पिछले कुछ समय से हिन्दी के उपभाषाएँ एवं बोलोयाँ कही जाने वाली भोजपुरी, राजस्थानी व अन्य लोकभाषाएँ अपने स्वतंत्र अस्तित्व व अधिकारों के लिए कागज से लेकर सड़क और सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष कर रही हैं। जिसका असर ये हुआ है कि हिन्दी के समर्थन में भी ध्रूवीकरण प्रारम्भ हो गया। हिन्दी के समर्थक इन माँगों को हिन्दी को कमजोर करने वाली व राष्ट्र की अस्मिता के लिए खतरा तक बता रहे हैं तो वहीं भोजपुरी व अन्य लोकभाषाओं के समर्थक हिन्दी को सामन्तवादी रुझान वाली भाषा बताते थक नहीं रहे हैं। यदि हम इन दो खेमों के माँगों एवं तर्कों पर ध्यान दें तो कम से कम इतना तो साफ हो ही जाता है कि दोनों तरफ कुछ ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं जो कतई ही स्वीकार्य नहीं किए जा सकते। हिन्दी पर सामन्तवादी होने का आरोप हो या फिर भोजपुरी व अन्य लोकभाषाओं के स्वतंत्र अस्तित्व से राष्ट्रीय अस्मिता पर आँच का आरोप सर्वदा ही प्रलाप हैं जो बिना सोचे समझे अपनी माँगों को मजबूती प्रदान के लिए दिया जा रहा है।
इस समस्त वाद-विवाद के बीच एक पक्ष ये भी है कि हिन्दी के समर्थकों ने सदा से ही हिन्दी को खतरे में देखा है। हिन्दी दुनिया की शायद एकमात्र राजकीय भाषा है जो सर्वदा ही खतरे में रहती है। हिन्दी सबसे पहले उर्दू से खतरे में आई। उर्दू से कुछ सीखकर आगे बढ़ने के बजाए हिन्दी ने योजनाबद्ध तरीके से उर्दू को एक धर्म विशेष के दायरे में बाँध दिया। अभी ये उपक्रम पुरा भी नहीं हुआ था कि हिन्दी अंग्रेजी से डरने लगी और देश की अन्य भाषाएँ हिन्दी से; जो अन्ततः राजनीति शास्त्र के नए पाठ गढ़कर समाप्त हुआ। फिर एक लम्बी खामोशी रही। अब तक जो भी चुनौतियाँ थीं वे सभी हिन्दी के दायरे से बाहर थीं पर अब जो चुनौती हिन्दी के सामने आने वाली थीं वो बाहरी नहीं बल्कि भीतरी थीं। हिन्दी की ही उपभाषा व बोली कही जाने वाली लोकभाषाओं के अन्दर अपने स्वतंत्र अस्तित्व की छटपटाहट सामने आने लगी और अन्ततः मैथिली संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल होकर इस बात की खुली मुनादी कर दी। मैथिली के आठवीं अनुसूची में शामिल होने से अन्य लोकभाषाएँ के अन्दर भी ये छटपटाहट खुलकर सामने आने लगी और भोजपुरी व राजस्थानी ने संगठित होकर आठवीं अनुसूची में शामिल की माँग को मजबूती के साथ रखना शुरू कर दिया। और ये देखकर हिन्दी के समर्थक भी अपनी वाजिब और गैरवाजिब बातों व तर्कों के साथ सामने आने लगे।
जिस तरह से इन भाषाओं के संभावित स्वतंत्र अस्तित्व का हिन्दी समर्थकों द्वारा विरोध किया जा रहा है उसे देखकर कारणों का अंदाजा लगाना बहुत कठिन नहीं है। वैसे भी इस शोर-शराबे का उद्देश्य हिन्दी की भलाई नहीं बल्कि कुछ व्यक्तिगत आवश्यकताएं एवं महत्त्वकांक्षाएँ हैं। यदि इमानदारी से अब तक जो कुछ घटा है उसका आकलन किया जाए तो सारे के सारे रहस्यों से पर्दा उठ जाएगा और पता चलेगा कि तथाकथित खतरे कुछ लोगों के गढ़े हुए खतरे हैं और इन गढ़े हुए खतरों के पीछे उन्हीं कुछ लोगों का निहित व्यक्तिगत हित छुपा हुआ है। इनकी घोषित-अघोषित महत्त्वकांक्षाएं हैं। कुछ लोगों की चर्चा में बने रहने की आकांक्षा है तो कुछ लोग अन्य हित जुड़े हुए हैं। नहीं तो जितना समर्थन हिन्दी को केन्द्र और राज्य सरकारों से मिला है उतने में तो हिन्दी का सर्वस्व बदल जाना चाहिए। परन्तु आज दशा ये है कुछ मुठ्ठी भर लोगों के सिवाए समस्त लोग हाशिए पर खड़े होकर राजदरबारी साहित्यकारों का मूँह देख रहे हैं। ये कुछ लोग वे हैं जो हिन्दी प्रदेशों की राजधानियों और दिल्ली की सत्ता गलियारों में सरकारी संसाधनों का आस्वाद लेने की कला में कहीं ज्यादा पारंगत हैं बजाए हिन्दी साहित्य में गहरे डूबने के।
