हमारे बाप-दादे भी कैसे घामड़ थे जो मक्खन खाते थे। बताइए, मक्खन भी कोई खाने की चीज है! खट्टी-खट्टी डकारें आती हैं। पेट तूंबे की तरह फूल जाता है और गुड़गुड़ाने लगता है - कि जैसे अली अकबर सरोद बजा रहे हों या कोई भूत पेट के भीतर बैठा हुक्का पी रहा हो। और वायु तो इतनी बनती है, इतनी बनती है, कि चाहो तो उससे पवन-चक्की चला लो! क्या फायदा ऐसी चीज खाने से। दो ही चार महीनों में शरीर फूलकर कुप्पा हो जाता है - और अच्छा भला आदमी मिठाईवाला नजर आने लगता है, ढाई मन गेहूँ के बोरे जैसी तोंद और मुग्दर जैसे हाथ-पाँव। सिर्फ नजर आने की बात हो तब भी कोई बात नहीं। मुश्किल तो तब पैदा होती है जब पाँच कदम चलते ही दम फूलने लगता है जो इस बात की अलामत है कि दिल के लिए अब इस पहाड़ जैसी लहास को ढो पाना कठिन है। और अगर तब भी आदमी न चेता तो दिल थककर बैठ जाता है। उसी का नाम हार्ट-फेल है।
कहने का मतलब ये कि मक्खन खाने और हार्ट-फेल का सीधा संबंध है। जभी तो डॉक्टरों ने मक्खन खाने पर एक सिरे से रोक लगा दी है। कोई समझदार आदमी अब मक्खन नहीं खाता। जब तक पेट-शेट की गड़बड़ी तक की ही बात लोगों को मालूम थी तब तक फिर भी थोड़ी-बहुत छूट थी लेकिन दिल का मामला तो आप जानते ही हैं बहुत संगीन होता है। किसे अपनी जान भारी है जो मक्खन खाने जाय। लेकिन आदत छूटते-छूटते भी काफी समय लगा। वो तो जब यहाँ-वहाँ सौ-पचास हार्दिक दुर्घटनाएँ हुई तब असल में लोगों के कान खड़े हुए - और अब तब तो ये हाल है कि पढ़े-लिखे लोग दूर से ही मक्खन को प्रणाम करते हैं, ना बाबा, अपना मक्खन अपने पास ही रख्खो, हमें नहीं खाना कोई मक्खन-वक्खन!
बिल्कुल ठीक बात है। मक्खन एक तरह का मीठा जहर है। उसके पास भी नहीं फटकना चाहिए। बड़ी भयानक चीज है। बमगोले की मार से आप एक बार बच भी सकते हैं, मक्खन के गोले की मार से नहीं बच सकते। भूलकर भी उसे मुँह नहीं लगाना चाहिए। वह खाने की चीज है ही नहीं। पता नहीं कब और कैसे, किस शैतानी प्रेरणा से, दुनिया में मक्खन खाने का चलन हो गया। अपने शास्त्रों और पुराणों में तो मुझे कहीं इसका कोई प्रमाण मिला नहीं। यहाँ तक कि सूरसागर में भी नही, जिसकी मैंने खूब-खूब डुबकी लगाई और यही सोचकर लगाई कि हमारे लीलावतार भगवान श्रीकृष्ण का नाम अविच्छिन्न रूप में माखन-चोरी के साथ जुड़ा है, तो जहाँ उनकी और सब लीलाएँ बताई गई हैं वहीं कौन जाने उनके मक्खन खाने के बारे में भी कोई प्रमाण मिल जाए, मगर मुझे तो कहीं कुछ भी नहीं मिला। दूध-दही खाने का तो बार-बार मिलता है, जैसे यही देखिए जशोदा मैया कन्हैया जी को दूध पीने के लिए फुसला रही हैं :
सो कन्हैयाजी कजरी का दूध पीने लगते हैं मगर बेनी-वेनी कुछ बढ़ती नहीं तो एक रोज वह अपनी माँ को उलाहना देते हैं :
फिर एक जगह कन्हैयाजी दही-रोटी की फरमाइश करते भी दिखाई देते हैं :
कन्हैयाजी और बलराम, दोनों भाई, एक जगा सबेरे-सबेरे झगड़ा करते भी दिखाए गए हैं :
दूध के बाद मामला दही पर पहुँचा, फिर दही से घी और मिठाई पर पहुँचा लेकिन मक्खन का कहीं नाम नहीं। यहाँ तक कि जहाँ उनके कलेवे का विस्तृत वर्णन है, वहाँ भी नहीं :
कैसी लंबी-चौड़ी सूची है जिसमें कितने तरह के मेवे, मिठाइयाँ, फल फलारी, ये-वो सभी कुछ हाजिर है, यहाँ तक कि मुखशुद्धि के लिए पनवाड़ी सूरदास अपना पान लेकर भी मौजूद है, लेकिन आप भी चाहें तो बाँच जाएँ ऊपर से नीचे तक मक्खन का कहीं नाम भी नहीं।
