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शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

गाली ही आशीर्वाद है - राजीव उपाध्याय

मुझे भाषण देने की आदत जो है कि लोग देखा नहीं कि बस उड़ेलना शुरू कर देता हूँ। बस कुछ दोस्त मिल गये तो मैं लग गया झाड़ने। खैर झाड़ते वक्त ये देख लेता हूँ कि सामने कौन है। खैर दोस्तों को भाषण पान करा रहा था (वैसे घर पर तो घरवीर बनने में यकीन रखता हूँ। अपना-अपना किस्सा है।) कि चच्चा जाने कहाँ से अवतरित हो गये? शायद थोड़ी देर मेरे महाज्ञान को सुना होगा फिर कान पकड़कर बोले -
“मतलब कर दिये ना नाजियों वाली बात। अरे भाई उन लोगों ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी इसका मतलब ये थोड़े ही होता है कि वो पुरस्कार लौटा दें? बोलो तुम अपने माँ-बाप को बचपन में डराते थे कि नहीं अपनी बात मनवाने के लिए।”
चच्चा हमारे पूरे धर्मनिरपेक्ष पुरस्कृत महाविद्वान हैं। खैर हैं तो हैं; हमें क्या? हम भी कम विद्वान थोड़े ही हैं। तो मैंने भी दोस्तों को आँख मारते हुए (बहुत रियाज किया है) अपनी गांडीव से तीर फेंका
“अरे! हम तो पहले रोते थे जब माँ बाबूजी नहीं मानते थे तब डराने के लिए कुदते-फांदते थे तब कहीं जाकर हडताल पर जाते थे। ये तो ना ही रोए, ना ही कूदे-फाँदे और हड़ताल भी नहीं किए। सीधे तलाक पर पहुंच गये। ऐसे कहाँ मजा आता है? थोड़ा मसाला पकना चाहिए ना तभी तो सब्जी का मजा आता है। खैर आपकी तो बहुत ऊंची पकड़ है, इनको थोड़ा समझाइये।”
चच्चा मन थोड़ा कर बोले, “अरे क्या समझाएँ बबुआ उनको? समझा रहे हैं तो सब गाली दे रहे हैं। कुछ तो निठल्ले आरोप भी लगा रहें। एक हम थे कि उनके लिए दिन-रात सेटिंग करते-फिरते थे और एक वो हैं कि ………”
विद्वान लोग अक्सर बातें बीच में छोड़ देते हैं ताकि कल्पनाओं को उड़ान मिल सके और बाद में उन कल्पनाओं को लेकर बयानबाजी और विमर्श के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता मिल सके।
मैंने भी सोचा कुछ ज्ञानार्जन किया जाए तो पूछ बैठा, “अच्छा! आप माँ-बाप की बात कर रहे थे तो पहले ये बताइए कि सरकार मां-बाप होती है क्या?”
इतना सुनना था कि झन्ना गए फूलही थरिया की तरह पर कहे बड़े प्यार जैसे प्रेयसी कहती है, “लगता है पूरा गोबर ही रह गये।”
मैं भी गली मैं जैसे सीटी बजाया करता था वैसे पूछे “क्या हुआ? काँहे गुस्सा हो रहे हैं?”
मेरा लहजा और सवाल सुनकर चच्चा पहले मुस्कराए। फिर आसमान में देखते हुए बोले, “तुम सरकार को माँ-बाप समझ रहे हो इसीलिए तो गोबर कह रहा हूँ। सरकार माँ-बाप से भी बढकर होती होती है। वो तो…………”
बीच में ही चुप हो गये और कुछ जैसे याद कर रहे हों इस मुद्रा में चले गये। पर मेरे अन्दर का विद्वान विमर्श प्रारम्भ करने के बाद चुप कैसे रह सकता था,
“अच्छा!!! वो कैसे?”
“भइया तुम रहने दो; तुम्हारी समझ ना आयेगा”, चच्चा दार्शनिक अंदाज में बोले।
“पर लोग तो ब्याज भी माँग रहे हैं और सब लाभ और लागत की भी बात कर रहे हैं ब्याज सहित।”
चच्चा पहले तो कुछ देर चुप रहे फिर उनके अंदर का साधुत्व जागा, “तुम ही बताओ ये कहां का न्याय है कि साधू-संतों से उनका मठ छीन तो रहे ही हैं लोग; मड़ई भी छीनेंगे क्या? अरे भई साधू-सवाधू-जोगी का तो गाली ही आशीर्वाद होता है। तुम समझते नहीं हो!!”
बस चच्चा भी चुप और मैं भी ज्ञानवान हो गया। 

