

हम रोज सुबह घर से निकलते हैं
हम आज भी घर से निकल पड़े हैं
अब हम सड़क पर खड़े हैं
लाखों की भीड़ है!
इस भीड़ में हम एक चेहरा ढूँढ़ते हैं---
बस एक चेहरा।

अब भी हम भटक रहे हैं
सुबह से शाम हो गई
पथराई आँखें थककर सो गई।
हमने लाख चाहा
दरवाज़ा न सही
कोई खिड़की ही खुली दिख जाए
पर मन की खिड़कियाँ भी बंद थी।

अब तो इस भीड़ ने
हमें खुद को ही खुद से
बेगाना बना दिया है।
रात हो गई है
मायूसी में डूबे घर जा रहे हैं
अब तो रातभर खुद को तलाशना है
अगर सुबह तक खुद को ढूँढ़ पाए तो
फिर सुबह घर से निकलेंगे ---
हजारों-लाखों चेहरे में से एक चेहरा ढूँढ़ने।
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रविवार, 11 अक्टूबर 2015

देवता के बच्चे - नवीन कुमार नीरज

मैं उस रास्ते पर चलते हुए बहुत दूर निकल गया था।
उस रास्ते पर चलते हुए जिसके दोनों ओर बहुत ऊँचे-ऊँचे पेड़ लगे थे।
ऐसा लगता था जैसे वे पेड़ आसमान को छू रहे थे।
उस समय मुझे ऐसा लगा जैसे, शायद यह सड़क किसी स्वर्ग तक जाती है।
और मैं उस सड़क पर चलने से अपने को रोक नहीं पाया,
मैं चलता गया, मैं चलता गया।
उस सड़क पर चलते-चलते जब मैं बहुत दूर निकल गया,
पता नहीं मैं कितना दूर निकल गया था ---
मैं एक मोड़ पर पहुँचा और उस मोड़ से मुझे एक नई सड़क दिखी।
न जाने क्यों मैं उस सड़क पर चल पड़ा।
उस सड़क पर चलते-चलते मुझे एक बाग़ दिख गया।
उस बाग़ में जाने से मैं अपने को रोक नहीं पाया।
मैंने अपने पूरे जीवन में ऐसे बाग़ पहले कभी नहीं देखे थे।
आप ऐसी चीज़ों की कल्पना नहीं कर सकते!
वह बाग़ कल्पनातीत था --- अति मनोरम!
जैसे मैं इंद्र के बाग़ में पहुंच गया था,
पर मुझे शक है कि इंद्र का बाग़ भी उतना सुंदर होगा!
मैं मंत्रमुग्ध-सा सब कुछ निहार रहा था।
पेड़-पौधे, फूल-पत्ते, कली और भँवरें --- सभी एकदम से निराले थे।
पर सबसे ज्यादा मैं आश्चर्यचकित था, बाग़ में टहलते बच्चो को देखकर!
क्या इतने प्यारे बच्चे होते हैं!
सच में, मैंने इतने प्यारे बच्चे पहले कभी नहीं देखे थे।
वे सारे बच्चे देवता के बच्चे थे।
बहुत ही प्यारे, बहुत ही सुंदर!
मुझे लगा जैसे सुंदरता का जन्म यही से होता है।
वे कैसे चलते थे, वे कैसे देखते थे!
वे कैसे हँसते थे, वे कैसे बातें करते थे!
आप देखो तो बस देखते रह जाओ!
आप जैसे उस सुंदरता के बीच खो जाते हैं।
आप जरा भी नहीं बचते, रत्ती भर भी नहीं।
आपको पता ही नहीं चलता कि कब आप खो गए।
और सबसे कमाल कि आपको इसकी परवाह भी नहीं होती।
खो जाना किसे कहते हैं, आप इसे पहली बार महसूस करते हैं।
सच में, आप पहली बार जानते हैं कि खो जाना क्या होता है।
हाँ, सच में, मैं खो गया था।

तभी अचानक मेरी नज़र उस बूढ़े व्यक्ति पर गई।
मुझे अफ़सोस है कि उस बूढ़े के बारे में ज्यादा नहीं कह सकता,
कारण कि, मैं अच्छे शब्द पहले ही खत्म कर चुका हूँ।
अब बाकी बचे शब्दों में उस बूढ़े का बयान कैसे संभव है!
उनका सौन्दर्य शब्दातीत था, उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता।
मैं सच कहता हूँ, मेरी जगह आप भी होते तो आप भी वही महसूस करते ---
यही कि वह बूढ़ा परम सुंदर था।
मैं उन तक जाने से अपने को रोक नहीं पाया।
वे मुझे देखकर मंद-मंद मुसकराए,
जैसे कि वह मेरे मन की बात समझ रहे हों।
“तो तुम इन बच्चे को देख रहे थे?” उन्होंने मुझसे पूछा।
मैंने इसे स्वीकारा।
“तुम्हें ये बहुत प्यारे लगे, हैं न?” उन्होंने फिर से पूछा।
“हाँ ये बहुत प्यारे हैं?” मैंने कहा।
“बच्चे प्यारे होते ही हैं, कभी तुम भी बहुत प्यारे होगे।”
उनका कहना था और वे आगे कहते रहे, मैं सुनता रहा।
“बचपन बहुत प्यारा होता है, हम सबका बचपन बहुत प्यारा होता है।
“पर यह बहुत अधिक दिन टिकता नहीं, यह तुमसे खो ही जाता है।
“तुम इसे बचा भी नहीं सकते, जैसे तुम हवा को कैद नहीं कर सकते।
“पर मन में इसकी ललक लगी ही रहती है, तुम इसे कैद करना चाहते हो।
“जो खो गया है, उसे फिर से पा लेना चाहते हो।
“इसलिए तुम बच्चे चाहते हो और तुम बच्चे पैदा करते हो,
ताकि खोया बचपन फिर से मिल जाए और तुम्हारी अधूरी लालसा पूरी हो जाए।
“पर क्या ऐसा होता है? तुम्हारी लालसा पूरी होती है?
“तुम्हारा मन लालसाओं के बीच ऐसे फँसता है, जैसे जाल में चिड़िया।
“तुम जितना फड़फड़ाते हो, तुम उतना ही फँसते जाते हो।
“लोग कहते हैं कि बच्चे परमात्मा की संतान होते हैं, शायद यह सही भी हो।
“पर तुम बड़े होकर परमात्मा की संतान क्यों नहीं रह जाते?
“शायद परमात्मा तुमसे छल करता है और तुम आसानी से छल लिए जाते हो।
“तुम इन बच्चे को ग़ौर से देखो, ये मनुष्य के बच्चे नहीं है।
“ये देवता के बच्चे हैं, ये कभी बड़े नहीं होंगे, ये हमेशा बच्चे ही रहेंगे।
“देखो ये कितने प्यारे लगते हैं, इनका रूप बदलता नहीं फिर भी ये इतने प्यारे हैं।
“जबकि तुम हमेशा बदलते रहते हो।
“तुम इतनी तेज़ी से बदलते हो कि ऐसा लगता है, जैसे तुम्हें हर चीज़ की बहुत जल्दी है।
“जल्दी-जल्दी में तुम अपना बचपन भी जल्दी खो देते हो।
“तुम मनुष्य बहुत जल्दी करते हो।
“तुम इतनी जल्दी क्यों करते हो?
“तुम इतनी जल्दी करते हो कि हर चीज़ तुमसे जल्दी ही खो जाती है।
“इसलिए परमात्मा भी तुमसे जल्दी ही खो जाता है।
“जबकि इन देवताओं से तुम्हें अधिक वरदान मिला है,
तुम उनका सदुपयोग क्यों नहीं करते?
“तुम इन देवताओं के बच्चों से अधिक सुंदर हो सकते हो,
क्योंकि परमात्मा स्वयं तुम्हारे अंदर मौजूद है,
जो कि इन बच्चों के नसीब में नहीं है।
“तुम इन देवताओं जैसे बच्चे की कामना करते हो,
पर जान लो, यह मिल भी जाएंगे तो खो जाएंगे।
“क्योंकि परमात्मा जो तुम्हें देता है उसे तुम बचाकर रख नहीं पाओगे,
वह तुमसे खो ही जाएगा, यह स्वाभाविक है।
“तुम जान लो परमात्मा तुममे कामना जगाता है
और तुम उस कामना के अधीन हो जाते हो।
“तुम जो चाहते हो तुम्हें मिल भी गया तो तुम उसे खो दोगे।
“तुम जान लो, जो तुम मांगोगे, वह तुम्हें मिल भी गया तो तुमसे खो जाएगा;
यही सृष्टि का स्वभाव है।
“इसलिए मांगो मत, उपलब्ध करना सीखो। क्योंकि तब तुम्हें खोने का ग़म नहीं रह जाएगा।
“इससे तुम दुःख में नहीं पड़ोगे।
“तुम हर भ्रम से मुक्त होगे।”
इतना कहकर वे चुप हो गए।
उनके चेहरे पर वही मुसकान खेल रही थी, जिससे मैं वशीभूत हो गया था।
अनूठा था उनका मौन!
मैंने उन्हें बहुत गौर से देखा और मुझे कुछ आभास हुआ!
पर दूसरे ही क्षण वे मेरे सामने नहीं थे।
न ही वह बाग़ था, न ही वे देवता के बच्चे।
वह सड़क भी नहीं थी, न ही वे पेड़।
मैं कहाँ था, मुझे स्वयं पता नहीं।
यह सब कुछ क्या भ्रम था या फिर स्वप्न?
पर कहीं-न-कहीं यह मेरे अंदर घटित हुआ ही था।
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नवीन कुमार 'नीरज'

रविवार, 16 अगस्त 2015

पापा और पापा का स्कूटर - नवीन कुमार 'नीरज'

