(संजीव की कहानी ‘प्रेत-मुक्ति’ का संदर्भ)
संजीव की कहानी ‘प्रेत-मुक्ति’ में जगेसर अपनी ज़िंदगी के दबाव के नीचे ही दबता चला गया। किसी तरह मुखिया के चुंगल से भागकर निकला तो सत्तो के चुंगल में फँस गया। सत्तो रानी के चुंगल से निकलने की भी उसने बहुत कोशिश की, पर निकल नहीं पाया और बार-बार उसके ही शरण में उसे जाना पड़ा। गाँव में मुखिया और शहर में सत्तो रानी; इन दोनों का निरंकुश राज कायम है। यह कहानी किसी एक जगेसर की नहीं है। न जाने कितने जगेसर की यह कहानी है --- जो किसी मुखिया के चंगुल से निकलना भी चाहे तो उसे सत्तो के चंगुल में फँसना ही पड़ता है। जगेसर जैसा व्यक्ति जो निरीह है बूधन भाई के शब्दों में, “जगेसर को तो अव्वल जनमना ही नहीं चाहिए था, अगर जनमना ही था तो मानुष जोनि में नहीं। मानुष हो के जनम लिया भी तो किसी बड़का सेठ, महाजन, जिमींदार या लीडर-ऊडर यानी पैसे वाले के घर जनमता, पैसा वाला नहीं ही हुआ तो पैसा पैदा करने का कोई हुनर आना चाहिए था। अरे, मरद जैसा मरद होता, गुंडा या डकैत ही बनता! अगर यह सब नहीं हुआ तो सुघड़, चिक्कन बहुरिया काहे को मिली? खिलाता क्या अपना कपार?” बूधन भाई के द्वारा जगेसर जैसे लोगों पर सटीक टिप्पणी है। इसलिए नहीं कि बूधन भाई जगेसर जैसे लोगों को जंगल-झाड़ समझ रहे हैं, बल्कि इस समाज में ज़िंदगी जीने के लिए जिस चुनौती से गुज़रना पड़ता है, उसमें उसका अक्षम होने पर उसके पक्ष में ही बोल रहे हैं। जहाँ इतने भेड़िए हो वहाँ भेड़ की जान साँसत में अटकी ही रहती है।
ऊपर से उसे सुंदर पत्नी जो मिली थी। ‘बनमानुष जगेसर के साथ मानुख कनिया!’ गरीब और निरीह के घर में सुंदर बेटी-बहू हो तो उनकी जान में धुकधुकी लगी रहती है। इसलिए तो ‘शहर लौटने वक्त जब वह बाप का पांव छूने गया तो उसका बाप आशार्वाद की जगह एक कड़वा सच बोल पड़ा, “जा रहे हो तो कनिया को किसके भरोसे छोड़े जा रहे हो? क्या यहाँ तुम्हारा बाप बैठा है कि…”’ यह बात चलित्तर महतो को इसलिए कहना पड़ा क्योंकि ‘बाप-बेटे के बीच सवाल सिर्फ़ पैसे का ही नहीं था, सवाल इधर मुखिया और उधर सत्तो का भी था। उस आतंक के बिंदु को बिना छुए, उसके इर्द-गिर्द पैंतरे भांजते हुए बाप-बेटे कनिया को एक-दूजे पर ठेल रहे थे।’ छुपा कुछ भी नहीं है, सब जग-जाहिर है, यह बात सभी जानते हैं, लेकिन जुबान पर कोई नहीं लाता। लोलुप कुत्ता लार टपकाता चारों ओर चक्कर लगाया करता है बस उस कुत्ते से बचना होता है लेकिन क्या सभी अपना इज्जत-आबरू बचा पाते हैं? जगेसर चाहते हुए भी नहीं बचा सका। बाप जिस वजह से बहू को बेटे के पास भेज पाया, लेकिन जगेसर इस चालाक दुनिया में अपनी रक्षा नहीं कर पाया। सत्तो ने सेंध लगाना चाहा, वह एक हद तक कामयाब भी हो गई, भले ही फायदा उसे नहीं हुआ मुखिया जी और उनके सुपुत्र सुरेन्द्रजी को तो इसका फायदा हुआ ही। अचरज तो यह है कि ऊपर से हम संस्कार की बातें करते हैं, भाव में बहकर मानवता की बातें करते हैं। लेकिन हम इतने ही मानवीय हैं, तो मुखिया या सत्तो जैसे जोंक इतने शक्तिशाली क्यों हैं, सारी शक्तियाँ उनका मुँह क्यों जोहती है?
