मुझको बहुत से लोग जानते हैं कि मैं वाचाल हूँ लेकिन मुझको जब काम पड़ता है तब मैं देखता हूँ कि मेरी वाणी रुक जाती है। यही दशा मेरी इस समय हो रही है। प्रथम तो जो अनुग्रह और आदर आप लोगों ने मेरा किया है उसके भार से ही मैं दब रहा हूँ, इसके उपरान्त मेरे प्रिय मित्रों और पूज्य विद्वानों ने जिन शब्दों में मेरे सभापतित्व का प्रस्ताव किया है उसने मेरे थोड़े से सामर्थ्य को भी कम कर दिया है। सज्जनों! मैं अपने को बहुत बड़भागी समझता यदि मैं उन प्रशंसा वाक्यों के सौवें हिस्से का भी अपने को पात्र समझता जो इस समय इन सज्जनों ने मेरे विषय में कहे हैं। हाँ, एक अंश में मैं बड़भागी अवश्य हूँ। गुण न रहने पर भी मैं आपकी मंडली में गुणी के समान सम्मान पाता हूँ। इसी के साथ मुझको खेद होता है कि इतने योग्य और विद्वानों के रहते हुए भी मैं इस पद के लिए चुना गया। फिर भी मैं आपके इस सम्मान का धन्यवाद करता हूँ, जो आपने मेरा किया है। मेरा चित्त कहता है कि इस स्थान में उपस्थित होने के लिए हमारे हिन्दी संसार में अनेक विद्वान थे और हैं जिनमें कुछ यहाँ भी उपस्थित हैं और जिनको यदि आप इस कार्य में संयुक्त करते तो अच्छा होता और कार्य में सफलता और शोभा होती। अस्तु, बड़ों से एक उपदेश सीखा है। वह यह है कि अपनी बुद्धि में जो आवे उस निवेदन कर देना। मित्रों की आज्ञा, मित्रों की मंडली का आज्ञा पालन करना मैं अपना परम धर्म समझता हूँ। अनुरोध होने पर अन्त में मैंने अपने प्यारे मित्रों से प्रेमपूर्वक निवेदन किया कि साहित्य सम्मेलन जिसका सभापति होने का सौभाग्य मुझे प्रदान किया गया है उसके कर्तव्य का पालन मेरा परम धर्म है। मैं आपसे दूर रहता हूँ। सो भी मैं कदाचित् निर्भय कह सकता हूँ कि हिन्दी साहित्य का रस पान करने में मुझको अन्य मित्रों की अपेक्षा कम स्वाद नहीं मिलता। उसके स्वाद लेने में मैं अपने किसी मित्र से पीछे नहीं। किन्तु अनेक कामों में रुका रहने के कारण मैं आपके बाहरी कामों का करने वाला सेवक हूँ। इस काम के लिए मैं अपने को कदापि योग्य नहीं समझता हूँ और इस अवसर पर जिसमें आपको पूर्व उन्नति के दृश्यों को देखना चाहिए था, जिनमें हिन्दी की भावी उन्नति का पथ प्रशस्त करना चाहिए था, किसी और ही मनुष्य को इस स्थान में बैठना चाहिए था, इसके योग्य मैं किसी प्रकार नहीं। अब यदि मैं इस स्थान में आकर आपकी आज्ञा पालन करने का यत्न न करूं तो उससे अपराध होता है। केवल इसी कारण मैं इस सम्मान का धन्यवाद देता हूँ और इस समय इस स्थान में आप लोगों की सेवा करने को तैयार हुआ हूँ।
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मंगलवार, 31 मार्च 2020
शुक्रवार, 27 मार्च 2020
सोभित कर नवनीत लिए - अमृत राय

सोमवार, 23 मार्च 2020
साहित्य-बोध: आधुनिकता के तत्त्व - अज्ञेय
शीर्षक में यह स्वीकार कर लिया गया है कि लेख का विषय 'साहित्य-बोध' है; पर वास्तव में इस अर्थ में इसका प्रयोग चिंत्य है। यह मान भी लें कि लोक-व्यवहार बहुत से शब्दों को ऐसा विशेष अर्थ दे देता है जो यों उनसे सिद्ध न होता, तो भी अभी तक ऐसा जान पड़ता है कि समकालीन संदर्भ में 'साहित्य-बोध' की अपेक्षा 'संवेदना-बोध' ही अधिक सारमय संज्ञा है। इसलिए शीर्षक में प्रचलन के नाम पर साहित्य-बोध का उल्लेख कर के लेख में वास्तव में आधुनिक संवेदना की ही चर्चा की जाएगी।
क्या संवेदना के साथ 'नई' या 'पुरानी' ऐसा कोई विशेषण लगाना उचित है? क्या संवेदना ऐसे बदलती है? क्या मानव मात्र एक नहीं है और इसलिए क्या उसकी संवेदना भी एक नहीं है? क्या यह एकता देश और काल दोनों के आयाम में एक-सी अखंडित नहीं रहती?