“ज़िंदगी दो पहिए की स्कूटर की तरह है, जब ठीक है तो फर्राटे भरती है, जब खराब हो गई तो एक दम से रूक जाती है।”
मुझे मालूम है, मैं फिजूल की बात कर रहा हूँ। यह ठीक है कि ज़िंदगी और स्कूटर के बीच कोई कनेक्शन नहीं है। लेकिन कभी-न-कभी कोई कनेक्शन तो होता ही है। ऐसा ही एक कनेक्शन मेरे पापा और स्कूटर के बीच है। मुझे इसकी खबर नहीं थी। यह तो मुझे बाद में पता चला। … बेहतर है कि आपको शुरू से सब कुछ सुनाऊँ।
पहले हम सरकारी मकान में रहते थे। पापा जब रिटायर हुए, तब हम सरकारी मकान से अपने घर में आ गए। पापा ने जमीन पहले ही खरीद ली थी, लेकिन घर नहीं बनाया था।
जब हमारे पास कार नहीं थी, पापा मम्मी को स्कूटर पर बिठा कर मार्केट जाते थे। जब मैंने स्कूटर चलाना सीख लिया तब मैं मम्मी को स्कूटर पर बिठाता था। मैं अपनी नई दुल्हन को बाईक पर बिठाकर घुमाने ले जाता था।
लेकिन कार की ज़रूरत तब हो गई, जब हम अपने खुद के घर में रहने लगे। जबकि अब पापा को ऑफिस नहीं जाना था। मम्मी को अब बाज़ार शायद ही जाना पड़ता था। मेरी दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी। मुझे रोज़ कार चलाना नहीं था, क्योंकि महीने में पन्द्रह दिन, मैं अपने काम की वजह से दिल्ली से बाहर ही रहता था। लेकिन कार तो दरवाज़े पर होनी ही चाहिए, क्योंकि हर एक दरवाज़े पर कार थी। किसी दरवाज़े पर एक, किसी पर दो, किसी-किसी दरवाज़े पर तो तीन भी थी।

हमने कहा कार तो हमें भी चाहिए और आश्चर्य कि किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। न मम्मी ने, न पापा ने, जबकि दोनों फिजूलखर्ची बिल्कुल पसंद नहीं करते। मामला इतना आसानी से सुलझ जाएगा, इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। मैंने सोचा था, वाद होगा, विवाद होगा, मुझे रूठना होगा, उन्हें मनाना होगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ! उन्हें भी मेरी तरह कार की ज़रूरत महसूस हो रही थी। तो हमने थोड़ी-सी सलाह-मसविरा के बाद एक नई कार ले ली। सब खुश थे। जैसे हमारे घर में एक दुल्हन आ गई थी। घर में जब नए लोग आते हैं तो कुछ दिनों तक उस घर का माहौल बड़ा खुशनुमा होता है। लोग सोच-सोच कर खुश होते रहते हैं, भले ही बाद में दुखी हो जाए।

सौभाग्य से मैं कार चलाना जानता था। वह इकलौता दिन था जब हम पूरा परिवार उस कार में बैठे थे। जब हम कार की पूजा के लिए कालकाजी मंदिर गए थे। बड़ा खुशनुमा माहौल था। सब खुश थे। सबसे ज्यादा खुश मेरी तीन साल की बेटी थी।

मैंने प्लान बना लिया था कि हम साथ मिलकर कार से ही पूरा परिवार वैष्णोदेवी जाएंगे, वृंदावन जाएंगे, पता नहीं, मैं और कहाँ-कहाँ जाने के बारे में सोच रहा था। पर हकीक़त यही है कि उसके बाद हम सभी साथ में और कहीं नहीं गए।

पर अब मुझे मुद्दे पर आ जाना चाहिए। … जो मुझे कहना है उसकी शुरूआत अब मैं करता हूँ।

मेरे पास बाईक थी और पापा के पास स्कूटर। मेरे पास नई बाईक थी और पापा के पास पुराना स्कूटर। अब कार आ गई थी। उस स्कूटर का उपयोग बहुत कम हो गया था। इसलिए मैंने तय कर लिया कि स्कूटर अब दरवाज़े से हट जानी चाहिए। इस फैसले के पीछे दो कारण थे। एक तो बेमतलब वह जगह घेर रहा था। दूसरा यह कि वह घर का प्रभाव खराब कर रहा था, माफ कीजिएगा मैं उचित शब्द प्रयोग नहीं कर रहा हूँ। मेरे मन में कुछ और शब्द आ रहा है, लेकिन मैं शिष्टता के नाते उसका प्रयोग नहीं करूँगा। मैं क्या कहना चाहता हूँ, आप भली-भाँति समझ रहे होंगे।

कार के आ जाने से स्कूटर मुझे कुछ ज्यादा ही खटकने लगा था। मैंने तय कर लिया था कि अब वह दरवाज़े पर नहीं दिखना चाहिए। मैंने अपना विचार पापा को बता दिया। उनको कोई आपत्ति होगी, यह मैंने नहीं सोचा था। उन्होंने उस वक्त मुझसे कुछ कहा भी नहीं। बस मुझे याद आ रहा है कि उनका चेहरा कुछ मुर्झा गया था, जिस ओर मैंने ध्यान नहीं दिया था। बाद में उन्होंने मुझसे कहा था, अगर वह दरवाज़े पर है ही तो क्या दिक्कत है। दिक्कत क्या थी, मैंने उनको समझा दिया। आपत्ति के बावजूद वह मुझसे प्रतिवाद नहीं कर सके। जवान बेटे के सामने बूढ़ा बाप कमज़ोर हो ही जाता है। उनके मन की कई बातें उनके मन में ही रह जाती है, बेटा समझ भी नहीं पाता है।

मैंने एक कबाड़ी वाले को बुलाकर वह स्कूटर बेच दी। दुर्भाग्य यही था कि उस समय पापा दिल्ली में नहीं थे। वह गाँव चले गए थे। जब वह गाँव से लौटे तब उन्होंने पाया कि उनका स्कूटर वहाँ मौजूद नहीं है। संयोग से उस वक्त मैं निकलने ही वाला था और मैं एक सप्ताह के लिए दिल्ली से बाहर जा रहा था। उन्हें मालूम चल गया कि मैंने स्कूटर बेच दी है। जब तक वह मुझ पर चिल्लाते, मैं दरवाज़े से बाहर निकल चुका था, क्योंकि मेरे ट्रेन का वक्त हो गया था। उनको सिर्फ इतना वक्त मिला कि वह मुझसे पूछ सके कि मैंने स्कूटर किसे बेचा है? “कबाड़ी वाले को।”, मैंने इतना ही कहा। मैं चला गया।

जब एक सप्ताह बाद मैं वापिस आया, स्कूटर अपनी जगह खड़ा था! मुझे क्या महसूस हुआ होगा, इसे आप समझ सकते हैं। मेरी तो इच्छा हो रही थी कि मैं उस स्कूटर में आग लगा दूँ! या फिर उसे इस दुनिया से ही ग़ायब कर दूँ! मैंने पूरे घर को अपने सिर पर उठा लिया! पापा चोर थे और मैं सिपाही! …… बस मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि मैं क्या महसूस कर रहा था और पापा क्या महसूस कर रहे थे। सचमुच उनको लग रहा था कि वह एक मुज़रिम हैं। जैसे बचपन में हम कभी पापा के जेब से पैसे निकालकर सिनेमा देख आते हैं और पकड़े जाने पर जिस तरह अपने पापा के सामने खड़े होते हैं, कुछ वैसे ही पापा मेरे सामने खड़े थे। उनके पास कोई जवाब नहीं था।
उन्होंने क्यों स्कूटर घर लाया? --- यह मेरा सवाल था। पर उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था। मेरा सवाल उचित था। उनको भी लगा होगा, मेरा सवाल उचित है, तभी तो उनके पास जवाब नहीं था।  
और इस झड़प ने हमारे बीच एक कड़वाहट पैदा कर दी। दूरी हमारे बीच पैदा हो गई। हम दोनों अपने तरीके से इस दूरी को बरकरार रखने की कोशिश करने लगे। एक पतली-सी दीवार खिंचती चली गई। दीवार के उस पार वो दीवार के इस पार मैं। जबकि बात कुछ भी नहीं थी। उसके बाद कोई बात ही नहीं हुई। उसके बाद कुछ भी नहीं हुआ। मैंने यह मान लिया कि स्कूटर अब यहीं रहना है। अब मुझे उस स्कूटर से कोई आपत्ति भी नहीं थी। लेकिन मैंने उस दीवार के बारे में नहीं सोचा।
पापा जैसे जेल में बंद हो गए थे। अब वह गुमसुम रहते थे, अपने में सिमटे रहते थे। जैसे उनकी ज़िंदगी से इत्मीनान को मैंने छिन लिया था।  
एक दिन मुझे पता चला कि पापा गाँव जाना चाहते हैं, साथ में मम्मी भी जाना चाहती हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, अभी-अभी तो पापा गाँव से आए हैं, फिर जाने की ज़रूरत क्या है? और मम्मी को जाने की क्या ज़रूरत है? वह तो बहुत साल से गई भी नहीं। गाँव में हमारे हिस्से सिर्फ जमीन है, घर भी नहीं है। पापा दो-चार दिन अपने भाईयों के पास, अपने नाते-रिश्तेदारों के पास रुक लेते हैं, मम्मी जाएगी तो कहाँ रुकेगी? … तब मेरी पत्नी ने मुझे बताया कि पापा गाँव में बसने के बारे में सोच रहे हैं।“ उनका दिमाग खराब हो गया है!” मैं ज़ोर से चिल्लाया। मैं इस तरह चिल्लाया कि पत्नी सहम गई। मेरे मन में यही विचार उठा कि बूढ़ऊ का दिमाग खराब हो गया है! मेरा ऐसा सोचना स्वाभाविक भी था। पापा ने कभी इस बात का जिक्र ही नहीं किया कि वह गाँव में बसना चाहते हैं। बाप-दादा की ज़मीन है, जिसे वह बेचना नहीं चाहते, इसलिए हर साल जाकर थोड़ा-बहुत कुछ ले आते हैं।