आखिर इन सबके बीच जगेसर जैसे लोग अपना बचाव कैसे करे? जगेसर अपना बचाव नहीं कर पाया। अपने परिवार के लिए वह दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाया। जगेसर जैसे व्यक्ति की उस हालत में स्थति क्या होगी? वह अपने बारे में क्या सोचता होगा? वह बूधन भाई जैसा दुनियादार भी नहीं है, जहाँ जरूरत पड़े तो चालाकी से अपना काम निकाल ले, चालाकी काम न आई पर कोशिश तो की ही। इससे जीवन जीने का एहसास बना रहता है। लेकिन जगेसर के लिए इसका भी सहारा नहीं है। बूधन भाई के उकसाने के बाद भी सत्तो का झूमका छीनने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। ‘भैंस की तरह खुर धमकाते सत्तो आकर चली जाती है।’ बूधन भाई उसे खरी-खोटी सुनाते हैं तो वह वह खिसियाई खीस निकाल देता है। वह अपने को कोसते हुए अपने बाप की मर्दानगी का किस्सा बूधन भाई को सुनाता है। मर्द बाप का डरपोक बेटा! और इसी जगह उसके ऊपर बाप का कब्जा हो जाता है। जगेसर पर बाप की सवारी आ गई!
अब इस बात की व्याख्या कैसे हो? किस तरह से इसकी व्याख्या की जाए? ज़िंदगी जीने का संबल उसे मिल गया या उसे और भी हाशिए पर भेज दिया गया? जैसे समाज उसे हाशिए पर भेजता रहा, उसके बाप का प्रेत भी उसे हाशिए पर भेज कर उस पर अधिकार कर लिया? इसमें एक तथ्य दिलचस्प है कि उसके बाप की सवारी तभी आती है जब वह अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में वह खुद को अक्षम पाता है। वह अपने को दुत्कारता रहता है। वह लाख अपने को सजा दे ले लेकिन उसके गुनाह के लिए पर्याप्त नहीं होता। ‘चने फांक-फांककर, माड़ पी-पीकर वह दिन काटता है। बीमारियाँ आती है, बिना दवा-दारू के, प्रतिरोध के निचोड़कर चली जाती है। जगेसर फिर टहलने लगता है अपनी हाफ़ पैंट और क़मीज़ पहनकर। मौसम बदलते, लेकिन जगेसर के लिए दुनिया जस की तस पड़ी रहती। जगेसर ने एक सिद्धांत बना लिया था कि पूरी कमाई तो पूरा खाना, कमाई नहीं तो खाना नहीं। शो-केस में सजी मिठाइयाँ, झूलते कपड़े, फलों का अंबार ललचा-ललचाकर हार गए, हार गई ललचा-ललचाकर सत्तो की लड़कियां --- लैला, माला, रानी, डॉली।’ यह किसी संन्यासी से कम त्याग तो नहीं है? संन्यासी जो सब कुछ त्याग इसलिए करते हैं कि उन्हें ईश्वर मिले; लेकिन जगेसर को क्या मिला? अस्मिता तो बहुत दूर की बात है, क्या इन सबके बाद भी अपने होने के लिए वह तर्क जुटा पाया? शायद नहीं, वह इसमें भी कामयाब नहीं रहा। इसलिए बाप की सवारी आकर उसकी ओर से तर्क देता है। ठीक वैसे ही जैसे भक्त की विनती पर भगवान आते हैं, उसकी रक्षा के लिए। तभी तो जगेसर के अंदर से काका कहते हैं, “नामरद हैं, सब का सब नामरद! तनिको हिम्मत करबे नहीं करेगा सब! अरे, पटकनिया दे के मार! ऐसे भी तो मरिए रहा है।” जिस छोटे दारोगा उस्मान ख़ा के हड़काने पर जगेसर पैंट में पेशाब कर देता है, जगेसर के अंदर से काका उस उस्मान ख़ा को कह उठते हैं, “ऐ बड़ कानूनी, तू का करता है रे?”
