सोमवार, 20 जुलाई 2015

खत, रूबरू और आँखों से - सुदर्शन शर्मा

हर नज़र हरदम कुछ ना कुछ देखती रहती है और उस देखने का अपना ही अंदाज होता है। ये अंदाज यूँ ही नहीं होता बल्कि वक्त के ढलने की कहानी होती है जो इन्सान अपने सफर के दौरान तय करता है और यही सफर तय करता है कि वो कहानी पिघलकर शब्दों में कैसे ढलती है। शब्दों की ये ढलान जब रूमानीयत के साथ बहकर आँखों के सामने फैल जाती है तो इक तस्वीर आँखों में कौंध आती है जो जेहन में अन्दर तक अपने होने का एहसास कराती है। वो तस्वीर सिर्फ खुद अपने होने का ही एहसास नहीं कराती बल्कि आपको आपने होने का भी एहसास कराती है।
कुछ यूँ करके ही सुदर्शन शर्मा जी की ये तीन कविताएँ अपना असर छोड़ती हैं। जब हम उनसे रूबरू होते हैं तो कुछ ऐसा बयान करना चाहती हैं जो हममें जाने कब से है? जो शायद रोज-रोज हमारे अंदर ही घटता रहता है। शय के छोटे-छोटे टुकड़े बहुत कुछ कह जाते हैं पर हम उन सुन तभी पाते हैं जब हम सुनना चाहते हैं।

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तुम्हारा ख़त मिला
लफ़्ज़ों में लरज़िश तुम्हारे लम्स की
रोशनाई में रंग तेरे अबसार का
तुम्हारा ख़त मिला।

मेरे देखे से लकदक हुआ गुलमोहर
खिल उठा रंग गुलाबी कचनार का
तुम्हारा ख़त मिला।

शबे फिराक़ में पामाल दिल के काँधे पर
हाथ हो जैसे किसी ग़मगुसार का
तुम्हारा ख़त मिला।

मेरे माथे पर नसीब की दस्तक
मन में मौसम किसी त्यौहार का
तुम्हारा ख़त मिला।

युगों से दग्ध विरहणी की ख़ातिर
छेड़ दे सुर कोई मिलन मल्हार का
तुम्हारा ख़त मिला।
*****
चाँद से मेरी कभी अब गुफ़्तगू होती नहीं।
रोज़ आता है मगर मैं रूबरू होती नहीं॥

कभी पूरा, तो कभी आधा आधा मिलता है
सहन मुझसे ये अधूरी आरज़ू होती नहीं॥

तेरे कहने से दफ़्न कर देती जो यादें तेरी
रौशनी ये आज मेरे हर एक सू होती नहीं॥

जफा के ज़िक्र पे फिसला लबों से तेरा नाम
फैली ये बात वरना कू बा कू होती नहीं॥

ख्वाब चुभ जाएँ बन केखार दिल के तलवो में
ख़त्म फिर भी सफर की जुस्तजू होती नहीं॥
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आँख के रस्ते
दिल में उतार लिया था मैंने
एक वर्जित ख्वाब था।

जाने कहाँ से आकर
ठहर गया था जो
पलकों पर
हवा में उड़ते पंख सा।

अजल से कायम है
अहसासों में
रड़क उसकी
मिले दो बूँद अंजन जो
तेरी दीद का।

पड़े ठंडक
मेरी नज़्म की
चश्मे सुर्ख़ में।
---------सुदर्शन शर्मा

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