मुझे पूरी रात नींद नहीं आई। मैंने सुबह-ही-सुबह माँ से पूछा। माँ से पता चला, बात सही है। पापा ने तय कर लिया है और वह घर बनाने जाने वाले हैं। कुछ दिनों के बाद जब घर बन जाएगा, तब मम्मी जाएगी। सब कुछ तय हो गया और मुझे कुछ भी पता नहीं! मुझे गुस्सा भी आ रहा था और दुख भी हो रहा था। उन्होंने मुझे बताने की ज़रूरत भी नहीं समझी। जबकि आज तक कोई काम उन्होंने मुझसे पूछे बगैर नहीं किया था। घर का एक काँच भी बदलवाना होता था, तब वह मुझसे ज़रूर कहते थे। और इतना बड़ा फैसला उन्होंने मुझे बगैर बताए कर लिया था। मुझे बहुत अंदर तक तकलीफ़ हुई। बात तकलीफ़ की थी ही।

आजकल वह स्कूटर को भी नहीं छूते थे, जबकि पहले उसे हमेशा पोंछते-घिसते रहते थे। कहीं नहीं भी जाना हो तो स्टार्ट ज़रूर करते थे। मैंने देखा कि स्कूटर पर धूल जमी थी। उन्होंने शायद उसे बहुत दिनों से छुआ नहीं था। वह एक कोने में अकेले चुपचाप पड़े होते थे। मुझे तो अकसर वह नज़र ही नहीं आते थे। वह घर में होकर भी जैसे घर में नहीं होते थे। आखिर बात तो ज़रूर कुछ थी।

मैं उनके पास गया। वह बाहर बरामदे एक कुर्सी पर बैठे थे। मुझे देखकर वह थोड़े-से विचलित हुए।
“पापा आप गाँव जाने वाले हैं?” मैंने उनसे पूछा।
“हाँ, सोच रहा हूँ, गाँव ही चला जाऊँ। यहाँ मन नहीं लगता।” उन्होंने मुझसे कहा। वह थोड़े-से उखड़े हुए थे।
“पापा आपने मुझे बताया नहीं?” मैंने उनसे शिकायत की।
“मैं तुम्हें बताने ही वाला था। वैसे भी तुम घर पर हमेशा रहते नहीं हो, तो मैंने सोचा था, इस बारे में तुमसे बात करूँगा। वैसे भी गाँव जाना ज़रूरी है। हमारी जो भी थोड़ी-बहुत ज़मीन है, वह पूर्वजों की निशानी है, उसकी हिफाज़त करना भी ज़रूरी है। हम दूसरे के हाथों में उसे कब तक छोड़ेंगे।”

उन्होंने कोई नयी बात नहीं कही थी, लेकिन उनका कहने का अंदाज़ नया ज़रूर था। पहली बार वह मुझसे इतनी गंभीरता से बात कर रहे थे। हमारा बाप-बेटे का संबंध पहले वाला नहीं था।
“पापा आपने अचानक से ऐसा प्लान क्यों बना लिया?” मैं कारण जानना चाहता था।
“आकाश बेटा समझा करो! गाँव जाना ज़रूरी है। मैंने बहुत पहले ही सोचा था, जब रिटायर हो जाऊँगा, तब गाँव चला जाऊँगा। यह मैंने बहुत पहले फैसला किया था, जब तुम आए भी नहीं थे।”
“लेकिन आपने इसका जिक्र हमसे कभी किया ही नहीं। कभी तो आप हमसे कहते कि मैं फिर से गाँव में बस जाऊँगा। आप वहाँ जाकर करेंगे भी क्या? आपसे खेती तो होगी नहीं। सबसे बड़ी बात आप रहेंगे कहाँ, आप खाएँगे क्या, आपकी देखभाल कौन करेगा? आपने यह सोचा कैसे?” मेरे पास उनसे पूछने के लिए बहुत से बुनियादी सवाल थे, जिनको वह टाल नहीं सकते थे। लेकिन उत्तर देने का उनका अपना एक तरीका था।
उन्होंने कहा, “सब हो जाएगा। आदमी जब रहने लगता है तो सब बंदोबस्त हो जाता है। धीरे-धीरे सब हो जाएगा। टूटे हुए गोदाम को मरम्मत कराकर रहने लायक बना लूँगा, उसमें खर्चा भी ज्यादा नहीं आएगा। बाकी सब कुछ तो वहाँ है ही। वहाँ कौन नहीं है, भाई-भतीजा सब तो वहीं है।”

उनकी बातें व्यवाहारिक सूझ-बूझ से परे थी। मेरे लिए तो यह बहुत आश्चर्यजनक था। जो आदमी ज़िंदगी भर व्यवाहारिकता की वकालत करता रहा हो, वह बुढ़ापे में आकर इस तरह की बात करेगा, यह मेरे समझ से परे था। कुछ भी हो दुनियावी ज्ञान मैंने उनसे ही सीखा था।
“बात क्या है पापा! आप मुझे साफ-साफ समझाइए?” मैंने हर बात को परे हटाकर सीधे शब्दों में यह सवाल पूछ लिया।
वह मेरा मुँह देखने लगे। उन्हें कोई जवाब देते नहीं बन पा रहा था।
“कोई बात नहीं है, कोई बात ही नहीं है।” उन्होंने ज़ोर देकर कहा और उठ खड़े हुए। यही उनका अंतिम जवाब था।

आगे हमारी कोई बात नहीं हुई।

मायूसी मेरे अंदर घर कर गई। मुझे लगा कि मैं कितना अकेला हो गया हूँ। पहले मेरा भरा-पूरा परिवार था, मेरे मम्मी-पापा थे, मेरी पत्नी और बच्चे थे। अब मैं अधूरा हो गया था। कुछ तो था, जो मुझे परेशान कर रहा था। एक अनजाना डर भी मेरे ऊपर हावी हो गया। अब तक मैं एक लापरवाह किस्म का ही इंसान था। अब तक मैंने कुछ भी गंभीरता से नहीं सोचा था। लेकिन अब लापरवाही से मुझे डर लगने लगा था। कहीं किसी काम में व्यस्त होता, अचानक से मुझे पापा की याद आ जाती और उस पल में एक अजीब प्रकार का भय मुझमें समा जाता था, जैसे कि अभी-अभी मैं किसी कार के नीचे दबने से बचा हूँ। अचानक से ज़िंदगी की एक दूसरी राह पर मैं अपने को खड़ा पाता था। मैं अनजाने ही पापा के बारे में सोचने लगता था।

मेरे पापा! ... पहले मैंने उनके बारे में सोचा ही नहीं था। कितने कमाल के इंसान हैं वो! उनके बगैर तो मेरी ज़िंदगी अधूरी ही रहती! कल अगर वे मेरी ज़िंदगी में नहीं होंगे तो मेरा क्या होगा? मैं कैसे क्या करूँगा? मैंने अकेले आज तक किया ही क्या है? … फिर मुझे सब कुछ याद आने लगा। कैसे मैंने चलना सीखा। कैसे मैं उनकी ऊँगली पकड़ कर बड़ा हुआ। वह मेरे लिए क्या हैं! … आजतक मैंने सोचा ही नहीं था! अगर आज मेरे अंदर कोई बहुत प्यारा-सा इंसान बसता है तो वह मेरे पापा की वजह से। उन्होंने मेरे अंदर एक प्यारे इंसान को विकसित किया।

उनके उसूलों को अगर मैं अपनी ज़िंदगी से निकाल दूँ तो मेरे पास बचता क्या है? उन्होंने मुझे सच बोलना सिखाया। ईमानदारी का पाठ मैंने अपने पापा से सीखा। अपना काम खुद करना, अपने पास जितना हो उसमें खुश रहना। … बहुत छोटी-छोटी पर बहुत महत्वपूर्ण चीज़ मैंने अपने पापा से सीखी। उनका जीवन मेरे सामने एक उदाहरण था। और ऐसे ही सोचते-सोचते मुझे कुछ सूत्र हाथ लग गया। मुझे कुछ ऐसा हाथ लगा जिससे मैं उलझी गुत्थी सुलझा सकता था। पापा और उनका स्कूटर। मुझे लगा कि मैंने कुछ भारी ग़लती की है।

मुझे वह दिन याद आया जब पापा ने स्कूटर खरीदा था। तब मैं उतना भी छोटा नहीं था कि मुझे उसकी याद न हो। हमारे घर जश्न का माहौल था। कई दिनों तक हमारे यहाँ एक छोटा-सा मेला लगा रहा था। शर्मा जी ने स्कूटर खरीदा है। और उसे देखने के लिए मुहल्ले भर से लोग आते थे। आज़ तो लोग हेलीकॉप्टर भी अपने छत पर उतार ले तो लोग पूछने न जाए। लेकिन उस समय मुहल्ले भर से लोग पापा का स्कूटर देखने आए थे।

स्कूटर में पापा का आधा जीवन बसता था। लोग ताश खेलते हैं, बैठकर गप्पे हाँकते हैं, लेकिन पापा तो अपने स्कूटर में ही लगे रहते थे। उसे धोते रहते थे, उसे पोंछते रहते थे। शाम को ऑफिस से आने के बाद, थोड़ा-सा सुस्ता कर पापा स्कूटर की सेवा में लग जाते थे। हल्की-सी खरोंच भी कहीं लगी हो तो उन्हें पता चल जाता था। जब वह मेकेनिक के पास अपना स्कूटर ले जाते थे तो वह स्कूटर के साथ ही वापिस आते थे, चाहे सुबह से शाम क्यों न हो जाए। वह भूखे पेट दिन भर मेकेनिक के गैराज में डटे रहते थे। घर आने पर मम्मी उन्हें लंबी डांट पिलाती थी और वह छोटे बच्चे की तरह पी भी लेते थे! जैसे कोई अपने बहुत चाहने वाला का बहुत खास खयाल रखता है और उसे अकेला नहीं छोड़ता है, खासकर विपत्ति के समय में, वैसे ही पापा अपने स्कूटर का खयाल रखते थे।