उस दिन कन्हैयाजी की मनपसंद कुछ चीजें छूट गई थीं कलेवे में तो अगले रोज वो भी पेश की गईं :
लेकिन इस नई सूची में भी मक्खन का कहीं अता-पता नहीं। चलिए, मैं यह भी माने लेता हूँ कि कन्हैयाजी को कलेवे में मक्खन खाना नहीं पसंद था - यों, सही या गलत, दुनिया में चलन इसी का ज्यादा है - वो लंच के साथ मक्खन लेना पसंद करते थे। लेकिन इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। सब जानते हैं कि जसोदाजी अपने लाड़ले को हमेशा उसकी रुचि की चीजें जुटाकर उसके आगे परोसती थीं, मगर मक्खन का तो यहाँ भी कहीं नाम नहीं :
चलो, जाने दो, उस दिन के मेनू में मक्खन न रहा होगा। लीजिए और एक दिन का मेनू-कार्ड :
इस गहरी छानबीन से मुझे यह तो अच्छी तरह पता चल गया कि कन्हैयाजी की सबसे मनभावन चीजें कौन-कौन सी हैं। किसी दिन वो मेरे मेहमान हुए तो मैं वही-वही चीजें उन्हें पेश करूँगा - अभी-अभी कड़ाह से निकली हुई जलेबियाँ, घेवर, मालपुआ, मोतीचूर का लड्डू, पूरी, लपसी, खूब औटाया हुआ अधातट का दूध और इस सब तर माल के साथ करौंदे की चटनी और मसूर की दाल। लेकिन मक्खन बेचारे की यहाँ भी कहीं गिनती नहीं। पता नहीं कन्हैयाजी के बारे यह प्रवाद कहाँ से फैल गया कि उन्हें मक्खन खाना बहुत अच्छा लगता था जब कि खुद बेचारे ने मुजरिम के कठघरे में खड़े होकर और निश्चय ही गीता हाथ में लेकर जसोदा मैया के सामने बार-बार इसकी कसम खाई है कि :
लेकिन जसोदा मैया भी कुछ ऐसी भोली तो थीं नहीं कि गीता हाथ में लेने से ही उनकी बात को सच मान लेतीं। उन्होंने जरूर आगे बढ़कर जवाब तलब किया होगा - तूने मक्खन नहीं खाया तो यह तेरे मुँह में कैसे लगा है?
तब लीलावतार कन्हैयाजी ने उनको पूरी बात बताई, कैसे क्या हुआ :
जसोदा मैया निरुत्तर हो गईं। लाल बिलकुल ठीक कहता है। किसी के मुँह में मक्खन पोत देना कोई मुश्किल काम तो है नहीं।
वो दिन था और आज का दिन है, कन्हैयाजी के मुँह के इर्द-गिर्द वह मक्खन ज्यों का त्यों पुता हुअ है और लाखों-करोड़ों लोग माने बैठे हैं कि उनको मक्खन खाना अच्छा लगता था जब कि इसका कहीं कोई प्रमाण नहीं है।
यह ठीक है कि उनको गोपियों के घर-घर जाकर मक्खन चुराना अच्छा लगता था, पर मक्खन चुराना और मक्खन खाना दो अलग क्रियाएँ हैं, उन्हें गडमड करना ठीक नहीं। कन्हैयाजी मक्खन चुराते थे क्योंकि उन्हें जवान अल्हड़ गोपियों के साथ छेड़छाड़ करना अच्छा लगता था, इसलिए नहीं कि उन्हें मक्खन खाना अच्छा लगता था। उन्हें गोपियों से मतलब था, उनके मक्खन से नहीं, मक्खन तो महज एक बहाना था - जैसे कोई भी बहाना जो हम-आप आए दिन अपनी सजनी और अपने साजन के साथ छेड़छाड़ करने के लिए काम में लाते हैं, कहीं किसी ने किसी की टोपी या जूता लेकर छिपा दिया, कोई किसी की अँगिया दबाकर बैठ रहा। बस, इससे ज्यादा कोई महत्व उस माखनचोरी का नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कन्हैयाजी को मक्खन खाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था - यहाँ तक कि अगर कभी नंद-जसोदा की जोर-जबर्दस्ती के कारण बेचारे को मक्खन खाना ही पड़ गया तो उसकी जान पर बन आई :
इससे ज्यादा कोई और कर ही क्या सकता है अपनी घोरतम अनिच्छा और अरुचि को व्यक्त करने के लिए। लेकिन कैसी अंधेर है कि लोग इतने पर भी अपना वही पुराना बेतुक राग अलापे जाते हैं। धोखे से कभी उनके मुँह में भी मक्खन लग गया हो, यानी लगा दिया गया हो तो और बात है वरना उनकी प्रसिद्धि तो यही है - सोभित कर नवनीत लिए!