यह थोड़ा अजीब नहीं लगता कि एक ही शरीर में दो लोग रह रहे हैं? एक आदमी खुद ही अपना बाप बन बैठा है? जगेसर खुद को ही अपना बाप समझता है, इस कारण उसके घर वाले को अकथनीय पीड़ा सहनी पड़ती है। अपनी माँ को पत्नी और पत्नी को पुत्रवधू समझता है। मुखिया जी सर्वेक्षण दल के लोगों के पूछने पर कहते है, “तब और का! जनाना को पास फटकने नहीं देता। उसके सामने वह परदा करके रहती है। जरा भी बेअदबी देखी कि फनफना उठता है। देहरी पर पाँव रखेगा तो खाँसकर!” उसकी माँ सर्वेक्षण दल के लोगों से भीगे कंठ से कहती है, “का पूछते हैं, जिस पर भीगती है, वही जानता है। उस दिन हम गोरू के हाँकने के डंडे से उसका कपार फोड़ दिए। तइयों पे दई दहिजार नय पसीजता है। मार खाने के बाद मति फिरी। अपने बड़बड़ाने लगा – ठीक! अब ई उमर में ई गंदा बात ठीक नय है। लड़का बच्चा जवान हो गया है। छी: और अपने गाल पर थप्पड़ मारता रहा।“ सुनकर रस्तोगी साहब, “स्ट्रेंज एंड ऑफुल!” कहकर गहरी सांस लेते हैं! अजीब तो लगेगा ही जब एक व्यक्ति अपनी माँ के साथ पत्नी का अंतरंग जीवन जीना चाहेगा!
सबसे ज्यादा अजीब और आश्चर्यजनक है दोनों व्यक्तित्व का एक-दूसरे से विपरित होना। जितना ही ज्यादा डरपोक जगेसर है, उतना ही ज्यादा साहसी उसका बाप है। जगेसर मेमना है तो उसके अंदर का चलित्तर महतो शेर है! यह भी ध्यान देने की बात है कि गाँव आने के बाद जगेसर पर बाप का ही राज कायम हो जाता है। चलित्तर के आगे जगेसर पीछे धकेल दिया जाता है। इसके पीछे कारण भी है कि गाँव में चुनौती बड़ी है। गाँव में जो कुछ हो रहा है, मुखिया जी और उनका बेटा जो कुछ कर रहा है, उससे टक्कर लेने के लिए चलित्तर महतो की ज़रूरत है। मुखिया वहाँ के पूरे वातावरण को, पूरे जीवन हो प्रभावित कर रहा है उसने बाँध बांधकर पानी रोककर उस इलाके के जीवन को दूभर बना दिया है। इसलिए तो जगेसर के अंदर का चलित्तर महतो आए दिन बाँध काटने की कोशिश में लगा रहता है। रातभर प्रेत की तरह जंगल में चक्कर काटकर जीवन बचाने की कोशिश में लगा रहता है। मरियल बाघ को सर्वेक्षण दल के सामने लाकर खड़ा कर देना इसी का नतीजा तो है। इसलिए तो मार खाने पर भी वह सुरेंद्र को नहीं बताता है कि बाध कहाँ है। यहाँ तक कि डॉक्टर को भी नहीं बताता है क्योंकि उसे डर है कि लोग उस बाघ को मार देंगे।