कुछ ही दिनों में उन्हें स्कूटर ठीक करना आ गया। उन्हें मेकेनिक के यहाँ जाने की ज़रूरत नहीं रह गई। इससे मुहल्ले के कुछ लोगों को भी सहुलियत मिलने लगी। क्योंकि अब बिना पैसे खर्च किए ही उनका स्कूटर बन जाया करता था। ज्यादा-से-ज्यादा खुश होकर लोग पापा को चाय पिला देते थे। मुझे याद आता है कि पापा ने कभी किसी का स्कूटर ठीके करने के लिए ना नहीं किया था। वह दूसरों के काम के लिए हमेशा हाजिर होते थे। पापा के पास स्कूटर ठीक करने का सारा तामझाम था। यहाँ तक कि टायर में हवा भरने के लिए उनके पास पंप भी था। वह दूसरे के स्कूटरों में भी हवा भर दिया करते थे। टायर भी तो रोज़ पंचर नहीं होता था। मेकेनिक ज्यादा दूर नहीं था। लेकिन मेरे पापा तो पापा थे।

जब मैं कभी स्कूटर ले जाता था तो यह कहना नहीं भूलते थे कि ठीक से चलाना। अगर हल्की-सी भी खरोंच लग जाए तो स्कूटर को कम उनको ज्यादा तकलीफ़ होती थी। यह भी सही है कि उनका स्कूटर हमेशा जवान रहा। उसे कब का बूढ़ा हो जाना चाहिए था, लेकिन उनका स्कूटर जवान ही रहा। पापा का स्कूटर पापा को बहुत प्यारा था। और उनका यह प्यार तमाम उम्र रहा। यहाँ तक कि मम्मी को इससे जलन होती थी और मौका आने पर वह ताना मारने से भी नहीं चूकती थी। लेकिन पापा कुछ भी नहीं कहते थे, सब कुछ चुपचाप सुन लेते थे। इस तरह मम्मी को पापा से कुछ कहने का जरिया मिल गया था। कोई और जरिया था ही नहीं, जिससे मम्मी पापा को कुछ कह सकती। बेचारे बहुत भोले इंसान थे, बहुत ही शरीफ, सीधे-सादे। जो समय का पाबंद रखता हो और अपने काम से मतलब रखता हो। शिकायत का कोई मौका मम्मी को देते ही नहीं थे। मम्मी अकसर कहती थी, तुम्हारे पापा बहुत भोले हैं और जब वह ऐसा कहती थी तो उनकी आँखों में गर्व होता था और पापा के लिए ढेर सारा प्यार।

अब मैं पापा को समझने की कोशिश कर रहा था। मैं उनके मन के अंदर घुसकर तो नहीं जान सकता था। हाँ, मैंने तीस साल उनके साथ गुज़ारे थे। उनका बहुत कुछ तो मुझमें होना ही चाहिए। उनका खून तो मेरे अंदर है ही। लेकिन उन्हें जानने के लिए कोई तरकीब तो चाहिए ही। वह जो करने जा रहे थे, वह मेरे समझ से परे था और मैं वही समझने की कोशिश कर रहा था।

‘जैसा उन्होंने कहा था कि वह रिटायर होने के बाद गाँव बसना चाहते थे और उन्होंने यह फैसला मेरे पैदा होने से पहले किया था। उस समय उनके मन में कुछ रहा होगा, तभी तो उन्होंने ऐसा सोचा था। बाद में उनकी सोच बदल गई। क्योंकि हम पैदा हो गए। हमसे लगाव इतना बढ़ गया कि अपनी पुरानी सोच की ओर ध्यान देना छोड़ दिया।
‘फिर से इतने दिनों बाद यह उनके मन में हावी हो गया। वह अकेले बैठे अकसर उसके बारे में सोचते रहते हैं। वह बहुत व्यावहारिक आदमी है। वह बहुत छोटी-छोटी चीज़ों का खयाल रखते हैं। जब मैं सफर पर जाता हूँ तब मुझे याद दिलाते रहते हैं कि मैंने तौलिया रखा या नहीं, मैंने टिफीन रखा कि नहीं, मैंने पानी की बोतल लिया कि नहीं। रखकर खाने के लिए अखबार रखा कि नहीं। … बहुत छोटी-छोटी चीज़ों का ध्यान रखते हैं। उसी आदमी ने जब बुढ़ापे में वनवास में जिन्दगी गुजारने का फैसला किया हो तो व्यावहारिक पक्ष को तो नज़रअंदाज नहीं कर सकता।
‘जो आदमी चालीस साल तक गाँव से बाहर रहा हो, फिर वह गाँव में बसने के बारे में क्यों सोचेगा, वह भी अपने बाल-बच्चे को छोड़कर? वह खुद कहते थे कि वहाँ की स्थिति अच्छी नहीं है, उन्हें देखकर लोगों को खुशी नहीं होती। वे चाहते हैं कि हम अपने हिस्से की ज़मीन बेच दें। लेकिन पापा की ज़िद है, चाहे जो हो, बाप-दादा की संपत्ति को नहीं बेचेंगे, बाद में चाहे जो हो जाए। संपत्ति बचाने का खयाल तो उनके मन नहीं रहा होगा, जब उन्होंने यह फैसला लिया होगा। अगर ऐसी बात होती तो, वह मुझसे ज़रूर कहते …………।’

इसे समझने में मुझे देर ज़रूर हुई, लेकिन इतना मैं समझ गया कि उन्हें दिल पर चोट लगी थी। और उसके लिए मैं ज़िम्मेदार था, इसे मैंने गहरे तक महसूस किया। एक तरह से यह मेरी आंतरिक यात्रा थी। मैं अपने-ही-अपने में हर चीज़ को समझने की कोशिश कर रहा था। जब पापा मुझसे दूर जाने की कोशिश कर रहे थे, मैं उनके पास आने की कोशिश कर रहा था। मैं इतना तो जान ही गया था कि मैं उन्हें बहुत प्यार करता हूँ।

अब मैं बहाने बनाकर उनके करीब जाने की कोशिश करता। जब दूरी बढ़ जाती है, तब अंदर कहीं नज़दीकी भी बढ़ जाती है। हम पहले से अधिक कोशिश करने लगते हैं और ऐसा करने से चीज़े असहज हो जाती है। हम दोनों ही कुछ अधिक ही कोशिश कर रहे थे, जिस कारण से हम अपनी बात कह नहीं पाते थे।

वे कुछ ही दिनों में कुछ ज्यादा ही बूढ़े हो गए थे। एक अलग तरह की उदासी उनकी आँखों में समाई रहती थी। पहले की तरह अब उनके अंदर कुछ भी नहीं था। पहले की तरह अब वह कुछ करते भी नहीं थे। अकेले चुपचाप बैठे रहते थे। जबकि पहले वह कुछ-न-कुछ करते रहते थे। बाहर की खिड़की साफ करते थे, बरामदे पर झाड़ू लगा देते थे। किसी पुरानी पड़ी मशीन को झाड़-पोंछकर उसमें तेल डाल देते थे। घर के पंखें-कूलर वह खुद ही बना लेते थे। पहले मेरा एक साल का बेटा उन्हीं के आगे-पीछे घूमता रहता था। लेकिन अब तो जैसे वह मोह त्याग चुके थे।

मैं हरदम सोचता रहता था कि उनसे कहूँ कि वह गाँव न जाए, लेकिन मैं अपने अंदर इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता था। मम्मी का तो बुरा हाल था। बेचारी न इधर की थी न उधर की। उनको पति भी प्यारा था और बेटा भी। मैं जब भी इस विषय पर मम्मी से बात करना चाहता, वह यह कहकर टाल जाती कि मुझे पापा से पूछना चाहिए। वनवास तो उनको भी पसंद नहीं रहा होगा, लेकिन वह यह कैसे कहती। क्योंकि अगर पापा को पता चल जाता कि मम्मी जाना नहीं चाहती तो चाहे ज़मीन-आसमान इधर-से-उधर हो जाता, वह मम्मी को अपने साथ कभी नहीं ले जाते। मम्मी यह अच्छी तरह जानती थी, इसलिए उन्होंने चुप्पी साध रखी थी।

हम सब लोग पता नहीं क्यों इस विषय पर बात करने से कतराते थे। मैं अपनी पत्नी से कुछ नहीं कह पाता था, न ही वह कुछ कह पाती थी। हम सभी इस विषय पर सोचते थे पर एक-दूसरे से कहे कैसे, यही हम समझ नहीं पाते थे। मैं यह भी देख रहा था कि मेरी पत्नी भी मेरी तरह महसूस कर रही थी और सचमुच वह नहीं चाहती थी कि मम्मी-पापा यहाँ से जाएं। पापा तो उसे बेहद पसंद थे, उसके नज़र में मम्मी भी बुरी नहीं थी, लेकिन पापा की बात ही कुछ और थी। पापा थे ही ऐसे!

पापा का जाना तय था। वह सारी तैयारी कर चुके थे। वह टिकट बनवा चुके थे। जैसे-जैसे उनके जाने का दिन नज़दीक आ रहा था, हम सब के मन की व्यथा गहराती जा रही थी। जब भी मैं पापा के पास जाता था, वह चौंक जाते थे। मैं जानता था वह कुछ सोचते रहते थे। वह उलझे रहते थे यह तो मैं समझ ही रहा था। मैं यह भी समझ रहा था कि यह उलझन उन्हें चिंता में धकेल रही थी। लेकिन वह किसी से कुछ भी कहने के लिए तैयार नहीं थे। आहट पाते ही वह हड़बड़ा कर सचेत हो जाते और सब कुछ अपने मन की ओट में छिपा लेते थे। उनसे कुछ भी कहना अब आसान नहीं रह गया था। उन्होंने अपने आगे एक दीवार खड़ी कर ली थी। वह जो कुछ भी सोच रहे थे, वह उन्हीं तक सीमित था।

आखिरकार वह दिन आ गया जिस दिन उन्हें जाना था। सब लोग बुझे हुए मन से उनके जाने की तैयारी कर रहे थे। मैं भी उस दिन घर पर ही था। पहली बार मैं पापा का सामान पैक कर रहा था। मैंने हर एक चीज़ का खास खयाल रखा था, जैसे वह मेरा रखते थे। बाज़ार से उनके लिए सब कुछ नया-नया ले आया था। तौलिया, ब्रश, कंघी, बनियान, धोती जिसे वह घर में पहनते थे। उनके नास्ते के लिए वह भुजिया जो उन्हें बेहद पसंद था, चाय पीते वक्त वह ज़रूर खाते थे। वगैरह, वगैरह।

