क्या शहर क्या गांव सब बदलने लगे
एक घर में कई चूल्हे जलने लगे॥
कहाँ दफ़न हो गयीं ममतामयी माएँ
गृहणियों के बच्चे आया से पलने लगे॥
कितना परायापन लगा उसकी आँखों में
जब बेटे के घर से माँ- बाप चलने लगे॥
मुफ़लिसी क्या होती है उनसे जाकर पूछिये
जो रोटी की एक टुकड़े पर मचलने लगे॥
लगती है गले की फ़ांस सी
जब गहरा रिश्ता भी मन को खलने लगे॥
लाख छुपायिये "रजनी" रंगाई - पुताई से
दिख जाती है निशानी जब उम्र ढलने लगे॥
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रदीफ़ का पता ना काफ़िये का
फिर भी ग़ज़ल लिख रहे हैं॥
दुनिया के चलन में हो रहा जो
उसी झूठ को सीख रहे हैं॥
देखिये ताब टूट जाने से
गूंगे भी अब चीख रहे हैं॥
जो बोते रहे मेरी राह में कांटे
आज फूल बनकर बिछ रहे हैं॥
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सरल जिज्ञासाएँ मर रहीं ,
जन्म ले रहे अंतहीन सोच ,
द्वंद पनप रहे ,
दोनों के बीच।
संवेदन का पानी
वैसा ही है ,
बिलकुल सूखा हुआ ,
शुष्क रिश्तों
की धूप सूखा गयी
संवेदन का पानी ,
दबंगई बार - बार ,
सर उठाती है
कुचलने के लिए मखमली
आशाओं को।
गुनगुनी धूप सी
सोच ,स्फूर कर देती है
जम चुके
मानवीय चेतना को ,
और चीख कर कहती है
युग कोई भी हो
संहार तो होता है ,
मरती है दबंगई
हर युग में ,
जन्म लेगा फिर कोई युग पुरुष ,
करने को संहार।
दब जाते हैं
मखमल से लोग ,
दबंगई के आगे ...
पर मरते नहीं।
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आधा दफ्तर पकाता है उन्हें
आधी घर में पक जाती है॥
आज के इस भाग- दौड़ में
आधी आबादी थक जाती है॥
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कहाँ दफ़न हो गयीं ममतामयी माएँ
गृहणियों के बच्चे आया से पलने लगे॥
कितना परायापन लगा उसकी आँखों में
जब बेटे के घर से माँ- बाप चलने लगे॥
मुफ़लिसी क्या होती है उनसे जाकर पूछिये
जो रोटी की एक टुकड़े पर मचलने लगे॥
लगती है गले की फ़ांस सी
जब गहरा रिश्ता भी मन को खलने लगे॥
लाख छुपायिये "रजनी" रंगाई - पुताई से
दिख जाती है निशानी जब उम्र ढलने लगे॥
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रदीफ़ का पता ना काफ़िये का
फिर भी ग़ज़ल लिख रहे हैं॥
दुनिया के चलन में हो रहा जो
उसी झूठ को सीख रहे हैं॥
देखिये ताब टूट जाने से
गूंगे भी अब चीख रहे हैं॥
जो बोते रहे मेरी राह में कांटे
आज फूल बनकर बिछ रहे हैं॥
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सरल जिज्ञासाएँ मर रहीं ,
जन्म ले रहे अंतहीन सोच ,
द्वंद पनप रहे ,
दोनों के बीच।
संवेदन का पानी
वैसा ही है ,
बिलकुल सूखा हुआ ,
शुष्क रिश्तों
की धूप सूखा गयी
संवेदन का पानी ,
दबंगई बार - बार ,
सर उठाती है
कुचलने के लिए मखमली
आशाओं को।
गुनगुनी धूप सी
सोच ,स्फूर कर देती है
जम चुके
मानवीय चेतना को ,
और चीख कर कहती है
युग कोई भी हो
संहार तो होता है ,
मरती है दबंगई
हर युग में ,
जन्म लेगा फिर कोई युग पुरुष ,
करने को संहार।
दब जाते हैं
मखमल से लोग ,
दबंगई के आगे ...
पर मरते नहीं।
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आधा दफ्तर पकाता है उन्हें
आधी घर में पक जाती है॥
आज के इस भाग- दौड़ में
आधी आबादी थक जाती है॥
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रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)
जन्म: ७ जून, कुमंदी ग्राम, पलामू, झारखण्ड
चार काव्य संग्रह: 'स्वप्न मरते नहीं ', 'ह्रदय तारों का स्पन्दन', 'पगडंडियाँ' व 'मृगतृष्णा'
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
भाषा लेखन: हिंदी, पंजाबी, उर्दू.
लेखन: गीत, ग़ज़ल, कहानियां व कविताएँ.
शिक्षा: हिंदी व इतिहास में स्नातकोत्तर। हिंदी में पी.एच. डी. चल रही।
सम्प्रति: संगणक विज्ञान की शिक्षिका
वर्तमान पता: बोकारो (झारखण्ड)
मोबाइल नं: 9576693153, 9470190089
जन्म: ७ जून, कुमंदी ग्राम, पलामू, झारखण्ड
चार काव्य संग्रह: 'स्वप्न मरते नहीं ', 'ह्रदय तारों का स्पन्दन', 'पगडंडियाँ' व 'मृगतृष्णा'
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
भाषा लेखन: हिंदी, पंजाबी, उर्दू.
लेखन: गीत, ग़ज़ल, कहानियां व कविताएँ.
शिक्षा: हिंदी व इतिहास में स्नातकोत्तर। हिंदी में पी.एच. डी. चल रही।
सम्प्रति: संगणक विज्ञान की शिक्षिका
वर्तमान पता: बोकारो (झारखण्ड)
मोबाइल नं: 9576693153, 9470190089
बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन प्रस्तुति, आभार आपका।
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार रचना की प्रस्तुति। मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है।
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