यह सब कुछ इस सिद्धांत पर काम करता हुआ लगता है कि जब जीवन बचाने की चुनौती हो और कोई व्यक्ति सक्षम न हो तो कोई शक्ति उनकी रक्षा के लिए आ जाती है। उस गाँव के समूचे व्यक्ति को विश्वास है कि चलित्तर महतो प्रेत बनकर मुखिया से बदला लेने आए हैं। यह विश्वास उन असहाय लोगों के जीवन का सहारा है, क्योंकि समूचे गाँव में चलित्तर महतो ही तो एक व्यक्ति था, जो मुखिया को चुनौती देता रहता था। चलित्तर महतो का प्रेत विजयधन देठा की लोक-कथा पर आधारित ‘दुविधा’ कहानी के उस भूत की तरह है, जो शादी करने के बाद अगले ही दिन नई ब्याही पत्नी को छोड़कर धन के लालच में वर्षों के लिए घर से चले गए पति की जगह लेता है। वह भूत लालची बाप को रोज़ पाँच सोने की मोहरे देता है और उस ब्याही पत्नी को बहुत प्यार करता है। उसका उस नई ब्याहता से इतना प्रेम है कि वह यह असलियत भी नहीं छुपाता कि वह भूत है! ‘दुविधा’ कहानी के बहाने इस तरह की लोक-कथा पर गौर करें तो हमें यह सूत्र मिलता कि इस तरह की लोक-कथाओं में ‘भूत’ जैसी चीजें जीवन के लिए संबल जुटाने की ‘कीमिया’ का कार्य करती है। भूत-प्रेत, जादू-टोना, झाड़-फूंक में उन लोगों का ही विश्वास होता है, जो कहीं-न-कहीं अपनी अक्षमता की वजह से मस्तिष्क के बुद्धिगत तर्क जुटा नहीं पाते हैं। जब तक चलित्त्तर महतो थे, जगेसर की गाड़ी किसी तरह चल रही थी। चलित्तर महतो के जाने के बाद उसकी हर कोशिश कम पड़ गई। वह अपनी हर कोशिशों से वह अपने को नकारा ही साबित करता रहा। वह अपने लिए दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता था, जबकि उसके कंधे पर माँ और पत्नी की जिम्मेदारी थी। वह अपनी पत्नी के लिए छुपाकर पैसे जोड़ता है, लेकिन उसका बाप उसका पोल खोलता है। आखिर बाप को इसके लिए हस्तक्षेप क्यों करना पड़ता है? क्योंकि उसमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह इसके लिए अपने को धिक्कार सके कि ‘तुम्हें अपनी पत्नी तो दिखती है, पर माँ नहीं दिखती; लानत है तुम पर!’
जगेसर के अंदर उसके बाप का घुसपैठ इसलिए है कि कम-से-कम जगेसर जी तो सके। जीने का हक़ तो उससे कोई न छीने। न सत्तो रानी, न मुखिया, न मुखिया का बेटा। चरित्तर महतो प्रेत भी तो इसलिए बना क्योंकि उसे ज़िंदा ही बाघ का निवाला बना दिया गया था। वह भी इसलिए कि जिस बाघ के शिकार के पाड़ा को बांधकर रखा गया था, बूढ़े ने उसे खोल दिया था और ऐसा करते हुए वह पकड़ा गया था, इसलिए उस पाड़ा की जगह उसे ही बांध दिया गया। क्योंकि उतनी बड़ी शक्ति से वह बूढ़ा अकेला लड़ रहा था। जो भी यहाँ आता है वही मुखिया का भाई-बंधु बन जाता है। काका ने सबको घूम-घूमकर कहा, “गंगा माय को बाँध रहे हैं मुखिया जी, समसे इलाका का खेती, ढोर-डाँगर, पशु-पाखी-इदमी, तड़प-तड़प के मरेगा, कुछ करो!” पर किसी ने कुछ नहीं किया। इसलिए बूढ़ा प्रेत बनकर अपना वही कार्य कर रहा है। आए दिन बांध काट देता है। बूधन भाई के शब्दों में, “जब तक बुढ़वा हतिया का बदला नहीं लेगा, जाएगा नहीं, डागडर आवे चाहे डागडर का बाप!”