क्या संवेदना के साथ 'नई' या 'पुरानी' ऐसा कोई विशेषण लगाना उचित है? क्या संवेदना ऐसे बदलती है? क्या मानव मात्र एक नहीं है और इसलिए क्या उसकी संवेदना भी एक नहीं है? क्या यह एकता देश और काल दोनों के आयाम में एक-सी अखंडित नहीं रहती?
बुधवार, 25 दिसंबर 2019
जिन्दगी की कहानी - राजीव उपाध्याय

बुधवार, 28 अगस्त 2019
हिन्दी-भोजपुरी विवाद: दम्भ जनित हीनता - राजीव उपाध्याय

बुधवार, 31 जुलाई 2019
कुब्जा-सुंदरी - कुबेरनाथ राय
हमारे दरवाज़े की बगल में त्रिभंग-मुद्रा में एक टेढ़ी नीम खड़ी है, जिसे राह चलते एक वैष्णव बाबा जी ने नाम दे दिया था, 'कुब्जा-सुंदरी'। बाबा जी ने तो मौज में आकर इसे एक नाम दे दिया था, रात भर हमारे अतिथि रहे, फिर 'रमता योगी बहता पानी'! बाद में कभी भेंट नहीं हुई।
परन्तु तभी से यह नीम मेरे लिए श्रीमद्भागवत का एक पन्ना बन गई। इसके वक्र यष्टि-छंद में मुझे तभी से एक सौंदर्य बोध मिलने लगा। वैसे भी यह है बड़े फायदे की चीज। अपने आप उगी, बिना किसी परिचर्या के बढ़ती गई, पौधे से पेड़ बन गई और अब मुफ्त में शीतल छाँह देती हैं, हवा को शुद्ध और नीरोग रखती है, हजर किस्म के रोगों के लिए उपचार-द्रव्य के रूप में छाल, पत्ती, फूल, फल और तेल देती है, पशु और मनुष्य के रोगों से जूझती है, सबसे बढ़कर सुबह-सुबह राम-राम के पहर दातून के रूप में मुँह साफ़ करती है, बाद में मैं अपना मुँह गन्दा करूँ या अश्लील करूँ तो यह बेचारी क्या करे? नाम भले ही वृन्दावनी हो पर इसकी भूमिका वैष्णवता के उस साफ-सुथरे संस्करण की है जिसे संत कबीर ने अपनाया था। वैसे तो संत और भक्त में मैं कोई खास प्रभेद नहीं मानता। संत 'हंस' है तो भक्त 'मराल'। नाम का ही फ़र्क है। बात एक ही है। संत और भक्त की मूल प्रकृति एक ही होती है। दोनों ही वैष्णव हैं।
शनिवार, 27 जुलाई 2019
कुटज - हजारी प्रसाद द्विवेदी

कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या। पूर्व और अपार समुद्र - महोदधि और रत्नाकर - दोनों को दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय 'पृथ्वी का मानदंड' कहा जाय तो गलत क्यों है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह जो श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे 'शिवालिक' श्रृंखला कहते हैं। 'शिवालिक' का क्या अर्थ है? 'शिवालक' या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है? लगता तो ऐसा ही है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। वैसे, अलकनंदा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर हैं, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा। संपूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्य महादेव की मूर्ति स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्य महोदव के अलक-जाल के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व यह गिरि श्रृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े दिख अवश्य जाते हैं, पर और कोई हरियाली नहीं। दूब तक सूख गई है। काली-काली चट्टानों और बीच-बीच में शुष्कता की अंतर्निरुद्ध सत्ता का इजहार करनेवाली रक्ताभ रेती। रस कहाँ है? ये जो ठिंगने-से लेकिन शानदार दरख्त गर्मी भी भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरंतर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ? सिर्फ जी ही नहीं रहे है, हँस भी रहे हैं। बेहया हैं क्या? या मस्तमौला हैं? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरे पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।
रविवार, 23 जून 2019
बाजार का जादू - जैनेंद्र कुमार
बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह का काम करता है। वह रूप का जादू है। पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान जरूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फैन्सी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को जरूर सेंक मिल जाता है। पर इससे अभिमान की गिल्टी को और खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण क्या वह कम जकड़ होगी?
