चौक से चलकर, मंडी से, बाज़ार से होकर
लाल गली से गुज़री है कागज़ की कश्ती
बारिश के लावारिस पानी पर बैठी बेचारी कश्ती
शहर की आवारा गलियों से सहमी-सहमी पूछ रही हैं
हर कश्ती का साहिल होता है तो
एक मासूम से बच्चे ने
बेमानी को मानी देकर
रद्दी के कागज़ पर कैसा ज़ुल्म किया है?
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सम्पूर्ण सिंह कालरा 'गुलज़ार'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-08-2019) को "चार कदम की दूरी" (चर्चा अंक- 3443) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'