ट्रेन शाम को थी। पता नहीं क्यों, मैं बहुत थक गया था। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। दिल के अंदर कहीं कोई बोझ-सा था। बहुत गहरे तक मुझे पीड़ा हो रही थी। कुछ भी सोचने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। बस एक ही उपाय था कि मैं सब कुछ सहूँ।

ट्रेन शाम को सात बजकर पैंतीस मिनट पर थी, लेकिन पापा तीन बजे से ही हल्ला मचाने लगे। वे हमेशा ऐसा ही करते हैं। घर से जल्दी निकल जाते हैं और दो घंटे तक प्लेटफॉर्म पर बैठकर ट्रेन के आने का इंतजार करते हैं। आखिर हमें चार बजे निकलना ही पड़ा। निकलते समय उन्होंने घर में सबको बड़े शांति से आशीर्वाद दिया। मैं कार ड्राइव कर रहा था, पापा मेरे बगल में बैठे थे। हम पूरे रास्ते चुप रहे। साढ़े पाँच बजे हम स्टेशन पर पहुँच चुके थे। जब हम प्लेटफॉर्म पर पहुँचे, ट्रेन लगी हुई थी।

हम अपनी जगह पर जाकर बैठ गए। अभी इक्के-दुक्के ही लोग आए थे। मैं उनके बगल में चुपचाप बैठ गया। उस समय मेरे मन में क्या चल रहा था, इसका मुझे अंदाज़ा नहीं है। आप यकीन नहीं मानेंगे, हम दोनों एक घंटे तक चुपचाप बैठे रहे। धीरे-धीरे लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी थी। पता नहीं इसी बीच मुझे क्या हुआ, मैंने पापा से कहा, “पापा आप मत जाइए!” मैं पूरे यकीन से कहता हूँ, मैंने इसके बारे में सोचा नहीं था। वह मेरा चेहरा देखने लगे, उनके अंदर कुछ हलचल हुई, ऐसा मुझे लगा। लेकिन दूसरे ही पल वह सोच में पड़ गए और उन्होंने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

कोई दस मिनट बाद मैंने फिर से यही बात दोहरायी। पापा कुछ देर सोचते रहे, मैं लगातार उनका चेहरा देख रहा था। वह कुछ बोलना चाह रहे थे, पर बोल नहीं पा रहे थे। मैंने कहा, “पापा क्या सोच रहे हैं मत जाइए!” मैं उनसे याचना कर रहा था। उन्होंने बहुत हिम्मत जुटा कर कहा, “अब तो देर हो गई है, तुम्हें पहले कहना चाहिए था!” बहुत उदास होकर उन्होंने ऐसा कहा था। जैसे उनके अंदर कोई उम्मीद थी, लेकिन वह टूट गई थी, कुछ इस तरीके से उनके कहने का अंदाज था।

कोई दस मिनट और गुज़र गये। ट्रेन में सब लोग आ चुके थे। सभी कुछ-न-कुछ बोल रहे थे। पर मेरा ध्यान ट्रेन के अंदर हो रही हलचल की ओर था ही नहीं। मैं जैसे उन हलचलों से बहुत दूर था। पापा का भी कुछ वही हाल था। कहीं कुछ बहुत तेज़ी से घटित हो रहा था। ट्रेन खुलने में पाँच मिनट बचे थे। पर मैं अपनी जगह बैठा था। पापा भी मुझसे नहीं कह रहे थे कि मैं उतर जाऊँ, जबकि वह पन्द्रह मिनट पहले मुझे ट्रेन से उतार देते थे।

आखिरकार ट्रेन की सीटी बजी। मैंने पापा से कहा, “पापा क्या सोच रहे हैं, चलिए! ट्रेन चल चुकी है!” सचमुच ट्रेन चल चुकी थी। वह उठ खड़े हुए और मुझसे बोले चलो। हमने सामान निकालना शुरू किया। हमारे पास तीन बड़े-बड़े बैग थे। एक बैग पापा के हाथ में था और दो मेरे हाथ में। पापा आगे-आगे चल रहे थे मैं पीछे-पीछे। बीच कंपार्टमेंट से जगह बनाते-बनाते हम गेट तक पहुँचे। ट्रेन तेज़ हो चुकी थी। हमने तीनों बैग फेंक दिये। मैं सोच रहा था कि पापा उतरेंगे कैसे। वैसे ही वे कहते हैं कि पहले तुम उतरो। बहस करने का समय बिल्कुल नहीं था। मैं उतर गया। ट्रेन प्लेटफॉर्म के अंतिम सिरे पर पहुंच चुकी थी। मैं होश संभाल कर खड़े होकर लंबी-लंबी साँस ले ही रहा था कि पापा मेरे पास चलकर आए। मैं उन्हें उतरते देख नहीं पाया था। “तुम्हें चोट तो नहीं लगी? तुम उतरने के बाद दो-चार कदम और चले होते तो तुम नहीं गिरते।” कहकर पापा मेरे पैंट पर लगे धुल को झाड़ने लगे।

उनका चश्मा टूट गया था, जो कि बैग में रखा हुआ था। वह बैग में पड़ी चीज़ों का मुआइना कर रहे थे, जबकि मैं कार ड्राइव कर रहा था। हम लगातार बतियाते जा रहे थे। वह मुझे समझा रहे थे, मुझे बैग कैसे फेंकना चाहिए था, उतरते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, कार चलाते समय पीछे मुड़कर नहीं देखूँ। फिर हम ट्रेन में बैठे लोगों के बारे में बात करने लगे। इसी तरह हम बात करते-करते घर पहुँच गए। यह याद रहा ही नहीं कि कुछ देर पहले पापा हम सबसे दूर जा रहे थे।

घर पहुँचते ही मैं शुरू हो गया। पुरानी बातें सब लोग भूल गए, जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं था। पापा मम्मी से बता रहे थे कि उतरने में मैंने क्या ग़लती की थी। मेरी पत्नी ने एकांत में मुझसे पूछा, मैंने उसे बता दिया पापा नहीं जाएंगे, सुनकर वह इतनी खुश हुई कि मैं बता नहीं सकता! सब कुछ पहले जैसा हो गया! सब लोग खुश थे!

एक दिन पापा मुझसे पूछ रहे थे कि मैंने स्कूटर कितने में बेचा था? मैंने उन्हें बताया, ढाई हजार में। उन्होंने उसे कितने में खरीदा था, उसकी कहानी मुझसे कहने लगे।
पहले तो उन्हें पता करने में पापड़ बेलना पड़ा कि मैंने किसे बेचा था। घर में किसी को पता नहीं था। वह मुझसे पूछ नहीं सकते थे। मैंने जाते हुए सिर्फ कबाड़ी कहा था। वे सभी कबाड़ी वालों के पास जा-जाकर पूछते रहे। तब एक कबाड़ी वाले ने स्वीकारा, लेकिन वह उस स्कूटर को किसी और के हाथ बेच चुका था। फिर उन्हें उस खरीददार के बारे में पता लगाना पड़ा, जिसमें उन्हें पूरे दो दिन लग गए, क्योंकि कबाड़ी वाला उसे जानता नहीं था। उसके साथ में एक आदमी था, उस आदमी के बारे में उस कबाड़ी वाले को पता था। जब वह उस आदमी के पास गए, वह एक दलाल निकला। उसे भी पता नहीं था उस आदमी के बारे में। लेकिन संयोग से जब वह आदमी उससे मिलने आया था, तब उसने किसी का नाम लिया था। पापा उस नाम वाले आदमी के पास गए, फिर वह याद करता रहा, शुक्र था कि उसे याद आ गया और वह आदमी पापा को मिल गया, जिसने स्कूटर खरीदा था।

उसने चार हजार में उसे खरीदा था। लेकिन वह स्कूटर बेचने के लिए तैयार नहीं था। पापा उसे मनाते रहे, उसके सामने गिरगिराते रहे, तब जाकर वह आदमी पिघला क्योंकि पापा हजार रूपया बढ़ाकर उसे दे रहे थे!

मैंने पापा से पूछा, “आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?” उन्होंने कहा, तब मैं नाराज़ हो जाता, इसलिए तब नहीं बताया। उन्होंने यह कहानी मुझे तब सुनाई थी, जब मैंने उनके स्कूटर पर बैठना शुरू कर दिया था।

…… मैं स्टेशन आया हूँ, पापा को लेने, वे आज गाँव से आ रहे हैं।

पता नहीं कैसे, पर पापा से मेरी दोस्ती हो गई है। उनके साथ कुछ समय गुज़ारना मुझे अच्छा लगता है। मैं उनके स्कूटर पर बैठने लगा हूँ, मैं उनका स्कूटर चलाने लगा हूँ। मैं पापा से कहता हूँ, “पापा मैं दो मिनट में आया।” और उनका स्कूटर लेकर मैं आस-पास घूम आता हूँ, कभी मंडी से सब्जी ले आता हूँ, कभी बाज़ार से हो आता हूँ। उनको अच्छा लगता है, जब मैं उनका स्कूटर चलाता हूँ। कभी आकर मैं कहता हूँ कि स्कूटर की आवाज़ बढ़ गई है तो मुझसे स्टार्ट करने को कहते हैं। जब मैं स्टार्ट करता हूँ, तब वह आवाज़ को ध्यान लगाकर सुनते हैं। उन्हें पता चल जाता कि बीमारी क्या है। फिर वह मुझसे सामान लाने को कहते। जब मैं सामान लाता हूँ, वह मुझसे स्कूटर खोलने को कहते हैं। और इस तरह मैंने भी थोड़ी-बहुत स्कूटर रिपेयर करना सीख लिया है।

स्कूटर के साथ उनकी उम्र थोड़ी-सी घट जाती है। उनमें जोश और उत्साह भर जाता है। वह अब भी स्कूटर चला लेते हैं, लेकिन अब उन्हें मेरे पीछे बैठना ज्यादा पसंद है। वह मेरे साथ कार के बजाए स्कूटर पर बैठना ज्यादा पसंद करते हैं। पता नहीं क्यों, मुझे भी स्कूटर चलाना अच्छा लगने लगा है। 
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बुधवार, 15 जुलाई 2015