गुरुवार, 20 जून 2019
गिद्ध
यह तस्वीर याद है आपको ?????
इसे नाम दिया गया था 'द वल्चर एंड द लिटिल गर्ल'।
इस तस्वीर में एक गिद्ध भूख से मर रही एक छोटी लड़की के मरने का इंतज़ार कर रहा है। इसे एक साउथ अफ्रीकन फोटो जर्नलिस्ट केविन कार्टर ने 1993 में सूडान के अकाल के समय खींचा था और इसके लिए उन्हें पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। लेकिन कार्टर इस सम्मान का आनंद कुछ ही दिन उठा पाए क्योंकि कुछ महीनों बाद 33 वर्ष की आयु में उन्होंने अवसाद से आत्महत्या कर ली थी।
ऐसा क्या क्या हुआ था ????
गुरुवार, 30 मई 2019
लम्हे की कहानी - राजीव उपाध्याय

परन्तु हम गवाहियों की परवाह कहाँ करते हैं? हम तो बस उन चीजों के होने से ही इत्तेफाक़ रखते हैं जो हममें इत्तेफाक़ रखती हैं। और जो हममें इत्तेफाक नहीं रखतीं, उसका होना, ना होना, हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता। हमारे लिए तो बस इतना ही महत्त्वपूर्ण है कि कौन, कितना दे सकता है और कितना ले सकता है? शायद इतना भर का ही कारोबार है। एक ऐसा व्यापार जो हमेशा ही घाटे का होता है। कुछ खोटी चीजों से जाने क्या-क्या बदल लेते हैं?
मंगलवार, 16 अप्रैल 2019
मुक्कमल होने को शापित हैं - राजीव उपाध्याय

मंगलवार, 24 मई 2016
लौटना होगा जड़ों की ओर - राजीव उपाध्याय
नदियाँ, झीलें, तालाब और भूगर्भ का जल हर बीतते दिन के साथ सूखता जा रहा परन्तु इस धरती को जल की आवश्यकता बढती ही जा रही। दिल्ली में यमुना नाला बन चुकी है तो कानपुर में गंगा। कावेरी भी रो रही है और नर्मदा का हाल भी कुछ बहुत अच्छा नहीं है। झीलें हम इन्सानों की जमीन हवस पूरा करने में छोटी होती जा रही हैं तो गाँवों एवं शहरों के तालाब और कुँओं को पाटकर नलकूप लगा दिए गए हैं ताकि सहूलियत हो सके। पेड़ों को काटकर घरों को काँच का बना लिया ताकि इन घरों की चमक दूर तक पहुंचे कि देखने वालों की आँखें चौधिया जाएं। इस सहूलियत की लालसा, और अधिक पाने की हवस और प्रगतिशील बनने एवं दिखाने के नाटक में हमने हर उस चीज को ध्वस्त कर दिया है जो हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है और हमने हर उस गैर जरूरी चीजों को अपने जीवन का अपरिहार्य हिस्सा बना लिया है जिसके होने ना होने से हमारे जीवन कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ने वाला है और हमें लगता है कि हमने विकास किया है। पता नहीं ये कैसा झूठ है या फिर साजिश कि हम आँख खोलकर देखना ही नहीं चाहते।
शुक्रवार, 18 सितंबर 2015
भोजपुरी माटी का बुलंद पताका - आशुतोष कुमार सिंह
भारतीय ज्ञान-परंपरा ने पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान बनाई है। भारतीयों की तर्क-शक्ति के आगे पूरी दुनिया नतमस्तक है। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से भारतीय ज्ञान शक्ति व श्रम-शक्ति की बात होती है, उसी तरह भारतीय परिप्रेक्ष्य में बिहार की चर्चा होती है। बिहार की चर्चा होते ही सबसे पहले जिस भाषा-संस्कार-संस्कृति पर नज़र जाती है, वह है ‘भोजपुरी’। वैसे तो बिहार में मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका भी बोली जाती है और इन सभी भाषाओं व इसके बोलने वालों की अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान है। लेकिन बिहार की पहचान को दर्शाने के लिए किसी एक भाषा का चुनाव करना हो तो वह निश्चित रूप से भोजपुरी ही है। बाकी भाषाओं व बोलियों की तुलना में भोजपुरी बोलने-समझने वालों की संख्या वैश्विक स्तर पर ज्यादा है।