सोमवार, 30 मार्च 2015

इज्जतदार लेखक

अक्सर लेखक लोग अकादमियों और मंत्रालय के अधिकारियों को कोसते रहते हैं कि क्यों लेखक को जीते जी सम्मान नहीं देते हैं वो। लेखक के मरने के बाद ही क्यों उसे सम्मान मिलता है। मैंने अक्सर देखा है कि गलती तो इन शरीफ लोगों की होती है। पर ये शब्दों के खिलाडी दूसरों पर दोषारोपण करते रहते हैं। ये बेचारे सचिव इत्यादि अधिकारियों की चमडी मोटी होती है कि उन पर कोई बुरा असर नहीं पडता नहीं तो कोई सामान्य जन (आम आदमी नहीं कह सकता) होता तो कब का इति श्री रेवा खण्डे समाप्तः हो चुका होता।
होता यूँ है कि अधिकारीगण तो इन्तजार करते रहते हैं कि कब लेखक कवि महोदय आकर सलाम करें, कुछ चिकनी चुपडी कविता कहानी उनके प्रशंसा में लिखे। पर लेखक जाते ही नहीं (जो जाते हैं उनके घर सम्मान रखने जगह ही नहीं रह जाती) और वो इन्तज़ार करते रह जाते हैं कि अब आएंगे कि तब आएंगे। कई बार तो खबर भी भिजवाते हैं। उलाहना भी देते हैं। पर भाई लेखक तो ठहरा लेखक। धुन का पक्का। नहीं जाएंगे तो नहीं जाएंगे औरी अधिकारी भी जिद्दी। बस इसी रस्साकशी में लेखक महोदय कभी बिना तो कभी खुब खाकर निकल लेते हैं। तब बेचारा अधिकारी बडा दुखी होता है। सोचता है कि का बेवजह ही लेखक महोदय के साथ फोटो खींचवाने का मौका से निकल गया। और ये सोचकर लेखक महोदय की इज्जत अफजाई कि सोचता है कि उधर लेखक महोदय का भूत जो कभी पुरस्कार के पीछे भागे नहीं पुरस्कार पाने के लिए बेचैन हो ऊठता है और वो भूत रोज सपनों में तो कभी रास्ते पर तो कभी गाड़ी में अधिकारी महोदय को डराने लगता है। और बेचार आतंकित अधिकारी हारकर लेखक महोदय की प्रतिमा पर फूल चढाकर उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करने के लिए मजबूर हो जाता है। चापलूसी करने की आदत होती है अधिकारी तो लेखक के भूत की जम के बडाई करता और लेखक महोदय की आत्मा तृप्त होती है और वो ये इहलोक छोड़ कर परम धाम को चले जाते हैं। इस तरह अधिकारी बेचारे को शान्ति मिलती है कुछ दिनों के लिए क्योंकि थोडे दिनों दुसरा धुनी लेखक भी मर जाता है औरी अधिकारी के प्रताडना क्रम चलता रहता है फिर भी अधिकारी को ही ये लेखक दोषी ठहराते हैं जबकि हैं स्वयं दोषी। वैसे भी साहित्य में परम्परा है कि जो लेखक जीते जी इज्जतदार हो जाता है वह बाजारू कहलाता है और कभी-कभी दला……(?)