हर पीड़ा की अपनी कहानी होती है और वो अपने आप में मुक्कमल होती है। पर जब वो पीड़ा नासूर बनकर चुपचाप रिसती रहती है तो वो जाने-अंजाने एक नई कहानी लिख रही होती है जिसकी इबारतों में सांसों की स्याही अपना हुनर कुछ इस तरह दिखलाती है कि सब कुछ आँखों के सामने होता है और परदे से बाहर भी नहीं निकलता। शायद तस्वीर यूँं करके ही मुक्कमल होना जानती हैं या फिर तस्वीरों में रंग शायद ऐसे ही भरा जाता है या फिर दर्द का रंग चटक होकर आँखों से ओझल होना जानता है कि आदमी अपनी कहानियों में कुछ ऐसे पहलुओं से रूबरू हो सके। सदियों ने स्त्री को कुछ इस तरह की पीड़ा देने का शायद रिवाज सा बना लिया है या फिर यूँ करके ही सदियाँ मुक्कमल होने को शापित हैं। इन्हीं कहानियों का कारवाँ इन कविताओं से होकर गुजरता है जो बस अपनी कहानी सुनाना जानते हैं बस कुछ सवालों के हाथ पैर से ना कि किसी को दोषी बनाकर सूली से लटकाना।
ज़्यादा नहीं कुछ मुरझाये फूल थे यक़ीन के और कुछ तब्बसुम से लिखे ख़त बस यही चढ़ा कर अभी अभी लौटी हूँ अपने क़त्ल हुए रिश्ते की क़ब्र से.....
फूल तो ख़ैर कई रोज़ से ज़रा ज़रा मुरझा रहे थे मगर हैरान हूँ ख़तों के अंदर की तहरीर कैसे बदल गई?...
आँख नम नहीं है हाँ, दिल में इक टीस सी उठती है रह रह कर....
जानते हो तुम्हारे भेजे गुलशब्बी के गुच्छों से लच्छा-लच्छा लफ़्ज़ निकल कर पूरे घर में फैल रहे हैं कहीं ज़मीन नहीं दिखती.....
ज़िन्दगी सहम कर एक जगह खड़ी हो गई है और मना कर रही है आगे बढ़ने से.....
ऊपर से रात होते ही ये जज़्बातों के कारवाँ चले आते हैं मातमपुर्सी करने... अब तुम्ही कहो इन्हें कहाँ बिठाऊँ मैं? ---------------------------------------------- इक रोज़ मुझे बताया गया कि मैं औरत हूँ और बंटी हूँ कई हिस्सों में
हर हिस्सा चूंकि मेरा है तो लाज़िम है कि हर हिस्सा हिस्से की तरह नहीं पूरी औरत की तरह पेश आए
और ताक़ीद की गई कि मैं हर हिस्से में मौजूद रहूँ इन पर्सन
समझाया गया कि क्योंकि मै औरत हूँ और बंटी हूँ कई हिस्सों में तो ख़ुद को मुकम्मल समझने की भूल न करूँ
अंदर से जब कोई आवाज़ उठी तालियाँ बजा दी गईं कोई सर उठा ताजपोशियाँ कर दी गईं
और मैं कभी नहीं देख पाई ख़ुद को सारे का सारा वही देखा जो दिखाया गया आईना देखा तो हिस्सों में नज़र आई ख़ुद को
ख़ुद को ज़ोर से झटकना मना था तहज़ीब के ख़िलाफ़ था
पैरहन पर जड़े सलमे सितारों सा हर हिस्सा टंगा रहा वजूद पर मेरे नहीं मालूम पड़ा असली रंग जामे का कभी भी
इस बीच कुछ एसा सर्द रहा अंदर का मौसम कि जम गई अहसासों की झील
साल दर साल सहरा दर सहरा गुज़रते आज अचानक मुडी जो इस अनजानी राह पर
तो पाया ख़ुद को
ख़ुद एत्तिमादी की इस हसीन वादी में
फूलों की कतारों में खिले खिले मौसम में
साँस भर हवा मिली घूंट भर ज़िन्दगी
ज़रा झटकते ही दिखाई दिया रंग मेरे जामे का
कतरा कतरा पिघली साफ शफ्फ़ाक झील में पहली बार देखा अक्स अपना पूरे का पूरा मुकम्मल.......!!!