आज वैश्विक स्तर पर भोजपुरियों ने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवाई है। यह उपस्थिति यूं ही नहीं है, इसके पीछे एक बहुत बड़ी संघर्ष-कथा है। इतिहास के आइने में भोजपुरी भाषी भू-भाग को देखने पर मालूम चलता है कि यहां पर ज्ञान का अकूत भंडार रहा है लेकिन दूसरी तरफ भौतिकवादी युग के साथ तारतम्य बिठाने में भोजपुरी माटी के पूर्वज उतने सफल नहीं हो पाए जितने दूसरे क्षेत्रों के लोग हुए। इसका मुख्य कारण यह रहा कि भोजपुरिया लोग तीन-पांच की भाषा कम जानते हैं, साफ-सुथरा जीवन जीने में विश्वास रखते हैं। सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास करते हैं। आध्यात्म व धर्म के दायरे में ज्यादा मजबूती के साथ बंधे रहे हैं। पूर्वजों से मिले इस संस्कार ने कालांतर में आकर भोजपुरियों को इस कदर गढ़ा कि वो जहां भी गए अपनी ईमानदारी, मेहनत व कर्मठता की बदौलत अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। उनकी इस सफलता ने दूसरों के मन में जलन के भाव को जन्म दिया, जिसे गाहे-बगाहे मुंबई-असम में भोजपुरियों के खिलाफ घटी घटनाओं के रूप में हम देख सकते हैं।
दरअसल, भोजपुरी एक भाषा ही नहीं बल्कि एक संस्कृति है, संस्कार है। बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में मुख्य रूप से लिखी-पढ़ी व बोली जाने वाली भोजपुरी भाषा का विस्तार आज देश की चौहद्दी को पार कर चुका है। मॉरीशस, फिजी, यूगांडा, सूरीनाम सहित दुनिया के तमाम देशों में भोजपुरी प्रमुखता के साथ बोली जा रही है। दूसरे संदर्भ में बात करे तो दुनिया का कोई भी ऐसा देश नहीं है जहां पर ‘का हाल बा’ की गुंज नहीं गुंजती। दरअसल, सच्चाई यह है कि भोजपुरीभाषियों का चरित्र इतना कर्मठ व कर्मशील रहा है कि वे प्रत्येक परिस्थिति में अपनी सार्थक उपस्थिति को दर्ज करा देते हैं। भारत की पहचान विविधता में एकता के रूप में रही है। यहां पर रंग-रूप-वेश-भूषा में तमाम तरह की विविधताएं पायी जाती हैं, लेकिन जब भारतीयता की बात आती है तो सब के सब एकजुट दिखाई देते हैं। ठीक यही फार्मुला भोजपुरीभाषियों के साथ भी लागू होता है। सिवान-छपरा-गोपालगंज की भोजपुरी, आरा-बलिया-बक्सर की भोजपुरी, जौनपुर-बनारस की भोजपुरी व गोरखपुर-गोंडा सहित तमाम भोजपुरी क्षेत्रों की भोजपुरी बोलने के अंदाज में विभिन्नता के बावजूद भोजपुरी के नाम पर सभी एकजुट हैं। भोजपुरी के प्रति सभी में एक सम्मान व श्रद्धा का भाव है।
दरअसल, भोजपुरी एक भाषा ही नहीं बल्कि एक संस्कृति है, संस्कार है। बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में मुख्य रूप से लिखी-पढ़ी व बोली जाने वाली भोजपुरी भाषा का विस्तार आज देश की चौहद्दी को पार कर चुका है। मॉरीशस, फिजी, यूगांडा, सूरीनाम सहित दुनिया के तमाम देशों में भोजपुरी प्रमुखता के साथ बोली जा रही है। दूसरे संदर्भ में बात करे तो दुनिया का कोई भी ऐसा देश नहीं है जहां पर ‘का हाल बा’ की गुंज नहीं गुंजती। दरअसल, सच्चाई यह है कि भोजपुरीभाषियों का चरित्र इतना कर्मठ व कर्मशील रहा है कि वे प्रत्येक परिस्थिति में अपनी सार्थक उपस्थिति को दर्ज करा देते हैं। भारत की पहचान विविधता में एकता के रूप में रही है। यहां पर रंग-रूप-वेश-भूषा में तमाम तरह की विविधताएं पायी जाती हैं, लेकिन जब भारतीयता की बात आती है तो सब के सब एकजुट दिखाई देते हैं। ठीक यही फार्मुला भोजपुरीभाषियों के साथ भी लागू होता है। सिवान-छपरा-गोपालगंज की भोजपुरी, आरा-बलिया-बक्सर की भोजपुरी, जौनपुर-बनारस की भोजपुरी व गोरखपुर-गोंडा सहित तमाम भोजपुरी क्षेत्रों की भोजपुरी बोलने के अंदाज में विभिन्नता के बावजूद भोजपुरी के नाम पर सभी एकजुट हैं। भोजपुरी के प्रति सभी में एक सम्मान व श्रद्धा का भाव है।