क्या कहे क्या सुनावे बेचारी, उसका तो खुशी के मारे हाल बेहाल है। और कन्हैयाजी तो कन्हैयाजी, अंतर्यामी, सो आज इसके घर तो कल उसके घर मक्खन चुराने पहुँच जाते हैं - और किसी कारण से नहीं, उन्हीं गोपियों का मन रखने को :
लेकिन इतने से न तो गोपियों का जी भरता था और न कन्हैयाजी का, तो फिर कन्हैयाजी उन्हीं गोपियों का मक्खन चुराकर उनको मक्खन लगाने लगे - लगाने क्या लगे, भरपूर चपोड़ने लगे दोनों हाथों से। गोपियाँ थीं सब जैसी थीं, भली बुरी भी, जैसा भगवान ने उन्हें बनाया था - कोई भदभद कोई छरहरी, किसी की आँखें छोटी किसी की बड़ी, किसी की कमर मोटी किसी की पतली, किसी की नाक खड़ी किसी की चपटी और हाँ, वो भी किसी के कैसे किसी के कैसे, लेकिन कन्हैयाजी उन सभी को ऐसे मक्खन लगाते थे कि जैसे उन्होंने रीतिकालीन कवियों के साथ बैठकर विधिवत नायिका भेद का पारायण किया हो! फिर क्या पूछना है, उस मक्खन के लेप से वो सभी गोपियाँ पद्मिनी नायिकाएँ बन जाती थीं - किसी के बाल भौंरे जैसे किसी के काजल जैसे, किसी की आँखें मछलियों जैसी किसी की हिरनियों जैसी, नाक सबकी सुग्गे की ठोर, दाँत सबके दाड़िम, किसी की गरदन सुराहीदार और किसी की शंख जैसी, नितंब सबके भारी-भारी चिकने घड़े, कमर सबकी नदारद, जाँघें जैसे केले के खंभे, बस कुछ पूछो मत, मक्खन का कुछ ऐसा ही चमत्कार है।
क्या गजब का जादू है इस मक्खन की गोली में। जो काम बंदूक की गोली भी नहीं कर सकती, वह ये नन्हीं सी मक्खन की गोली करती है। यहाँ तक कि जहाँ चाँदी का जूता भी नहीं चलता वहाँ मक्खन का लेप काम कर जाता है। बस एक शर्त है कि उसका ढंग आना चाहिए, जो किसी उस्ताद से गंडा बंधवाए बगैर मुश्किल है। आप जो यह सोचें कि मक्खन तो मक्खन, लाओ चाहे जैसे उसका पलस्तर चढ़ा चलें तो उससे काम नहीं बनने का - बनना तो दूर रहा, बिगड़ भी जा सकता है। मक्खन लगाना कोई गोबर पाथना नहीं है, लिया और चाहे जैसे फूहड़ हाथों से पाथ दिया - वह एक ललित कला है, जैसे चित्र में रंग लगाना। उसके लिए हल्की-फुल्की कलात्मक उँगलियाँ चाहिए और चाहिए गहरी अंतर्दृष्टि। हर चित्र के लिए कलाकार की जैसे अलग रंगयोजना होती वैसे ही हर व्यक्ति के लिए इस कलाकार की अलग स्नेह-योजना होती है। एक ही लाठी से सबको नहीं हाँका जाता है। गहरी मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ से पहले आदमी को परखा जाता है, फिर यह तय किया जाता है कि उसको किधर से और क्यों कर मक्खन लगाना सर्वाधिक गुणकारी होगा। वैसे, इतना तो आप गठिया ही लें कि ऐसा आदमी आज तक जन्मा ही नहीं जिस पर मक्खन काम न करे। हाँ, कुछ लोग बड़ा बिदकते हैं उससे, मगर अच्छे मक्खनबाज के लिए इसमें घबराने की कोई बात नहीं - एक न एक पेंच से सब चित हो जाते हैं, और वो बिदकनेवाले शायद सबसे पहले। लेकिन उसके लिए जरूरी है कि खिलाड़ी को सब पेंच आते हों। मुद्दे की बात उसमें इतनी ही है कि ये भी एक बड़ा नर्म और नाजुक खेल है, कुछ वैसा ही जैसा जेब कतरना। वो हाथ की सफाई कि पता भी नहीं चला और मक्खन लग गया जिसे लगाना था और ऐसा भरपूर लगा कि उसकी चिकनाई चेहरे पर उतर आई और आँखों में एक नशा सा छा गया और मुखड़े पर एक अदद मुस्कराहट जो छिपाए नहीं छिपती। अब माँग लो जो कुछ माँगना हो।
