गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

ढूँढ़ते हैं - नवीन कुमार 'नीरज'

रोज़ घर से निकलते हैं, यह सोचकर ---
एक हमराही आज ढूँढ़ लाएंगे
हम गलियों-नुक्कड़ पर मंडराते हैं
हर गली हर मुहल्ले चक्कर लगाते हैं
मन की आँखों से हर चेहरें निहारते हैं
इस उम्मीद से कि हमराही ढूँढ़ लेंगे
हम तैयार हैं ---
हर काँटे को फूल समझने के लिए
बस एक हसरत है ---
मेरे मन को वह आबाद करे
फूल न सही काँटे ही राज करे
हम हँसकर काँटो की चुभन को
फूलों की हार समझकर
खुश हो लेंगे
खुशी न सही
दर्द के साथ ही, जी लेंगे
कोई अपना तो होगा
सूने मन में कोई सपना तो होगा
किसी के लिए दर्द तो सहेंगे
सूने आँगन में कुछ तो खरकेगा
कोई दो बोल तो बोलेगा
लाख अँधेरा होगा,
कभी बिजली भी तो चमकेगी
दुश्वारियों के बीच
कभी आशा की किरण भी तो होगी
उस किरण से हम
मन की बत्ती जला लेंगे
जगमगाहट न सही
एक दीए की लौ से
अँधेरा मिटा लेंगे
उस दीप को बुझने न देंगे
आँधी के बीच भी
दीए जलाए रखेंगे
चलने के लिए
एक डगर तो होगी।
टूटी कश्ती ही सही
दरिया पार लगा लेंगे
तूफानों के बीच भी
जीवन बिता लेंगे।

हम रोज सुबह घर से निकलते हैं
हम आज भी घर से निकल पड़े हैं
अब हम सड़क पर खड़े हैं
लाखों की भीड़ है!
इस भीड़ में हम एक चेहरा ढूँढ़ते हैं---
बस एक चेहरा।

अब भी हम भटक रहे हैं
सुबह से शाम हो गई
पथराई आँखें थककर सो गई।
हमने लाख चाहा
दरवाज़ा न सही
कोई खिड़की ही खुली दिख जाए
पर मन की खिड़कियाँ भी बंद थी।

अब तो इस भीड़ ने
हमें खुद को ही खुद से
बेगाना बना दिया है।
रात हो गई है
मायूसी में डूबे घर जा रहे हैं
अब तो रातभर खुद को तलाशना है
अगर सुबह तक खुद को ढूँढ़ पाए तो
फिर सुबह घर से निकलेंगे ---
हजारों-लाखों चेहरे में से एक चेहरा ढूँढ़ने।
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