सच्चाई तो यह है कि भोजपुरी भूगोल की तासीर ही इतनी मानवीय है कि भोजपुरियों से जो एक बार मिल लेता है, वह आजीवन उसका बन के रह जाता है। 2001 से मैं खुद गांव से दूर हूं। पिछले 14 वर्ष के वनवास में देश के तमाम क्षेत्र के अच्छे-बुरे लोग मिले, लेकिन ऐसा कोई नहीं मिला जिससे मैं बात करने की स्थिति में नहीं हूं। कहने का मतलब यह है कि हम भोजपुरियों का व्यवहारिक पक्ष इतना मजबूत होता है कि किसी भी परिस्थिति में खुद को ढालने में सकारात्मकता के साथ हम सफल होते हैं। भोजपुरिया माटी के लालों ने अपनी मेहनत व ईमानदारी के बल पर दूर-प्रदेश में भी भोजपुरिया शान को बुलंदी प्रदान की है। भोजपुरियों के स्वभाव को रेखांकित करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. प्रमोद कुमार सिंह कहते हैं कि भोजपुरिया धान के बीज की तरह होते हैं। जिस प्रकार धान को उखाड़ कर दूसरे खेत में रोपा जाता है और उसकी उत्पादकता बढ़ जाती है ठीक उसी प्रकार जब भोजपुरिया अपना मूल स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर जाते हैं तो उनकी उत्पादन शक्ति बढ़ जाती है। दिल्ली-मुंबई-कोलकाता-चेन्नई में भोजपुरियों की दमदार उपस्थिति इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है। देश की अर्थव्यवस्था का लेखा-जोखा मुंबई के पास है। क्या बिहारी दिमाग को, खासतौर से भोजपुरिया दिमाग व श्रम शक्ति को मुंबई से बाहर कर के मुंबई की वर्तमान स्थिति की परिकल्पना की जा सकती है! शायद नहीं। मुंबई में इनकम टैक्स विभाग से लेकर छोटे-बड़े सभी कार्यों में भोजपुरी भाषी दमदार तरीके से श्रमदान करते हुए मिल जायेंगे। राजनीतिक रूप से भी आज मुंबई में भोजपुरिया इतने मजबूत हो चुके हैं कि वहां की राजनीतिक गणित को बनाने-बिगाड़ने का माद्दा रखते हैं। भले ही ठाकरे जैसे कुछ लोग गिदर-भभकी दें, लेकिन यह भोजपुरियों का दमदार वजूद ही है कि वे खुटा गाड़कर मुंबई की सियासत में भी अपनी पकड़ बनाएं हुए हैं। मुंबई, सिनेमा के लिए जानी जाती है, भोजपुरियों ने अपनी प्रतिभा का बेहतरीन उदाहरण यहां भी दिया है। मनोज वाजपेयी से लेकर मनोज तिवारी तक तमाम कलाकारों ने भोजपुरिया मिट्टी को गरीमा प्रदान की है। इसी तरह दिल्ली में भी भोजपुरिया लोगों ने अपनी अलग पहचान बनाई है। सड़क से लेकर संसद तक भोजपुरियों की एक लंबी फेहरिस्त है। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने सत्ता के गलियारों में जिस भोजपुरियां संस्कार की नींव डाली थी, उसकी गुंज आज भी राष्ट्रपति भवन में सुनाई देती है।
दिल्ली की तरह ही कोलकाता में भी भोजपुरियां श्रम ने वहां के चटकल व्यवसाय को बुलंदी पर पहुंचाया था और आज भी वहां पर भोजपुरियों की दमदार उपस्थिति है। दक्षिण भारत में भी भोजपुरियों ने जाकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। यदि बंगलुरु की बात करें तो वहां के आईटी सेक्टर में भी ‘का हाल बा’ बोलने वालों की संख्या कम नहीं है।
सभी बातों का सार यह है कि भोजपुरियों ने अपनी कार्य-कौशलता के बल पर देश में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर ज्ञान-विज्ञान-व्यवसाय, साहित्य, सिनेमा सहित प्रत्येक क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवाई है। उम्मीद करता हूं कि हम भोजपुरिया अपनी मानवीय तासीर को ऐसे ही आगे बढ़ाते रहेंगे और देश-दुनिया में भोजपुरी माटी का बुलंद पताका फहराते रहेंगे।
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मंगलवार, 24 मार्च 2015
तय आपको करना है कि आप जाना कहाँ चाहते हैं?