कहने का मतलब ये कि मक्खन खाने और हार्ट-फेल का सीधा संबंध है। जभी तो डॉक्टरों ने मक्खन खाने पर एक सिरे से रोक लगा दी है। कोई समझदार आदमी अब मक्खन नहीं खाता। जब तक पेट-शेट की गड़बड़ी तक की ही बात लोगों को मालूम थी तब तक फिर भी थोड़ी-बहुत छूट थी लेकिन दिल का मामला तो आप जानते ही हैं बहुत संगीन होता है। किसे अपनी जान भारी है जो मक्खन खाने जाय। लेकिन आदत छूटते-छूटते भी काफी समय लगा। वो तो जब यहाँ-वहाँ सौ-पचास हार्दिक दुर्घटनाएँ हुई तब असल में लोगों के कान खड़े हुए - और अब तब तो ये हाल है कि पढ़े-लिखे लोग दूर से ही मक्खन को प्रणाम करते हैं, ना बाबा, अपना मक्खन अपने पास ही रख्खो, हमें नहीं खाना कोई मक्खन-वक्खन!
बिल्कुल ठीक बात है। मक्खन एक तरह का मीठा जहर है। उसके पास भी नहीं फटकना चाहिए। बड़ी भयानक चीज है। बमगोले की मार से आप एक बार बच भी सकते हैं, मक्खन के गोले की मार से नहीं बच सकते। भूलकर भी उसे मुँह नहीं लगाना चाहिए। वह खाने की चीज है ही नहीं। पता नहीं कब और कैसे, किस शैतानी प्रेरणा से, दुनिया में मक्खन खाने का चलन हो गया। अपने शास्त्रों और पुराणों में तो मुझे कहीं इसका कोई प्रमाण मिला नहीं। यहाँ तक कि सूरसागर में भी नही, जिसकी मैंने खूब-खूब डुबकी लगाई और यही सोचकर लगाई कि हमारे लीलावतार भगवान श्रीकृष्ण का नाम अविच्छिन्न रूप में माखन-चोरी के साथ जुड़ा है, तो जहाँ उनकी और सब लीलाएँ बताई गई हैं वहीं कौन जाने उनके मक्खन खाने के बारे में भी कोई प्रमाण मिल जाए, मगर मुझे तो कहीं कुछ भी नहीं मिला। दूध-दही खाने का तो बार-बार मिलता है, जैसे यही देखिए जशोदा मैया कन्हैया जी को दूध पीने के लिए फुसला रही हैं :
कजरी कौ पय पियहु लाल, जासौं तेरी बेनी बढ़ै।
सो कन्हैयाजी कजरी का दूध पीने लगते हैं मगर बेनी-वेनी कुछ बढ़ती नहीं तो एक रोज वह अपनी माँ को उलाहना देते हैं :
मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई
यह अजहूँ है छोटी।
किती बार मोहिं दूध पियत भई
यह अजहूँ है छोटी।
फिर एक जगह कन्हैयाजी दही-रोटी की फरमाइश करते भी दिखाई देते हैं :
गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी।
कन्हैयाजी और बलराम, दोनों भाई, एक जगा सबेरे-सबेरे झगड़ा करते भी दिखाए गए हैं :
कनक-कटोरा प्रातही, दधि घृत सु मिठाई खेलत-खात गिरावहीं, झगरत दोउ भाई।
दूध के बाद मामला दही पर पहुँचा, फिर दही से घी और मिठाई पर पहुँचा लेकिन मक्खन का कहीं नाम नहीं। यहाँ तक कि जहाँ उनके कलेवे का विस्तृत वर्णन है, वहाँ भी नहीं :