---------------------------------------------- नैतिक अनैतिक की संकरी पगडण्डियों से परे... मन के किसी सुदूर कोने में होता है, आदिम इच्छाओं का जो घना जंगल...
वहीं जा खड़ी होती हूँ अक्सर तुम्हारे प्रेम के झरते महुए तले..... और आँचल में बटोरती हूँ कच्ची मादक गंध....
मतवाले फूलों को छूकर आती धूप, संभाल नहीं पाती ख़ुद को, और मदहोश हो गिर पड़ती है कंधों पर मेरे....
मदिर मन उन्मुक्त थिरकता है तुम्हारे संग... तुम्हारे ही किसी गीत की मदमस्त धुन पर....
चेहरे पर निश्छल हँसी लिए जहाँ तुम..... भेंट करते हो आवारा फूलों का बेतरतीब गुच्छा....
वहीं.... बस वहीं पढ़ पाती हूँ तुम्हारी आँखों में बसी वो निषिद्ध कामना....
इस पार छुपा ले जाते हो जो मिथ्या मुस्कान के पीछे, तुम हर बार......... ---------------------------------------------- वादा रहा कि ज़िन्दगी से पहली फुर्सत पाते ही एक प्याली चाय ज़रूर पीऊँगी तुम्हारे साथ और सुनूंगी तुम्हारी कहानी जो छूट गई है अधूरी आज
याद रखना जहाँ नायिका बिना कुछ कहे सर रख देती है गिलोटिन के नीचे वहाँ से आगे शुरू करना है तुम्हें
हो सकता है तब तक मैं भूल भी जाऊँ पीछे की कहानी मगर उस से कोई फर्क नहीं पड़ता
नायिका के गिलोटिन पर सर रखने तक एक जैसी होती हैं सभी कहानियाँ
दिलचस्पी तो आगे बनती है कि नायिका का निर्दोष होना जान कर क्या मना कर देगा गिलोटिन कलम करने को सर उसका
अथवा मेरी तरह वो भी सोचेगा कि उसका काम है सर कलम करना निर्दोष भी और सदोष भी
सस्पेंस यही है कि कौन ज़्यादा ज़िन्दा है मैं या तुम्हारी कहानी का गिलोटिन
खयाल रखना जहाँ नायिका बिना कुछ कहे सर रख देती है गिलोटिन के नीचे वहाँ से शुरू करना है तुम्हें ---------------------------------------------- मुझे लगा था कि 'तुम' कहोगे कि ये मैं नहीं हूँ.....
मेरी चेतना के कुछ छूटे हुए धागे हैं जो रह गये हैं लिपटे वर्जनाओं के पास गिरवी पड़े कुछ ज़िन्दा लम्हों की मरमरी अंगुलियों से...
और खींचते हैं बार बार क्योंकि नहीं जुटा पाई मैं पर्याप्त सिक्के साहस के.....
इसी खिंचाव से है ये रक्तिम पीड़ा मेरे आत्म के कोमल तंतुओं में.....
कि आभासी हैं मन पर पड़ी खरोंचें और क्षणिक है ये पीड़ा.....
आखिर आसान नहीं होता दस दरवाज़ों का शीशमहल पार कर आना....
हर द्वार पर कील से उभरे होते हैं कुछ पछतावे.....
अटक ही जाता है अवचेतन का कोई कोना और छूट जाता है वहीं कहीं......
किन्तु काल के उस खण्ड से निकल आई हूँ मैं और अब सब पीड़ातीत है यहाँ बैकुंठ में.....
यहाँ एकाकार हैं मैं और 'तुम'... बस मुझे लगा भर था कि ऐसा कहोगे 'तुम' ----------------------------------------------
शकुंतला
नहीं पहचानती मैं ऊँचे राजसिंहासन पर विराजित इस चक्रवर्ती नरेश को माँग रहा है जो एक निरीह गर्भिणी से उसके अस्तित्व का प्रमाण.......
अरण्य में अल्हड़ विचरण करती एक वनकन्या क्या प्रमाण प्रस्तुत करेगी जो हो तुम्हारी राज सभा की आन बान के अनुकूल......
हाँ, नहीं हैं मेरे पास वो लताएँ जिन्होंने आह्लादित हो स्वयं प्रस्तुत किए थे अपने पुष्प गुच्छ, घुटनों पर बैठ प्रणय निवेदन किया था जब तुमने......