हर गुनाह के जाने ही कितने पहलू और पक्षकार होते हैं लेकिन दिन के उजाले में कुछ ही पहलू और पक्षकार आते
हैं और बाकी विभिन्न पक्षकारों की सुविधा के अनुसार छिपा दिए जाते हैं। इस
काम को करने में बुद्धिजीवियों की महत्तपूर्ण भूमिका होती है जो अपनी
सुविधाओं (जिनका हुक्म बजाते हैं) के अनुसार तर्क गढते हैं और ये तर्क
अक्सर सत्य को छिपाकर अक्सर नये सत्य गढते हैं और गुनाहगार बच निकलता है और
लोग छाती पिटते रह जाते हैं।
एक
लम्बा इतिहास है भारत में जहाँ सैकड़ों हाशिमपुरा और गुजरात जैसे नरसंहार
लोगों की जिन्दगी में नासूर बनकर ताउम्रा सालते रहे है। ये इन्सान के
द्वारा इन्सान के लिए बनाई गई त्रासदियाँ हैं जिसमें दोनों ही पक्ष पिसता
है ठीक उस आदमी की तरह जिसका घर अचानक आए तुफान में गिर जाता है और वो आदमी
समझ नहीं पाता क्या करे और क्या ना करे। सालों लग जाते हैं उसको घर को
दुबारा बनाते-बनाते। पर घर बन जाने के बाद टीस कम हो जाती है। पर इस तरह के
नरसंहारों से होकर गुजरने वाला इन्सान उस त्रासदी के नासूर से ताउम्र हर
रोज़ मरता रहता है और कई बार उस नासूर को अगली पीढ़ी को भी देकर जाता है।
चाहे
वो हाशिमपुरा हो या गुजरात गलतियाँ दोनों पक्षों ने की जिसके लिए दोनों
पक्षों को सजा मिलनी चाहिए लेकिन बुद्धिवादियों ने सिर्फ एक पक्ष को दोषी
बना दिया और दूसरे पक्ष को दूध को धुला। लेकिन ऐसा कभी भी नहीं हुआ।
निष्पक्ष न्याय तो यही कहता है अगर गलती दोनों पक्षों ने की तो सजा दोनों
को मिलनी चाहिए और उसको ज्यादा जिसने पहला पत्थर फेंका। और न्याय करते हुए
आपको भूल जाना होगा कि उस पक्ष का धर्म या जाति क्या है? न्यायलय की दृष्टि
में वह सिर्फ और सिर्फ गुनाहगार है क्योंकि अगर आप गुनाहगार में धर्म और
जाति देखते हैं तो गुनाह को जान बुझकर बढावा दे रहे हैं। क्योंकि जिसको इस
बंटवारे से फायदा होगा वो उस गलती को दुहराते हुये डरेगा नहीं और जिसका
नुकसान होगा वो प्रतिक्रिया करेगा ही करेगा क्योंकि ये उसके लिए न्याय नहीं
हो सकता। ये इन्सानी स्वभाव है और ये चक्र चलता रहेगा। एक ना रुकने वाला
चक्र जिसमें हर कोई पीसता रहेगा। लोग लोकतन्त्र और न्यायलय को गालियाँ देते
रहेंगे पर लोग मरते रहेंगे। तादाद बढती जाएगी।
अब तय आपको करना है कि आप जाना कहाँ चाहते हैं?
