ज़्यादा नहीं
कुछ मुरझाये फूल थे यक़ीन के
और कुछ तब्बसुम से लिखे ख़त
बस यही चढ़ा कर
अभी अभी लौटी हूँ
अपने क़त्ल हुए रिश्ते की क़ब्र से.....
फूल तो ख़ैर कई रोज़ से
ज़रा ज़रा मुरझा रहे थे
मगर हैरान हूँ
आँख नम नहीं है
हाँ, दिल में इक टीस सी उठती है
रह रह कर....
जानते हो
तुम्हारे भेजे
गुलशब्बी के गुच्छों से
लच्छा-लच्छा लफ़्ज़ निकल कर
पूरे घर में फैल रहे हैं
कहीं ज़मीन नहीं दिखती.....
ज़िन्दगी सहम कर एक जगह खड़ी हो गई है
और मना कर रही है
आगे बढ़ने से.....
ऊपर से
रात होते ही
ये जज़्बातों के कारवाँ चले आते हैं
मातमपुर्सी करने...
अब तुम्ही कहो
इन्हें कहाँ बिठाऊँ मैं?
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सुदर्शन शर्मा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-06-2019) को "सहेगी और कब तक" (चर्चा अंक- 3371) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार सर।
हटाएंतहरीर या फिर देखने वाली नज़र बदल गई ...
जवाब देंहटाएंजो भी है गहरी रचना को जन्म दे गई ... बहुत लाजवाब ...
इनकी रचनाएँ बहुत ही संजिदा होती हैं
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