उठिए स्याम, कलेऊ, कीजै। मनमोहन मुख निरखत जीजै।
खारिक, दाख, खोपरा, खीरा। केरा, आम, ऊख रस सीरा।
श्रीफल मधुर, चिरौंजी आनी। सफरी चिउरा, अरुन खुबानी।
घेवर फेनी और सुहारी। खोवा सहित खाहु बलिहारी।
रचि पिराक लाडू दधि आनौ। तुमकौं भावत पुरी संधानों।
तब तमोल रचि तुमहिं खवावौ। सूरदास पनवारी पावौं।
खारिक, दाख, खोपरा, खीरा। केरा, आम, ऊख रस सीरा।
श्रीफल मधुर, चिरौंजी आनी। सफरी चिउरा, अरुन खुबानी।
घेवर फेनी और सुहारी। खोवा सहित खाहु बलिहारी।
रचि पिराक लाडू दधि आनौ। तुमकौं भावत पुरी संधानों।
तब तमोल रचि तुमहिं खवावौ। सूरदास पनवारी पावौं।
कैसी लंबी-चौड़ी सूची है जिसमें कितने तरह के मेवे, मिठाइयाँ, फल फलारी, ये-वो सभी कुछ हाजिर है, यहाँ तक कि मुखशुद्धि के लिए पनवाड़ी सूरदास अपना पान लेकर भी मौजूद है, लेकिन आप भी चाहें तो बाँच जाएँ ऊपर से नीचे तक मक्खन का कहीं नाम भी नहीं।
उस दिन कन्हैयाजी की मनपसंद कुछ चीजें छूट गई थीं कलेवे में तो अगले रोज वो भी पेश की गईं :
खारिक, दाख, चिरौंजी, किसमिस, उज्ज्वल गरी बदाम।
सफरी, सेव, छुहारे, पिस्ता, जे तरबूजा नाम।
अरु मेवा बहु भाँति भाँति हैं, षटरस के मिष्ठान्न।
सफरी, सेव, छुहारे, पिस्ता, जे तरबूजा नाम।
अरु मेवा बहु भाँति भाँति हैं, षटरस के मिष्ठान्न।
लेकिन इस नई सूची में भी मक्खन का कहीं अता-पता नहीं। चलिए, मैं यह भी माने लेता हूँ कि कन्हैयाजी को कलेवे में मक्खन खाना नहीं पसंद था - यों, सही या गलत, दुनिया में चलन इसी का ज्यादा है - वो लंच के साथ मक्खन लेना पसंद करते थे। लेकिन इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। सब जानते हैं कि जसोदाजी अपने लाड़ले को हमेशा उसकी रुचि की चीजें जुटाकर उसके आगे परोसती थीं, मगर मक्खन का तो यहाँ भी कहीं नाम नहीं :
चलौ लाल कुछ करौ बियारी
निबुआ, सूरन, आम, अथानो और करौंदनि की रुचि न्यारी
बार-बार यों कहति जसोदा, कहि ल्यावै रोहिनी महतारी।
निबुआ, सूरन, आम, अथानो और करौंदनि की रुचि न्यारी
बार-बार यों कहति जसोदा, कहि ल्यावै रोहिनी महतारी।
चलो, जाने दो, उस दिन के मेनू में मक्खन न रहा होगा। लीजिए और एक दिन का मेनू-कार्ड :
कमल-नैन हरि करौं बियारी।
लुचुई, लपसी, सद्य जलेबी, सोई जेवहु जो लगै पियारी।
घेवर, मालपुआ, मोतीलाडू, सघर खजूरी, सरस सँवारी।
दूध, बरा, उत्तम दधि बाटी, दाल मसूरी की रुचि न्यारी।
आछौ दूध औटि धौरी कौ, लै आई रोहिनि महतारी।
सूरदास बलराम स्याम दोउ जेंवहु जननि जाई बलिहारी।
लुचुई, लपसी, सद्य जलेबी, सोई जेवहु जो लगै पियारी।
घेवर, मालपुआ, मोतीलाडू, सघर खजूरी, सरस सँवारी।
दूध, बरा, उत्तम दधि बाटी, दाल मसूरी की रुचि न्यारी।
आछौ दूध औटि धौरी कौ, लै आई रोहिनि महतारी।
सूरदास बलराम स्याम दोउ जेंवहु जननि जाई बलिहारी।