और डॉक्टर साहब उस प्रेत को भगाना चाहते हैं, वह जगेसर का इलाज करना चाहते हैं, जिसका इलाज रांची में भी नहीं हो सका था। काफी खोज-बीन के बाद डॉक्टर साहब का ध्यान यू के के मेडिकल काउंसिल की प्रकाशित उस रपट पर चला जाता है, जिसमें लिखा है --- ‘ऐसे रोगी की चिकित्सा में परिवार, वंश, समाज, भ्रूण के साथ-साथ आर्थिक और स्वस्थ सामाजिक परिवेश भी अनिवार्य है।’ यहाँ डॉक्टर साहब के उस विचार को यहाँ जिक्र करना अप्रासांगिक नहीं होगा, जो वह सोचते हैं --- ‘और मैं देखता रहता इस अर्थनीति और सामाजिक परिवेश को। भिनभिनाती मक्खियों के बीच मूज की झिलंटी खाट पर भिखारियों की तरह लेटे कराहते रोगी, खुनाए बैंडेज और थूक-खँखार पर काँव-काँव करते कौंवों और कुछ ढूँढ़ते कुत्तों को, अस्पताल के बाहर बकरियों और पिग्मीजाति के दयनीय इंसान! कितनी-कितनी दूर से दवा के लिए आते हैं ये और मैं इन्हें क्या देता हूँ? समाज, परिवार, वंश, भ्रूण --- ऊपर से नीचे तक क्षरण की एक प्रक्रिया। एक पूरी जाति ग़ायब हो रही थी। सरकार की चिंता किस दुर्लभ नस्ल के संरक्षण के लिए है? …… मैंने जहाँ-जहाँ इस बात को उठाने की कोशिश की, लोग कुनैन की गोली-सा मुँह बना बैठे, “अमा यार, नौकरी करनी है है तो चुप रहो। सब लूट रहे हैं, तो तुम भी लूटो।” … लगता है, चलित्तर महतो का भूत मेरे सिर पर सवार हो गया है। नस्लें ही खराब होती जा रही हैं। केंचुआ बनता जा रहा देश! कोई प्रतिकार नहीं, कोई प्रतिवाद नहीं। आग की लपटों में घिरे रबर की तरह खुद में सिकुड़ते जाना। हजारों वर्ष पहले आदमी तनकर सीधा खड़ा हुआ था होमोसैपियंस बनकर। क्या फिर उसी के पीछे लौटा जा रहा है आहिस्ता-आहिस्ता…’
वर्तमान अर्थनीति और उसके अनुरूप ढलता सामाजिक परिवेश में जगेसर जैसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। उपर से सरकार का ढुल-मुल रवैया के बीच ऐसे लोगों को कौन बचाएगा! जिनके पास इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वो अगर इनके सुरक्षा का जिम्मा न ले तो इन परिस्थियों में प्रेत को ही आकर जगेसर जैसे लोगों के लिए लड़ना पड़ेगा। यह उस उपेक्षित हाशिए पर जी रहे समुदाय का सवाल है, जिसकी चिंता किसी को नहीं है। जिनके बारे में यह मानकर चला जाता है कि आदमी में उनकी गिनती है ही नहीं। हम आधुनिक युग में, विज्ञान के युग में वैज्ञानिक ढंग से सोचते हैं, बहुत-सी चीज़ों पर आश्चर्य प्रकट करते हैं, बहुत-सी चीज़ों को मानने के लिए तैयार नहीं होते कि इससे हमारे आधुनिक सोच में बट्टा न लग जाए। पर क्या यह सही नहीं है कि हमने अपने दिमाग को बहुत सीमित कर लिया है। यह बात इसलिए नहीं कि किसी प्रेत के पक्ष में दलील दी जा रही है। सवाल महसूसने का है, सिर्फ सोचना काफी नहीं, वाद-विवाद