चाँद से मेरी कभी अब गुफ़्तगू होती नहीं।
रोज़ आता है मगर मैं रूबरू होती नहीं॥
कभी पूरा, तो कभी आधा आधा मिलता है
सहन मुझसे ये अधूरी आरज़ू होती नहीं॥
तेरे कहने से दफ़्न कर देती जो यादें तेरी
जफा के ज़िक्र पे फिसला लबों से तेरा नाम
फैली ये बात वरना कू बा कू होती नहीं॥
ख्वाब चुभ जाएँ बन केखार दिल के तलवो में
ख़त्म फिर भी सफर की जुस्तजू होती नहीं॥
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सुदर्शन शर्मा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-08-2019) को "मिशन मंगल" (चर्चा अंक- 3440) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
स्थान देने के लिए सादर धन्यवाद।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंस्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा।
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब गजल...
वाह ... लाजवाब शेर हैं सभी ... अच्छी ग़ज़ल ...
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