इस गहरी छानबीन से मुझे यह तो अच्छी तरह पता चल गया कि कन्हैयाजी की सबसे मनभावन चीजें कौन-कौन सी हैं। किसी दिन वो मेरे मेहमान हुए तो मैं वही-वही चीजें उन्हें पेश करूँगा - अभी-अभी कड़ाह से निकली हुई जलेबियाँ, घेवर, मालपुआ, मोतीचूर का लड्डू, पूरी, लपसी, खूब औटाया हुआ अधातट का दूध और इस सब तर माल के साथ करौंदे की चटनी और मसूर की दाल। लेकिन मक्खन बेचारे की यहाँ भी कहीं गिनती नहीं। पता नहीं कन्हैयाजी के बारे यह प्रवाद कहाँ से फैल गया कि उन्हें मक्खन खाना बहुत अच्छा लगता था जब कि खुद बेचारे ने मुजरिम के कठघरे में खड़े होकर और निश्चय ही गीता हाथ में लेकर जसोदा मैया के सामने बार-बार इसकी कसम खाई है कि :
मैया, मैं नहिं माखन खायो
लेकिन जसोदा मैया भी कुछ ऐसी भोली तो थीं नहीं कि गीता हाथ में लेने से ही उनकी बात को सच मान लेतीं। उन्होंने जरूर आगे बढ़कर जवाब तलब किया होगा - तूने मक्खन नहीं खाया तो यह तेरे मुँह में कैसे लगा है?
तब लीलावतार कन्हैयाजी ने उनको पूरी बात बताई, कैसे क्या हुआ :
खयाल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लिपटायो
जसोदा मैया निरुत्तर हो गईं। लाल बिलकुल ठीक कहता है। किसी के मुँह में मक्खन पोत देना कोई मुश्किल काम तो है नहीं।
वो दिन था और आज का दिन है, कन्हैयाजी के मुँह के इर्द-गिर्द वह मक्खन ज्यों का त्यों पुता हुअ है और लाखों-करोड़ों लोग माने बैठे हैं कि उनको मक्खन खाना अच्छा लगता था जब कि इसका कहीं कोई प्रमाण नहीं है।
यह ठीक है कि उनको गोपियों के घर-घर जाकर मक्खन चुराना अच्छा लगता था, पर मक्खन चुराना और मक्खन खाना दो अलग क्रियाएँ हैं, उन्हें गडमड करना ठीक नहीं। कन्हैयाजी मक्खन चुराते थे क्योंकि उन्हें जवान अल्हड़ गोपियों के साथ छेड़छाड़ करना अच्छा लगता था, इसलिए नहीं कि उन्हें मक्खन खाना अच्छा लगता था। उन्हें गोपियों से मतलब था, उनके मक्खन से नहीं, मक्खन तो महज एक बहाना था - जैसे कोई भी बहाना जो हम-आप आए दिन अपनी सजनी और अपने साजन के साथ छेड़छाड़ करने के लिए काम में लाते हैं, कहीं किसी ने किसी की टोपी या जूता लेकर छिपा दिया, कोई किसी की अँगिया दबाकर बैठ रहा। बस, इससे ज्यादा कोई महत्व उस माखनचोरी का नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कन्हैयाजी को मक्खन खाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था - यहाँ तक कि अगर कभी नंद-जसोदा की जोर-जबर्दस्ती के कारण बेचारे को मक्खन खाना ही पड़ गया तो उसकी जान पर बन आई :
खीझत जात माखन खात।
अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात।
अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात।
इससे ज्यादा कोई और कर ही क्या सकता है अपनी घोरतम अनिच्छा और अरुचि को व्यक्त करने के लिए। लेकिन कैसी अंधेर है कि लोग इतने पर भी अपना वही पुराना बेतुक राग अलापे जाते हैं। धोखे से कभी उनके मुँह में भी मक्खन लग गया हो, यानी लगा दिया गया हो तो और बात है वरना उनकी प्रसिद्धि तो यही है - सोभित कर नवनीत लिए!