उपस्थित नहीं हैं वो सुमन जो बिंध गए थे उन मालाओं में जिन्हें पहन जन्म जन्म के संगी बने थे हम, जिनकी पीड़ा साक्षी है उस पवित्र शाश्वत बंधन की.....
नहीं लाई अपने साथ वो मृगछौना, जिसे मेरे आगोश में देख रुष्ट हो उठता था तुम्हारा ईर्ष्यालु मन........
सत्य कहना, क्या केवल एक राजमुद्रिका से बंधी हैं मेरी समस्त स्मृतियाँ?...
क्या सच में स्मरण नहीं है तुम्हें अपने प्रेमिल हृदय की अधीरता का?..
कहाँ प्रस्थान कर गई सिहरन उन मादक स्पर्शों के आदान प्रदान की !....
पूछो तो एक बार अपने अधरों की आतुरता से मेरा परिचय........ जो ज्ञात होता मुझे कि मात्र एक मुद्रिका जोड़े हुए है तुम्हारे और मेरे मन की कड़ियाँ तो शापित होने से पूर्व स्वयं प्रवाहित कर देती उसे उसी धारा में जिसमें अठखेलियाँ करते साथ साथ भिगोया था हमने तन भी और मन भी
हर नज़र हरदम कुछ ना कुछ देखती रहती है और उस देखने का अपना ही अंदाज होता है। ये अंदाज यूँ ही नहीं होता बल्कि वक्त के ढलने की कहानी होती है जो इन्सान अपने सफर के दौरान तय करता है और यही सफर तय करता है कि वो कहानी पिघलकर शब्दों में कैसे ढलती है। शब्दों की ये ढलान जब रूमानीयत के साथ बहकर आँखों के सामने फैल जाती है तो इक तस्वीर आँखों में कौंध आती है जो जेहन में अन्दर तक अपने होने का एहसास कराती है। वो तस्वीर सिर्फ खुद अपने होने का ही एहसास नहीं कराती बल्कि आपको आपने होने का भी एहसास कराती है।
कुछ यूँ करके ही सुदर्शन शर्मा जी की ये तीन कविताएँ अपना असर छोड़ती हैं। जब हम उनसे रूबरू होते हैं तो कुछ ऐसा बयान करना चाहती हैं जो हममें जाने कब से है? जो शायद रोज-रोज हमारे अंदर ही घटता रहता है। शय के छोटे-छोटे टुकड़े बहुत कुछ कह जाते हैं पर हम उन सुन तभी पाते हैं जब हम सुनना चाहते हैं।
--------------------------------------------------------------------------------------------- तुम्हारा ख़त मिला लफ़्ज़ों में लरज़िश तुम्हारे लम्स की रोशनाई में रंग तेरे अबसार का तुम्हारा ख़त मिला।
मेरे देखे से लकदक हुआ गुलमोहर खिल उठा रंग गुलाबी कचनार का तुम्हारा ख़त मिला।
शबे फिराक़ में पामाल दिल के काँधे पर हाथ हो जैसे किसी ग़मगुसार का तुम्हारा ख़त मिला।
मेरे माथे पर नसीब की दस्तक मन में मौसम किसी त्यौहार का तुम्हारा ख़त मिला।
युगों से दग्ध विरहणी की ख़ातिर छेड़ दे सुर कोई मिलन मल्हार का तुम्हारा ख़त मिला। ***** चाँद से मेरी कभी अब गुफ़्तगू होती नहीं। रोज़ आता है मगर मैं रूबरू होती नहीं॥
कभी पूरा, तो कभी आधा आधा मिलता है सहन मुझसे ये अधूरी आरज़ू होती नहीं॥
तेरे कहने से दफ़्न कर देती जो यादें तेरी रौशनी ये आज मेरे हर एक सू होती नहीं॥
जफा के ज़िक्र पे फिसला लबों से तेरा नाम फैली ये बात वरना कू बा कू होती नहीं॥
ख्वाब चुभ जाएँ बन केखार दिल के तलवो में ख़त्म फिर भी सफर की जुस्तजू होती नहीं॥ ***** आँख के रस्ते दिल में उतार लिया था मैंने एक वर्जित ख्वाब था।
जाने कहाँ से आकर ठहर गया था जो पलकों पर हवा में उड़ते पंख सा।
अजल से कायम है अहसासों में रड़क उसकी मिले दो बूँद अंजन जो तेरी दीद का।
पड़े ठंडक मेरी नज़्म की चश्मे सुर्ख़ में। ---------सुदर्शन शर्मा