बुधवार, 17 दिसंबर 2014
धर्म का खेला
कुछ लोग बड़े ही चिन्तित हैं कि भारत में इस्लाम और ईसायत पर हमला हो रहा है क्योंकि कुछ हिन्दूवादी संगठनों ने कुछ मुस्लमानों को तथाकथित रूप से हिन्दू बनाया था आगरा में और अलीगढ़ में तैयारी है कुछ और मुस्लमानों और ईसाइयों को हिन्दू बनाने की। तो कुछ लोग खुश हैं कि चलो कालचक्र का पहिया घूमना शुरू तो हुआ। माफी चाहूंगा पर आप दोनों ही गलत हैं। थोड़ा नहीं बहुत गलत हैं और आप लोगों के इस सोच या कर्म से ना तो राम खुश हो सकते हैं ना ही अल्लाह या ना ही गाड। आप सभी महाविद्वानों से नम्र निवेदन है (शायद आपके के अनुसार मैं इस काबिल नहीं हूँ) आप अपने-अपने धर्मों में पाए जाने वाली विसंगतियों एवं कुप्रथाओं की ओर ध्यान दें नहीं तो आप महाविद्वान लोग अपने-अपने धर्मों नारकीय बना देगें (खैर आपने बहुत हद तक बना दिया है धर्म और मानवता दोनों को) और लोग आपको धन्यवाद बोलकर नया रास्ता ले लेंगे पर तब आपकी बन्दूकें और धन सब धरी की धरी रह जाएंगी।
पता नहीं कौन सा जिहाद ये कि बच्चे छोटे भी काफ़िर हो गए।
माफ करना बच्चों तुम्हारे पिता और दादा कुछ ज्यादे ही सयाने हो गये हैं कि बन्दूक थामकर मजहब बचाने चले हैं………….।
© राजीव उपाध्याय
पता नहीं कौन सा जिहाद ये कि बच्चे छोटे भी काफ़िर हो गए।
माफ करना बच्चों तुम्हारे पिता और दादा कुछ ज्यादे ही सयाने हो गये हैं कि बन्दूक थामकर मजहब बचाने चले हैं………….।
© राजीव उपाध्याय
बुधवार, 1 अक्टूबर 2014
राजदीप सरदेसाई के लगे चाँटे का महत्त्व
राजदीप सरदेसाई को
जिस किसी व्यक्ति ने थप्पड़ मारा वह अनुचित है और उसके लिए उसे कानूनी के अनुसार
दण्ड मिलना ही चाहिए। बस इस घटना का इतना ही महत्त्व है इतनी सी बात ही काफी है।
इससे अधिक ना तो अलोचना या फिर भर्त्सना करने की आवश्यकता है और ना ही किसी विधवा
विलाप की (जो कुछ विद्वान एवं शान्तिप्रिय लोग कर रहे हैं) क्योंकि इस आदमी को आज अमेरीका
नहीं बल्कि जेल में होना चाहिए था पर ये पत्रकारी भगवान हैं अतः ये जो करते हैं वो
वेद ज्ञान है, जी नहीं माफी चाहता हँ, कोई दूसरे तरह का दैवीय ज्ञान है (क्योंकि
राजदीप जी को वेद और हिन्दू लुच्चे लफंगे और दंगाई लगते हैं)।
जितने भी विद्वान और
शान्तिप्रियता की बात करने वाले लोग हैं उनसे हाथ जोड़कर निवेदन है कि उन्हें चाहिए
कि भगवन राजदीप सरदेसाई जी से पूछें की उस महान शक्स (राजदीप सरदेसाई) को जेल में
क्यों नही होना चाहिए क्योंकि ये वही महान ईश्वरीय शक्ति हैं जो किसी ओवैसी और
तोगड़िया के खिलाफ फतवा जारी करते हैं देश का माहौल और धर्मनिरपेक्षता के ताना-बाना
तबाह करने के लिए जबकि आप स्वयं असम के दंगों पर फतवा जारी करते हैं कि ‘जब तक
1000 हिन्दू असम में नहीं मार दिए जाते और गुजरात का बदला पूरा नहीं होता तब तक
किसी भी समाचार पत्र और चैनल को इसके बारे में बात भी नहीं करना चाहिए।’ क्या उनका
ये महान दैवीय संदेश और न्यायप्रियता तथा भारतीय संविधान के प्रति इस समर्पण इस
देश का का माहौल और धर्मनिरपेक्षता के ताने-बाने को तबाह करने के लिए काफी नहीं था
(जिसके स्वयंभू संरक्षक आप स्वयं हैं)? क्या कुछ ऐसे ही बयानों के लिए ओवैसी और
तोगड़िया को जेल भेजने की माँग और मुकदमा किया जाता है क्योंकि आपके अनुसार वे
गुन्डे टाइप के नेता हैं तो क्या आप ही के अनुसार श्री 1008 श्री राजदीप सरदेसाई
जी गुन्डे टाइप के पत्रकार नहीं हैं? और अगर हे भगवन! आप मानते हैं कि आप गुन्डे
टाइप के पत्रकार नहीं (जिससे मुझे भी सहमत होना ही पड़ेगा क्योंकि आप ईश्वर जो हैं)
वरन सच्चे और निःस्वार्थी पत्रकार हैं क्योंकि आपने ट्विटर पर माफी माँग ली थी तो