अगर तुम खो गए - नवीन कुमार 'नीरज'

नवीन कुमार 'नीरज' की यह कविता 'अगर तुम खो गए ' एक कलाकार, एक कवि के उस डर को सामने लाता है जो दिखता नहीं है पर हर समय उसके साथ साये की तरह चलता रहता है और कवि उससे डर से परिचित भी है। ये डर उसको हार से डराता है। ये डर उसको आँधी में उड़ा देगा ऐसा कुछ कहता है। उसे लगता है कि उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा और जो है वो कहीं बह जाएगा; खत्म हो जाएगा। ये बात बस यहीं आकर रुकती नहीं है बल्कि आगे जाना चाहती है और यही बात शायद कवि को डरा रही है। इसलिए वह चेताता चलता है उस डर से जो शायद उसके अन्दर है; उसी में है या फिर कहें खुद से है।

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अगर तुम खो गए
दरिया मे तिनके की तरह हो गए…
मत पूछो क्या हाल होगा तुम्हारा
आँधी में उड़ते सूखे पत्ते की तरह हो जाओगे
बिना ज़िंदगी जिए ही मुरझा जाओगे
चाहे जितना जतन करोगे
खुद को नहीं ढूँढ़ पाओगे
बाढ़ का पानी की तरह बह जाओगे
तुम बसे घर को डूबा दोगे
खुशहाल ज़िंदगी को बहा दोगे
कुछ हाथ नहीं आएगा तुम्हारे
रेत को मुठ्ठी में बंद करते रह जाओगे


रात होने वाली है
तुम इस तरह सो मत जाना
सपनों में इस तरह खो मत जाना
कि दिन में बिना साकी के जाम छलकाते चलो
अपना साया को भूत समझ कर डरो

यही हाल रहा तुम्हारा तो
रात आँखों में कटेगी
दिन में तारे नज़र आएंगे
तुम सच्चाई से घबराओगे
अपने मन में, भूतों का शहर बसाओगे
तुम रोओगे, तुम चिल्लाओगे
पर अपनों से आँख नहीं मिला पाओगे
झूठे अफसाने से मन का बगिया बसाओगे
और अपनी तकदीर से आँख चुराओगे
……और एक दिन तुम हार जाओगे!
---------------नवीन कुमार 'नीरज'