*****
इस तरह अब कोई दो मत इसके बारे में नहीं हैं कि कन्हैयाजी हाथ में नैनू का लोंदा लिए घूमा करते - अमूल की तो बात ही छोड़ो, तब तक पोल्सन भी नहीं निकला था वर्ना उनके भी हाथ में पोल्सन का डिब्बा होता, जैसा नए युग के नए लीलावतारों के हाथ में होता है। जो हो, मक्खन का उचित उपयोग तो उन्होंने बता ही दिया, और बता ही नहीं दिया करके दिखा दिया। सच तो ये है कि उनकी माखनचोरी भी गोपियों को मक्खन लगाने का ही एक ढंग है। जिसके घर वह मक्खन चुराने पहुँच जाते वह फूली-फूली फिरने लगती : 2
फूली फिरति ग्वालि मन मैं री।
पूछत सखी परस्पर बातें, पायौ परयौ कछू कहुँ तैं री?
पुलकित रोम रोम गदगद्, मुख बानी कहत न आवै।
ऐसौ कहा अहि सो सखि री, हमकौं क्यों न सुनावै।
पूछत सखी परस्पर बातें, पायौ परयौ कछू कहुँ तैं री?
पुलकित रोम रोम गदगद्, मुख बानी कहत न आवै।
ऐसौ कहा अहि सो सखि री, हमकौं क्यों न सुनावै।
क्या कहे क्या सुनावे बेचारी, उसका तो खुशी के मारे हाल बेहाल है। और कन्हैयाजी तो कन्हैयाजी, अंतर्यामी, सो आज इसके घर तो कल उसके घर मक्खन चुराने पहुँच जाते हैं - और किसी कारण से नहीं, उन्हीं गोपियों का मन रखने को :
प्रथम करि हरि माखनचोरी।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी।
लेकिन इतने से न तो गोपियों का जी भरता था और न कन्हैयाजी का, तो फिर कन्हैयाजी उन्हीं गोपियों का मक्खन चुराकर उनको मक्खन लगाने लगे - लगाने क्या लगे, भरपूर चपोड़ने लगे दोनों हाथों से। गोपियाँ थीं सब जैसी थीं, भली बुरी भी, जैसा भगवान ने उन्हें बनाया था - कोई भदभद कोई छरहरी, किसी की आँखें छोटी किसी की बड़ी, किसी की कमर मोटी किसी की पतली, किसी की नाक खड़ी किसी की चपटी और हाँ, वो भी किसी के कैसे किसी के कैसे, लेकिन कन्हैयाजी उन सभी को ऐसे मक्खन लगाते थे कि जैसे उन्होंने रीतिकालीन कवियों के साथ बैठकर विधिवत नायिका भेद का पारायण किया हो! फिर क्या पूछना है, उस मक्खन के लेप से वो सभी गोपियाँ पद्मिनी नायिकाएँ बन जाती थीं - किसी के बाल भौंरे जैसे किसी के काजल जैसे, किसी की आँखें मछलियों जैसी किसी की हिरनियों जैसी, नाक सबकी सुग्गे की ठोर, दाँत सबके दाड़िम, किसी की गरदन सुराहीदार और किसी की शंख जैसी, नितंब सबके भारी-भारी चिकने घड़े, कमर सबकी नदारद, जाँघें जैसे केले के खंभे, बस कुछ पूछो मत, मक्खन का कुछ ऐसा ही चमत्कार है।
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क्या कहना है, कन्हैयाजी दुनिया को रास्ता दिखा गए, मक्खन के सदुपयोग का। पहले तो एक अकेले वही थे, आज जिसे देखो वही सोभित कर नवनीत लिए। घरों में बाजारों में, दफ्तरों में कारखानों में, सब तरफ उसी की चलत-फिरत है। बीवी नाराज हो, साहब की नजर टेढ़ी हो, नौकरी के लिए मारधाड़ मची हो, अपना माल बेचने को आप गली-गली मारे-मारे फिर रहे हों बाबू लोग वर्क-टू-रूल कर रहे हों यानी हाथ पर हाथ धरे बैठे हों, प्रेमिका रूठ गई हो, किसी ऊँची या नीची कुर्सीवाले से कोई लैसन-परमिट निकलवाना हो, फ्रीडम फाइटरवाली पेन्शन लेनी हो, रेलगाड़ी में अपनी सीट या बर्थ आरक्षित करानी हो, राशन की दुकान से अपना राशन उठाना हो, बैंक से