फिर ओवैसी और तोगड़िया जैसे लोग कैसे गलत हो सकते हैं? वे तो कोर्ट में अपने बयानों
को तोड़ने और मरोड़ने का आरोप आप जैसे दैवीय लोगों पर लगाते हैं और कई बार बाकायदा
लिखकर कोर्ट में आम जनता से माफी भी माँगते हैं और हार थककर जेल भी जाते हैं? आपके
हिसाब से तो ऐसे लोग बिल्कुल सही और पाक-साफ हैं। पाक-साफ ही क्यों वे तो आप ही की
तरह देव हैं इनकी चरण वन्दना की जानी चाहिए जैसे की आपकी हो रही है।
हे देव! मुझे माफ
करना परन्तु बहुतों हिन्दूस्तानियों के दिल में ये दर्द घूमड़-घूमड़ कर उमड़ रहा है
कि इस कार्य में वे पीछे कैसे रह गए जबकि उनका इस कार्य में कोई सानी नहीं है।
© राजीव उपाध्याय
© राजीव उपाध्याय
गुरुवार, 25 सितंबर 2014
दीपिका पादुकोण: महिला सशक्तिकरण का नया प्रतिमान
इस देश में महिला सशक्तिकरण के मुद्दे
पर बहुत कुछ हो रहा है और इसी क्रम में दीपिका पादुकोण ने अभूतपूर्व योगदान दिया है।
ऐसा नहीं है कि दीपिका पादुकोण ने अकेले ही इस महान यज्ञ में आहुति दी है; और भी बहुत
लोग हैं और राजनीति एवं साहित्य जगत का योगदान भी महत्त्वपूर्ण और बहुत हद तक क्रान्तिकारी
है।
हुआ यूँ कि दीपिका का वक्षस्थल किसी
के नज़र में आ गया और उस कामी व्यक्ति ने उस स्वर्गीय एवं मनोहारी दृश्य को बाकी लोगों
के नज़र करने का अपराध कर मर्यादाओं का उलंघन कर दिया जो कि निश्चित रूप से स्त्री की
अस्मिता एवं सम्मान पर आक्रमण है। कदाचित ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर कोई कपड़ा नहीं पहनता
है तो ये उसकी स्वतंत्रता है और दीपिका ने सब कुछ कला के अभूतपूर्व विकास के लिए किया
है ठीक उसी तरह जैसे कुछ देवी देवताओं का नंगा चित्र बनाया गया था। भाई ये कला है अश्लीलता
नहीं और साथ ही स्त्री सशक्तिकरण का ज़रिया भी है। अतः दोष उस व्यक्ति और उन पुरूषों
का है जो स्त्री को गलत नज़रों से देखते हैं और कला एवं अश्लीलता को मिलाते हैं। आमिर
खान नंगा हो सकता है तो क्या दीपिका अपना वक्षस्थल भी नहीं दिखा सकती? ये बहुत अन्याय
है। ये पूर्णरूप से पुरूषवादी एवं सामंतवादी संकीर्ण सोच है। शर्म आनी चाहिए ऐसे पुरूषों
को जो चुपचाप मनोरंजन करने के बजाय सवाल उठा रहे हैं। मुझे लगता है ये सारे सवाल कहीं
दक्षिणपंथी किसी राजनैतिक साजिश के तहत तो नहीं कर रहे क्योंकि उनकी वजह से ही हुसैन
साहब को देश से बाहर मरना पड़ा था जबकि वो सिर्फ कला के विकास में योगदान दे रहे थे।
दीपिका तुम भी डरे रहना इन दक्षिणपंथियों से। वैसे हम तुम्हारे साथ हैं और हम सम्मान
की निगाहों से तुम्हें देखेंगे या फिर जैसे कहोगी वैसे देखेंगे।
शुक्रवार, 19 सितंबर 2014
विरोध जारी रखें
ये अच्छी बात है कि
आप बुद्धिमान, ज्ञानी एवं बुद्धिजीवी हैं। आप चीजों का विश्लेषण कर सकते हैं।
परन्तु आपका ज्ञान एवं विश्लेषण करने की क्षमता का प्रयोग कहाँ हो रहा है यह
ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। आजकल एक अच्छा रिवाज है कि आप अपने ज्ञान को प्रदर्शित
करने लिए किसी का विरोध करना प्रारम्भ कर दीजिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका
विरोध सही है या गलत। बस आपको अति की स्थिति तक विरोध करने आना चाहिए और विरोध
करते समय आप अपने कार्यों को विश्लेषण ना करने की आदत होनी चाहिए। शायद ये अच्छा
तरीका भी है लोगों के नज़रों में बने रहने का। कई बार पारितोषिक भी मिलता है। जी
चाहे तो हर बड़े चर्चित नाम के इतिहास को देख लें। अतः विरोध करने की परम्परा बनाए
रखें चाहे भले ही वो आपका मजाक उड़ाए।
© राजीव उपाध्याय
© राजीव उपाध्याय
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