बुधवार, 1 जुलाई 2015

प्रेत की विडंबना और मुक्ति का सवाल - नवीन कुमार नीरज

(संजीव की कहानी ‘प्रेत-मुक्ति’ का संदर्भ)
संजीव की कहानी ‘प्रेत-मुक्ति’ में जगेसर अपनी ज़िंदगी के दबाव के नीचे ही दबता चला गया। किसी तरह मुखिया के चुंगल से भागकर निकला तो सत्तो के चुंगल में फँस गया। सत्तो रानी के चुंगल से निकलने की भी उसने बहुत कोशिश की, पर निकल नहीं पाया और बार-बार उसके ही शरण में उसे जाना पड़ा। गाँव में मुखिया और शहर में सत्तो रानी; इन दोनों का निरंकुश राज कायम है। यह कहानी किसी एक जगेसर की नहीं है। न जाने कितने जगेसर की यह कहानी है --- जो किसी मुखिया के चंगुल से निकलना भी चाहे तो उसे सत्तो के चंगुल में फँसना ही पड़ता है। जगेसर जैसा व्यक्ति जो निरीह है बूधन भाई के शब्दों में, “जगेसर को तो अव्वल जनमना ही नहीं चाहिए था, अगर जनमना ही था तो मानुष जोनि में नहीं। मानुष हो के जनम लिया भी तो किसी बड़का सेठ, महाजन, जिमींदार या लीडर-ऊडर यानी पैसे वाले के घर जनमता, पैसा वाला नहीं ही हुआ तो पैसा पैदा करने का कोई हुनर आना चाहिए था। अरे, मरद जैसा मरद होता, गुंडा या डकैत ही बनता! अगर यह सब नहीं हुआ तो सुघड़, चिक्कन बहुरिया काहे को मिली? खिलाता क्या अपना कपार?” बूधन भाई के द्वारा जगेसर जैसे लोगों पर सटीक टिप्पणी है। इसलिए नहीं कि बूधन भाई जगेसर जैसे लोगों को जंगल-झाड़ समझ रहे हैं, बल्कि इस समाज में ज़िंदगी जीने के लिए जिस चुनौती से गुज़रना पड़ता है, उसमें उसका अक्षम होने पर उसके पक्ष में ही बोल रहे हैं। जहाँ इतने भेड़िए हो वहाँ भेड़ की जान साँसत में अटकी ही रहती है।
ऊपर से उसे सुंदर पत्नी जो मिली थी। ‘बनमानुष जगेसर के साथ मानुख कनिया!’ गरीब और निरीह के घर में सुंदर बेटी-बहू हो तो उनकी जान में धुकधुकी लगी रहती है। इसलिए तो ‘शहर लौटने वक्त जब वह बाप का पांव छूने गया तो उसका बाप आशार्वाद की जगह एक कड़वा सच बोल पड़ा, “जा रहे हो तो कनिया को किसके भरोसे छोड़े जा रहे हो? क्या यहाँ तुम्हारा बाप बैठा है कि…”’ यह बात चलित्तर महतो को इसलिए कहना पड़ा क्योंकि ‘बाप-बेटे के बीच सवाल सिर्फ़ पैसे का ही नहीं था, सवाल इधर मुखिया और उधर सत्तो का भी था। उस आतंक के बिंदु को बिना छुए, उसके इर्द-गिर्द पैंतरे भांजते हुए बाप-बेटे कनिया को एक-दूजे पर ठेल रहे थे।’ छुपा कुछ भी नहीं है, सब जग-जाहिर है, यह बात सभी जानते हैं, लेकिन जुबान पर कोई नहीं लाता। लोलुप कुत्ता लार टपकाता चारों ओर चक्कर लगाया करता है बस उस कुत्ते से बचना होता है लेकिन क्या सभी अपना इज्जत-आबरू बचा पाते हैं? जगेसर चाहते हुए भी नहीं बचा सका। बाप जिस वजह से बहू को बेटे के पास भेज पाया, लेकिन जगेसर इस चालाक दुनिया में अपनी रक्षा नहीं कर पाया। सत्तो ने सेंध लगाना चाहा, वह एक हद तक कामयाब भी हो गई, भले ही फायदा उसे नहीं हुआ मुखिया जी और उनके सुपुत्र सुरेन्द्रजी को तो इसका फायदा हुआ ही। अचरज तो यह है कि ऊपर से हम संस्कार की बातें करते हैं, भाव में बहकर मानवता की बातें करते हैं। लेकिन हम इतने ही मानवीय हैं, तो मुखिया या सत्तो जैसे जोंक इतने शक्तिशाली क्यों हैं, सारी शक्तियाँ उनका मुँह क्यों जोहती है?
आखिर इन सबके बीच जगेसर जैसे लोग अपना बचाव कैसे करे? जगेसर अपना बचाव नहीं कर पाया। अपने परिवार के लिए वह दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाया। जगेसर जैसे व्यक्ति की उस हालत में स्थति क्या होगी? वह अपने बारे में क्या सोचता होगा? वह बूधन भाई जैसा दुनियादार भी नहीं है, जहाँ जरूरत पड़े तो चालाकी से अपना काम निकाल ले, चालाकी काम न आई पर कोशिश तो की ही। इससे जीवन जीने का एहसास बना रहता है। लेकिन जगेसर के लिए इसका भी सहारा नहीं है। बूधन भाई के उकसाने के बाद भी सत्तो का झूमका छीनने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। ‘भैंस की तरह खुर धमकाते सत्तो आकर चली जाती है।’ बूधन भाई उसे खरी-खोटी सुनाते हैं तो वह वह खिसियाई खीस निकाल देता है। वह अपने को कोसते हुए अपने बाप की मर्दानगी का किस्सा बूधन भाई को सुनाता है। मर्द बाप का डरपोक बेटा! और इसी जगह उसके ऊपर बाप का कब्जा हो जाता है। जगेसर पर बाप की सवारी आ गई!
अब इस बात की व्याख्या कैसे हो? किस तरह से इसकी व्याख्या की जाए? ज़िंदगी जीने का संबल उसे मिल गया या उसे और भी हाशिए पर भेज दिया गया? जैसे समाज उसे हाशिए पर भेजता रहा, उसके बाप का प्रेत भी उसे हाशिए पर भेज कर उस पर अधिकार कर लिया? इसमें एक तथ्य दिलचस्प है कि उसके बाप की सवारी तभी आती है जब वह अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में वह खुद को अक्षम पाता है। वह अपने को दुत्कारता रहता है। वह लाख अपने को सजा दे ले लेकिन उसके गुनाह के लिए पर्याप्त नहीं होता। ‘चने फांक-फांककर, माड़ पी-पीकर वह दिन काटता है। बीमारियाँ आती है, बिना दवा-दारू के, प्रतिरोध के निचोड़कर चली जाती है। जगेसर फिर टहलने लगता है अपनी हाफ़ पैंट और क़मीज़ पहनकर। मौसम बदलते, लेकिन जगेसर के लिए दुनिया जस की तस पड़ी रहती। जगेसर ने एक सिद्धांत बना लिया था कि पूरी कमाई तो पूरा खाना, कमाई नहीं तो खाना नहीं। शो-केस में सजी मिठाइयाँ, झूलते कपड़े, फलों का अंबार ललचा-ललचाकर हार गए, हार गई ललचा-ललचाकर सत्तो की लड़कियां --- लैला, माला, रानी, डॉली।’ यह किसी संन्यासी से कम त्याग तो नहीं है? संन्यासी जो सब कुछ त्याग इसलिए करते हैं कि उन्हें ईश्वर मिले; लेकिन जगेसर को क्या मिला? अस्मिता तो बहुत दूर की बात है, क्या इन सबके बाद भी अपने होने के लिए वह तर्क जुटा पाया? शायद नहीं, वह इसमें भी कामयाब नहीं रहा। इसलिए बाप की सवारी आकर उसकी ओर से तर्क देता है। ठीक वैसे ही जैसे भक्त की विनती पर भगवान आते हैं, उसकी रक्षा के लिए। तभी तो जगेसर के अंदर से काका कहते हैं, “नामरद हैं, सब का सब नामरद! तनिको हिम्मत करबे नहीं करेगा सब! अरे, पटकनिया दे के मार! ऐसे भी तो मरिए रहा है।” जिस छोटे दारोगा उस्मान ख़ा के हड़काने पर जगेसर पैंट में पेशाब कर देता है, जगेसर के अंदर से काका उस उस्मान ख़ा को कह उठते हैं, “ऐ बड़ कानूनी, तू का करता है रे?”
यह थोड़ा अजीब नहीं लगता कि एक ही शरीर में दो लोग रह रहे हैं? एक आदमी खुद ही अपना बाप बन बैठा है? जगेसर खुद को ही अपना बाप समझता है, इस कारण उसके घर वाले को अकथनीय पीड़ा सहनी पड़ती है। अपनी माँ को पत्नी और पत्नी को पुत्रवधू समझता है। मुखिया जी सर्वेक्षण दल के लोगों के पूछने पर कहते है, “तब और का! जनाना को पास फटकने नहीं देता। उसके सामने वह परदा करके रहती है। जरा भी बेअदबी देखी कि फनफना उठता है। देहरी पर पाँव रखेगा तो खाँसकर!” उसकी माँ सर्वेक्षण दल के लोगों से भीगे कंठ से कहती है, “का पूछते हैं, जिस पर भीगती है, वही जानता है। उस दिन हम गोरू के हाँकने के डंडे से उसका कपार फोड़ दिए। तइयों पे दई दहिजार नय पसीजता है। मार खाने के बाद मति फिरी। अपने बड़बड़ाने लगा – ठीक! अब ई उमर में ई गंदा बात ठीक नय है। लड़का बच्चा जवान हो गया है। छी: और अपने गाल पर थप्पड़ मारता रहा।“ सुनकर रस्तोगी साहब, “स्ट्रेंज एंड ऑफुल!” कहकर गहरी सांस लेते हैं! अजीब तो लगेगा ही जब एक व्यक्ति अपनी माँ के साथ पत्नी का अंतरंग जीवन जीना चाहेगा!
सबसे ज्यादा अजीब और आश्चर्यजनक है दोनों व्यक्तित्व का एक-दूसरे से विपरित होना। जितना ही ज्यादा डरपोक जगेसर है, उतना ही ज्यादा साहसी उसका बाप है। जगेसर मेमना है तो उसके अंदर का चलित्तर महतो शेर है! यह भी ध्यान देने की बात है कि गाँव आने के बाद जगेसर पर बाप का ही राज कायम हो जाता है। चलित्तर के आगे जगेसर पीछे धकेल दिया जाता है। इसके पीछे कारण भी है कि गाँव में चुनौती बड़ी है। गाँव में जो कुछ हो रहा है, मुखिया जी और उनका बेटा जो कुछ कर रहा है, उससे टक्कर लेने के लिए चलित्तर महतो की ज़रूरत है। मुखिया वहाँ के पूरे वातावरण को, पूरे जीवन हो प्रभावित कर रहा है उसने बाँध बांधकर पानी रोककर उस इलाके के जीवन को दूभर बना दिया है। इसलिए तो जगेसर के अंदर का चलित्तर महतो आए दिन बाँध काटने की कोशिश में लगा रहता है। रातभर प्रेत की तरह जंगल में चक्कर काटकर जीवन बचाने की कोशिश में लगा रहता है। मरियल बाघ को सर्वेक्षण दल के सामने लाकर खड़ा कर देना इसी का नतीजा तो है। इसलिए तो मार खाने पर भी वह सुरेंद्र को नहीं बताता है कि बाध कहाँ है। यहाँ तक कि डॉक्टर को भी नहीं बताता है क्योंकि उसे डर है कि लोग उस बाघ को मार देंगे।
यह सब कुछ इस सिद्धांत पर काम करता हुआ लगता है कि जब जीवन बचाने की चुनौती हो और कोई व्यक्ति सक्षम न हो तो कोई शक्ति उनकी रक्षा के लिए आ जाती है। उस गाँव के समूचे व्यक्ति को विश्वास है कि चलित्तर महतो प्रेत बनकर मुखिया से बदला लेने आए हैं। यह विश्वास उन असहाय लोगों के जीवन का सहारा है, क्योंकि समूचे गाँव में चलित्तर महतो ही तो एक व्यक्ति था, जो मुखिया को चुनौती देता रहता था। चलित्तर महतो का प्रेत विजयधन देठा की लोक-कथा पर आधारित ‘दुविधा’ कहानी के उस भूत की तरह है, जो शादी करने के बाद अगले ही दिन नई ब्याही पत्नी को छोड़कर धन के लालच में वर्षों के लिए घर से चले गए पति की जगह लेता है। वह भूत लालची बाप को रोज़ पाँच सोने की मोहरे देता है और उस ब्याही पत्नी को बहुत प्यार करता है। उसका उस नई ब्याहता से इतना प्रेम है कि वह यह असलियत भी नहीं छुपाता कि वह भूत है! ‘दुविधा’ कहानी के बहाने इस तरह की लोक-कथा पर गौर करें तो हमें यह सूत्र मिलता कि इस तरह की लोक-कथाओं में ‘भूत’ जैसी चीजें जीवन के लिए संबल जुटाने की ‘कीमिया’ का कार्य करती है। भूत-प्रेत, जादू-टोना, झाड़-फूंक में उन लोगों का ही विश्वास होता है, जो कहीं-न-कहीं अपनी अक्षमता की वजह से मस्तिष्क के बुद्धिगत तर्क जुटा नहीं पाते हैं। जब तक चलित्त्तर महतो थे, जगेसर की गाड़ी किसी तरह चल रही थी। चलित्तर महतो के जाने के बाद उसकी हर कोशिश कम पड़ गई। वह अपनी हर कोशिशों से वह अपने को नकारा ही साबित करता रहा। वह अपने लिए दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता था, जबकि उसके कंधे पर माँ और पत्नी की जिम्मेदारी थी। वह अपनी पत्नी के लिए छुपाकर पैसे जोड़ता है, लेकिन उसका बाप उसका पोल खोलता है। आखिर बाप को इसके लिए हस्तक्षेप क्यों करना पड़ता है? क्योंकि उसमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह इसके लिए अपने को धिक्कार सके कि ‘तुम्हें अपनी पत्नी तो दिखती है, पर माँ नहीं दिखती; लानत है तुम पर!’