इन लोकभाषाओं द्वारा अपने स्वतंत्र अस्तित्व के संघर्ष के विरोध में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं। हिन्दी के तथाकथित झंडेबरदार इस माँग राष्ट्रीय अस्मिता व एकता के लिए खतरा बता बता रहे हैं और बार-बार संख्या का हवाला दिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि यदि इन लोकभाषाओं का स्वतन्त्र अस्तित्व बना तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या घट जाएगी और हिन्दी का राजभाषा स्थान छीन जाएगा। समझ नहीं आता कि संख्या के आधार पर ये विद्वान क्या साबित करना चाहते हैं? यदि हिन्दी संख्या की दृष्टि से आठवें स्थान पर भी आ जाए तो क्या इसका महत्व घट जाएगा या फिर एक नं पर हो जाने से सारी दुनिया में स्वीकार्य हो जाएगी? अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो इस संदर्भ में संख्या का तर्क एक खेल मात्र नजर आता है। आज की सच्चाई ये है हिन्दी इस देश में संपर्क की सबसे बड़ी भाषा है और ये दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है और बढ़ती ही जाएगी।
यदि हम नब्बे दशक में लौटकर टेलीविजिन के कार्यक्रमों को याद करें तो याद आता है कि उस दौर में टीवी आने वाले लगभग सभी विज्ञापन एवं समाचार अंग्रेजी में हुआ करते थे परन्तु इक्कीसवीं सदी के दस्तक के साथ सब कुछ बदल गया। आज दर्जनों हिन्दी समाचार के टीवी चैनल हैं जिन पर लगभग सारे विज्ञापन हिन्दी में आते हैं। क्या ये हिन्दी की बढ़ती शक्ति का परिचायक नहीं है? आज दक्षिण भारत कि फिल्मों में हिन्दी के शब्द प्रयोग होने लगे हैं और दुनिया की लगभग हर भाषाओं की फिल्में हिन्दी में डब होने लगी हैं; क्या ये हिन्दी के विस्तार का सूचक नहीं है? आज से डेढ दशक पहले हिन्दी की बेवसाइट बहुत ही कम थीं परन्तु आज इन्टरनेट पर दुनिया में सबसे तेजी से बढने वाली भाषाओं में हिन्दी भी शामिल है; क्या ये बाजार में हिन्दी के सामर्थ्य को नहीं दर्शाता? आज ई-कामर्स पोर्टल्स पर हिन्दी के अनेक किताबें बेस्ट सेलर हैं; क्या ये बढते पाठकों की ओर सूचित नहीं कर रहा है? आज भारत के लगभग अधिकतर शहरों एवं बड़े कस्बों (दक्षिण एवं उत्तर पूर्व को छोड़कर) में जनसाधारण की भाषा हिन्दी बनती जा रही है और शहरों एवं कस्बों की नई पीढियों की मातृभाषा का स्थान हिन्दी ने ले लिया है। आज हर साल हजारों किताबों का दूसरी भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद हो रहा है। हाँ हिन्दी से अन्य भाषाओं में अनुवाद की जाने वाली पुस्तकों संख्या जरूर कम है परन्तु इसका कारण हिन्दी की कमजोरी नहीं है बल्कि हिन्दी लेखकों की कमजोरी को दर्शाता है। ऐसे अनेक सूचक हैं जो बड़ी स्पष्टता से इंगित कर रहे हैं कि आजाद भारत के इन सत्तर सालों में हिन्दी ने एक भाषा के रूप में एक लम्बी यात्रा तय की है और बाजार में खड़ा होने, संघर्ष करने एवं उस संघर्ष में विजयी होने की कला सीख ली है। और शायद वो दिन दूर नहीं है जब हिन्दी पूरे भारत की संपर्क भाषा बन जाएगी। हाँ बस जरूरत है तो कुछ दशक के प्रतीक्षा एवं बेहतर साहित्य सृजन की। क्योंकि साहित्य ही किसी भाषा का ब्रांड एम्बेसडर होता है। यदि ब्रांड एम्बेसडर विश्वनीय हो तो बहुत आसान होता है प्रोडक्ट को बेचना।
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