रुपया निकालना हो, परीक्षा में नंबर बढ़वाने हों, डाकखाने से रजिस्टरी करानी या छुड़वानी हो, सबकी एक अचूक दवा मक्खन है। मक्खन जिस जीवनदर्शन का नाम है, वह किसी काम को छोटा मानता है और न किसी को बड़ा स्थितिप्रज्ञ होने के नाते मक्खन समदृष्टि होता है। अंतर केवल मक्खन की मात्रा में होता है - कहीं तोला भर और कहीं दो किलो, जहाँ जैसी जरूरत हो। उसी प्रकार आदमियों के प्रति वह अपनी एक्सरे दृष्टि से काम लेता है - आदमी के पार वह केवल उसकी कुर्सी को देखता है। कैसा भी चपरगट्टू वहाँ बैठा हो, वह मक्खन का अधिकारी है क्योंकि अधिकारी है। इस तरह यह भी कहा जा सकता है कि मक्खन आदमी को नहीं उसकी कुर्सी को लगाया जाता है, आसन को, जो जिसका प्रिय आसन हो! मक्खन की सार्वभौम विजय का रहस्य भी यही है कि वह और किसी टंटे-बखेड़े में न पड़कर अपनी ऋजु दृष्टि से केवल कुर्सी के सत्य को देखता है। इतिहास ने जाने कितने साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा होगा पर मक्खन का चक्रवर्ती साम्राज्य अनादि काल से चला आ रहा है और शायद अनंत काल तक चलेगा - और कैसे न चले जब मक्खन आगे-आगे रास्ते को चिकना बनाता चलता हो! 3
क्या गजब का जादू है इस मक्खन की गोली में। जो काम बंदूक की गोली भी नहीं कर सकती, वह ये नन्हीं सी मक्खन की गोली करती है। यहाँ तक कि जहाँ चाँदी का जूता भी नहीं चलता वहाँ मक्खन का लेप काम कर जाता है। बस एक शर्त है कि उसका ढंग आना चाहिए, जो किसी उस्ताद से गंडा बंधवाए बगैर मुश्किल है। आप जो यह सोचें कि मक्खन तो मक्खन, लाओ चाहे जैसे उसका पलस्तर चढ़ा चलें तो उससे काम नहीं बनने का - बनना तो दूर रहा, बिगड़ भी जा सकता है। मक्खन लगाना कोई गोबर पाथना नहीं है, लिया और चाहे जैसे फूहड़ हाथों से पाथ दिया - वह एक ललित कला है, जैसे चित्र में रंग लगाना। उसके लिए हल्की-फुल्की कलात्मक उँगलियाँ चाहिए और चाहिए गहरी अंतर्दृष्टि। हर चित्र के लिए कलाकार की जैसे अलग रंगयोजना होती वैसे ही हर व्यक्ति के लिए इस कलाकार की अलग स्नेह-योजना होती है। एक ही लाठी से सबको नहीं हाँका जाता है। गहरी मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ से पहले आदमी को परखा जाता है, फिर यह तय किया जाता है कि उसको किधर से और क्यों कर मक्खन लगाना सर्वाधिक गुणकारी होगा। वैसे, इतना तो आप गठिया ही लें कि ऐसा आदमी आज तक जन्मा ही नहीं जिस पर मक्खन काम न करे। हाँ, कुछ लोग बड़ा बिदकते हैं उससे, मगर अच्छे मक्खनबाज के लिए इसमें घबराने की कोई बात नहीं - एक न एक पेंच से सब चित हो जाते हैं, और वो बिदकनेवाले शायद सबसे पहले। लेकिन उसके लिए जरूरी है कि खिलाड़ी को सब पेंच आते हों। मुद्दे की बात उसमें इतनी ही है कि ये भी एक बड़ा नर्म और नाजुक खेल है, कुछ वैसा ही जैसा जेब कतरना। वो हाथ की सफाई कि पता भी नहीं चला और मक्खन लग गया जिसे लगाना था और ऐसा भरपूर लगा कि उसकी चिकनाई चेहरे पर उतर आई और आँखों में एक नशा सा छा गया और मुखड़े पर एक अदद मुस्कराहट जो छिपाए नहीं छिपती। अब माँग लो जो कुछ माँगना हो।
- अमृत राय
सुन्दर प्रस्तुति
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