जगेसर के अंदर उसके बाप का घुसपैठ इसलिए है कि कम-से-कम जगेसर जी तो सके। जीने का हक़ तो उससे कोई न छीने। न सत्तो रानी, न मुखिया, न मुखिया का बेटा। चरित्तर महतो प्रेत भी तो इसलिए बना क्योंकि उसे ज़िंदा ही बाघ का निवाला बना दिया गया था। वह भी इसलिए कि जिस बाघ के शिकार के पाड़ा को बांधकर रखा गया था, बूढ़े ने उसे खोल दिया था और ऐसा करते हुए वह पकड़ा गया था, इसलिए उस पाड़ा की जगह उसे ही बांध दिया गया। क्योंकि उतनी बड़ी शक्ति से वह बूढ़ा अकेला लड़ रहा था। जो भी यहाँ आता है वही मुखिया का भाई-बंधु बन जाता है। काका ने सबको घूम-घूमकर कहा, “गंगा माय को बाँध रहे हैं मुखिया जी, समसे इलाका का खेती, ढोर-डाँगर, पशु-पाखी-इदमी, तड़प-तड़प के मरेगा, कुछ करो!” पर किसी ने कुछ नहीं किया। इसलिए बूढ़ा प्रेत बनकर अपना वही कार्य कर रहा है। आए दिन बांध काट देता है। बूधन भाई के शब्दों में, “जब तक बुढ़वा हतिया का बदला नहीं लेगा, जाएगा नहीं, डागडर आवे चाहे डागडर का बाप!”
और डॉक्टर साहब उस प्रेत को भगाना चाहते हैं, वह जगेसर का इलाज करना चाहते हैं, जिसका इलाज रांची में भी नहीं हो सका था। काफी खोज-बीन के बाद डॉक्टर साहब का ध्यान यू के के मेडिकल काउंसिल की प्रकाशित उस रपट पर चला जाता है, जिसमें लिखा है --- ‘ऐसे रोगी की चिकित्सा में परिवार, वंश, समाज, भ्रूण के साथ-साथ आर्थिक और स्वस्थ सामाजिक परिवेश भी अनिवार्य है।’ यहाँ डॉक्टर साहब के उस विचार को यहाँ जिक्र करना अप्रासांगिक नहीं होगा, जो वह सोचते हैं --- ‘और मैं देखता रहता इस अर्थनीति और सामाजिक परिवेश को। भिनभिनाती मक्खियों के बीच मूज की झिलंटी खाट पर भिखारियों की तरह लेटे कराहते रोगी, खुनाए बैंडेज और थूक-खँखार पर काँव-काँव करते कौंवों और कुछ ढूँढ़ते कुत्तों को, अस्पताल के बाहर बकरियों और पिग्मीजाति के दयनीय इंसान! कितनी-कितनी दूर से दवा के लिए आते हैं ये और मैं इन्हें क्या देता हूँ? समाज, परिवार, वंश, भ्रूण --- ऊपर से नीचे तक क्षरण की एक प्रक्रिया। एक पूरी जाति ग़ायब हो रही थी। सरकार की चिंता किस दुर्लभ नस्ल के संरक्षण के लिए है? …… मैंने जहाँ-जहाँ इस बात को उठाने की कोशिश की, लोग कुनैन की गोली-सा मुँह बना बैठे, “अमा यार, नौकरी करनी है है तो चुप रहो। सब लूट रहे हैं, तो तुम भी लूटो।” … लगता है, चलित्तर महतो का भूत मेरे सिर पर सवार हो गया है। नस्लें ही खराब होती जा रही हैं। केंचुआ बनता जा रहा देश! कोई प्रतिकार नहीं, कोई प्रतिवाद नहीं। आग की लपटों में घिरे रबर की तरह खुद में सिकुड़ते जाना। हजारों वर्ष पहले आदमी तनकर सीधा खड़ा हुआ था होमोसैपियंस बनकर। क्या फिर उसी के पीछे लौटा जा रहा है आहिस्ता-आहिस्ता…’
वर्तमान अर्थनीति और उसके अनुरूप ढलता सामाजिक परिवेश में जगेसर जैसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। उपर से सरकार का ढुल-मुल रवैया के बीच ऐसे लोगों को कौन बचाएगा! जिनके पास इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वो अगर इनके सुरक्षा का जिम्मा न ले तो इन परिस्थियों में प्रेत को ही आकर जगेसर जैसे लोगों के लिए लड़ना पड़ेगा। यह उस उपेक्षित हाशिए पर जी रहे समुदाय का सवाल है, जिसकी चिंता किसी को नहीं है। जिनके बारे में यह मानकर चला जाता है कि आदमी में उनकी गिनती है ही नहीं। हम आधुनिक युग में, विज्ञान के युग में वैज्ञानिक ढंग से सोचते हैं, बहुत-सी चीज़ों पर आश्चर्य प्रकट करते हैं, बहुत-सी चीज़ों को मानने के लिए तैयार नहीं होते कि इससे हमारे आधुनिक सोच में बट्टा न लग जाए। पर क्या यह सही नहीं है कि हमने अपने दिमाग को बहुत सीमित कर लिया है। यह बात इसलिए नहीं कि किसी प्रेत के पक्ष में दलील दी जा रही है। सवाल महसूसने का है, सिर्फ सोचना काफी नहीं, वाद-विवाद तो बहुत छोटी चीज़ है। सरकार बाघ बचाने के लिए दल को भेजती है कि बूझे-समझे कि बाघ गायब क्यों हो रहे हैं। और वह दल उन लोगों के शरण में पहुँच जाते हैं, जो उस बाघ के विलुप्त होने के लिए ज़िम्मेदार है। जो सुरक्षा करने आए हैं वही उसके क्षरण में हिस्सेदार बन जाते हैं। और उस विलुप्त होती जाति को बचाने में कोई सहयोग करता है तो वह है प्रेत। जगेसर सर्वेक्षण दल के सामने एक मरियल बाघ को सामने कर देता है और उनसे कहता है, “हुज़ूर, अब वो बाघ कहाँ! साले बिलाए हुए जा रहे हैं। देखकर कोई कहेगा कि बाघ का बच्चा है? खाने को तो दूर, पीने का पानी तो है नहीं कहीं। यह तो न जाने कहां से एक दिन पानी की टोह में हमारी कुंइया में गिर पड़ा था। बचाया और पाला तो पोस मान गया। सोचा, बचा लें ताकि ‘नसल’ ही बची रहे। सोचा, देखने आए हैं तो दिखा दें, नहीं तो कहेंगे बाघई नहीं हैं। (और लगे हाथों वह मुखियाजी से कहता है) आप… बेकारे न भटका रहे हैं यहाँ-उहाँ। अपने कुतवों को दिखा दीजिए ले जाकर अब तो वही बाघ हैं।” यहाँ जगेसर चलित्तर महतो के रूप में कितना बड़ा व्यंग करता है!
उन सर्वेक्षण दल के लोगों के लिए ‘दोपहर के भोजन का पूरा शाही इंतज़ाम था, मुखियाजी की ओर से, जंगली मुर्गियों से लेकर बकरे और मछली तक और देशी महुए से लेकर व्हिस्की तक।’ लेकिन इसका इंतजाम किस कीमत पर था? एक ओर पथरीली-पठारी जमीन और बीहड़-से इलाके थे जिसमें आदमी, मकान, मवेशी, फसलें --- सब कुछ दयनीय था। लेकिन दूसरी ओर हवेली की चारदीवारी थी। जर्सी गायों और मुर्रा भैंसों का हुजूम। ट्रैक्टर, थ्रेसर, पत्थर काटकर की जा रही बोरिंग, पुआल का पहाड़, बाग-बगीचें, नौकर-चाकर। मुखियाजी के साम्राज्य में ऊँचे-नीचे पठारी जमीन के हरे-भरे खेत हरी आभा विकीर्ण कर रहे थे। बरसीम, मटर, खेंसारी, गन्ने, अरहर और गेंहूँ की फसलों का वैभव बिखरा पड़ा था। अधिकांश खेतों में मजदूर काम कर रहे थे। सामने नदी थी। जिसे बाँध बनाकर रोक लिया गया था।
तभी तो रस्तोगी साहब कहते हैं, “सच पूछिए तो आइंस्टाइन ने क्या कहा था, हर चीज़ हर दूसरे से जुड़ी है। कोई भी समस्या एकांगी नहीं। इस पूरे इलाके की सूखी फ़सलें, सूखे इंसान, मरियल मवेशी और इनका दयनीय परिवेश सिर्फ़ इस वजह से है कि जिनके पास ताक़त और पैसा है, उन्होंने इसे व्यक्तिगत संपत्ति बना रखा है। नदी यहाँ बंध गई है तो आगे पानी जाएगा कहाँ से? बाघ … बाघ हुआ भी तो पानी पीने उसे यही आना पड़ेगा। देखिए उस तरफ, लिलीपुट राज्य के छोटे-छोटे मवेशी पानी पी रहे हैं। बांध से औरत घड़ा भर-भरकर ले जा रही है।” इस पर ख़ान साहब ने कहा, “इस पर तुर्रा यह कि इन्हीं के यहाँ डेरा डालकर हम इनके द्वारा पैदा की गई प्रॉब्लम्स पर डिस्कस करने आए हैं।”
मतलब समस्या क्या है यह भी पता चल जाता है, लेकिन फिर भी कोई कुछ कर नहीं पाता। लेकिन अगर किसी के अस्तित्व का सवाल हो, जीने और मरने का सवाल हो तो वह दूसरे के भरोसे कैसे रहे? जगेसर जैसे लोगों को बचाने का सवाल हो तो सरकार, समाजिक संगठन या इसी जैसी कोई चीज़े क्या करेगी? क्या ये इनके लिए कुछ कर सकते हैं? जब तक गाँव में मुखिया जैसे लोग हों और शहर में सत्तो रानी जैसी, तो जगेसर का तो कुछ भला होने वाला नहीं है, क्योंकि इन्हीं का खून चूसकर तो वह मोटे होते हैं और नरक बनाने का कारखाना खोलते हैं। और जो कोई मुखिया या सत्तो जैसे लोगों को रोक सकता है, वही जब उनका संरक्षण करने लगे तो जगेसर के लिए तो प्रेत का ही सहारा रह जाता है। जिनके लिए सच में प्रेत अगर अंधविश्वास है तो उनके लिए जगेसर जैसे लोगों का और इनकी कौमों का अस्तित्व भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि हम जिस मानवीय गुणों को जानते हैं और जिनकी बात करते हैं, वह सब कुछ जगेसर जैसे लोगों के लिए मुख्य धारा के सामाजिक सरोकार में सपना है। यही तो संजीव ‘प्रेम-मुक्ति’ कहानी के माध्यम से कहना चाहते हैं। और प्रेत तभी दम लेता है जब वह अपना कार्य पूरा कर देता है, ताकि उनके बाद आने वाली पीढ़ी के ज़िंदा होने की संभावनाए बची रहे। उसने बाँध काट दिया, उसने सुरेंद्र से बदला ले लिया। जब प्रेत अपना काम कर चुकता है तो वह मुक्त भी कर देता है और मुक्त भी हो जाता है।
संजीव इस कहानी में छोटे-से बिंदु से विराट फलक को छूते हैं। वह सब कुछ खोलकर रखते हैं। उन्होंने समाजिक अंतर्विरोध को इस कहानी के माध्यम से स्पष्ट किया है। भारत जैसे देश के लिए यह चुनौती है कि जो वर्ग उपेक्षित हैं और सदियों से उनकी उपेक्षा होती आई, उसे मुख्य धारा में कैसे शामिल किया जाय। और अगर आज तक शामिल नहीं किया गया या वह शामिल नहीं हो सके तो किस वजह से; यह भी इस कहानी के माध्यम से कुछ न कुछ उजागर होता ही है। जब तक हम गहरी मानवीय संवेदना से अछूते रहेंगे, चाहे हममें कितना भी धार्मिक संस्कार गहरा हो, चाहे हम विचारों से कितना भी उन्नत क्यों न हों, लेकिन हमें दरारों को भरना नहीं आएगा, जहाँ सब कुछ को पाट कर सबको एक्य रूप में देखा जाए। और उस एक्य रूप में सबको शामिल करना, अगला-पिछला, छोटा-बड़ा, नदी-पहाड़, जीव-जंतु, पूरी पृथ्वी, पूरी सृष्टि, पूरा ब्रह्मांड। और यह संभव है, गहरा मानवीय बोध से। समाज तब तक मानवीय गुणों को आत्मसात नहीं कर पाएगा, जब तक शक्तिशाली की पूजा होती रहेगी। तब इस हालत में जगेसर जैसे लोगों का क्या हाल होगा, तब तक तो यही मानकर चलना पड़ेगा कि डार्विन का विकासवादी सिद्धांत से ही ज़िंदगी चलती है। इस हालत में तो जगेसर जैसे प्राणी ही लुप्त हो जाएंगे, जैसे बाघ लुप्त हो रहे हैं। हालाँकि बाघ जंगल का राजा है, लेकिन मानवीय क्रूरता पर तो उसका भी वश नहीं है। संजीव ने गहरी संवेदना के साथ उपेक्षितों का पक्ष रखा है। वह बिना किसी भूमिका के अगर ऐसा कर सके तो इसलिए कि उनकी लेखनी बहुत ईमानदार है। 
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