तो बहुत छोटी चीज़ है। सरकार बाघ बचाने के लिए दल को भेजती है कि बूझे-समझे कि बाघ गायब क्यों हो रहे हैं। और वह दल उन लोगों के शरण में पहुँच जाते हैं, जो उस बाघ के विलुप्त होने के लिए ज़िम्मेदार है। जो सुरक्षा करने आए हैं वही उसके क्षरण में हिस्सेदार बन जाते हैं। और उस विलुप्त होती जाति को बचाने में कोई सहयोग करता है तो वह है प्रेत। जगेसर सर्वेक्षण दल के सामने एक मरियल बाघ को सामने कर देता है और उनसे कहता है, “हुज़ूर, अब वो बाघ कहाँ! साले बिलाए हुए जा रहे हैं। देखकर कोई कहेगा कि बाघ का बच्चा है? खाने को तो दूर, पीने का पानी तो है नहीं कहीं। यह तो न जाने कहां से एक दिन पानी की टोह में हमारी कुंइया में गिर पड़ा था। बचाया और पाला तो पोस मान गया। सोचा, बचा लें ताकि ‘नसल’ ही बची रहे। सोचा, देखने आए हैं तो दिखा दें, नहीं तो कहेंगे बाघई नहीं हैं। (और लगे हाथों वह मुखियाजी से कहता है) आप… बेकारे न भटका रहे हैं यहाँ-उहाँ। अपने कुतवों को दिखा दीजिए ले जाकर अब तो वही बाघ हैं।” यहाँ जगेसर चलित्तर महतो के रूप में कितना बड़ा व्यंग करता है!
उन सर्वेक्षण दल के लोगों के लिए ‘दोपहर के भोजन का पूरा शाही इंतज़ाम था, मुखियाजी की ओर से, जंगली मुर्गियों से लेकर बकरे और मछली तक और देशी महुए से लेकर व्हिस्की तक।’ लेकिन इसका इंतजाम किस कीमत पर था? एक ओर पथरीली-पठारी जमीन और बीहड़-से इलाके थे जिसमें आदमी, मकान, मवेशी, फसलें --- सब कुछ दयनीय था। लेकिन दूसरी ओर हवेली की चारदीवारी थी। जर्सी गायों और मुर्रा भैंसों का हुजूम। ट्रैक्टर, थ्रेसर, पत्थर काटकर की जा रही बोरिंग, पुआल का पहाड़, बाग-बगीचें, नौकर-चाकर। मुखियाजी के साम्राज्य में ऊँचे-नीचे पठारी जमीन के हरे-भरे खेत हरी आभा विकीर्ण कर रहे थे। बरसीम, मटर, खेंसारी, गन्ने, अरहर और गेंहूँ की फसलों का वैभव बिखरा पड़ा था। अधिकांश खेतों में मजदूर काम कर रहे थे। सामने नदी थी। जिसे बाँध बनाकर रोक लिया गया था।
तभी तो रस्तोगी साहब कहते हैं, “सच पूछिए तो आइंस्टाइन ने क्या कहा था, हर चीज़ हर दूसरे से जुड़ी है। कोई भी समस्या एकांगी नहीं। इस पूरे इलाके की सूखी फ़सलें, सूखे इंसान, मरियल मवेशी और इनका दयनीय परिवेश सिर्फ़ इस वजह से है कि जिनके पास ताक़त और पैसा है, उन्होंने इसे व्यक्तिगत संपत्ति बना रखा है। नदी यहाँ बंध गई है तो आगे पानी जाएगा कहाँ से? बाघ … बाघ हुआ भी तो पानी पीने उसे यही आना पड़ेगा। देखिए उस तरफ, लिलीपुट राज्य के छोटे-छोटे मवेशी पानी पी रहे हैं। बांध से औरत घड़ा भर-भरकर ले जा रही है।” इस पर ख़ान साहब ने कहा, “इस पर तुर्रा यह कि इन्हीं के यहाँ डेरा डालकर हम इनके द्वारा पैदा की गई प्रॉब्लम्स पर डिस्कस करने आए हैं।”
मतलब समस्या क्या है यह भी पता चल जाता है, लेकिन फिर भी कोई कुछ कर नहीं पाता। लेकिन अगर किसी के अस्तित्व का सवाल हो, जीने और मरने का सवाल हो तो वह दूसरे के भरोसे कैसे रहे? जगेसर जैसे लोगों को बचाने का सवाल हो तो सरकार, समाजिक संगठन या इसी जैसी कोई चीज़े क्या करेगी? क्या ये इनके लिए कुछ कर सकते हैं? जब तक गाँव में मुखिया जैसे लोग हों और शहर में सत्तो रानी जैसी, तो जगेसर का तो कुछ भला होने वाला नहीं है, क्योंकि इन्हीं का खून चूसकर तो वह मोटे होते हैं और नरक बनाने का कारखाना खोलते हैं। और जो कोई मुखिया या सत्तो जैसे लोगों को रोक सकता है, वही जब उनका संरक्षण करने लगे तो जगेसर के लिए तो प्रेत का ही सहारा रह जाता है। जिनके लिए सच में प्रेत अगर अंधविश्वास है तो उनके लिए जगेसर जैसे लोगों का और इनकी कौमों का अस्तित्व भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि हम जिस मानवीय गुणों को जानते हैं और जिनकी बात करते हैं, वह सब कुछ जगेसर जैसे लोगों के लिए मुख्य धारा के सामाजिक सरोकार में सपना है। यही तो संजीव ‘प्रेम-मुक्ति’ कहानी के माध्यम से कहना चाहते हैं। और प्रेत तभी दम लेता है जब वह अपना कार्य पूरा कर देता है, ताकि उनके बाद आने वाली पीढ़ी के ज़िंदा होने की संभावनाए बची रहे। उसने बाँध काट दिया, उसने सुरेंद्र से बदला ले लिया। जब प्रेत अपना काम कर चुकता है तो वह मुक्त भी कर देता है और मुक्त भी हो जाता है।
संजीव इस कहानी में छोटे-से बिंदु से विराट फलक को छूते हैं। वह सब कुछ खोलकर रखते हैं। उन्होंने समाजिक अंतर्विरोध को इस कहानी के माध्यम से स्पष्ट किया है। भारत जैसे देश के लिए यह चुनौती है कि जो वर्ग उपेक्षित हैं और सदियों से उनकी उपेक्षा होती आई, उसे मुख्य धारा में कैसे शामिल किया जाय। और अगर आज तक शामिल नहीं किया गया या वह शामिल नहीं हो सके तो किस वजह से; यह भी इस कहानी के माध्यम से कुछ न कुछ उजागर होता ही है। जब तक हम गहरी मानवीय संवेदना से अछूते रहेंगे, चाहे हममें कितना भी धार्मिक संस्कार गहरा हो, चाहे हम विचारों से कितना भी उन्नत क्यों न हों, लेकिन हमें दरारों को भरना नहीं आएगा, जहाँ सब कुछ को पाट कर सबको एक्य रूप में देखा जाए। और उस एक्य रूप में सबको शामिल करना, अगला-पिछला, छोटा-बड़ा, नदी-पहाड़, जीव-जंतु, पूरी पृथ्वी, पूरी सृष्टि, पूरा ब्रह्मांड। और यह संभव है, गहरा मानवीय बोध से। समाज तब तक मानवीय गुणों को आत्मसात नहीं कर पाएगा, जब तक शक्तिशाली की पूजा होती रहेगी। तब इस हालत में जगेसर जैसे लोगों का क्या हाल होगा, तब तक तो यही मानकर चलना पड़ेगा कि डार्विन का विकासवादी सिद्धांत से ही ज़िंदगी चलती है। इस हालत में तो जगेसर जैसे प्राणी ही लुप्त हो जाएंगे, जैसे बाघ लुप्त हो रहे हैं। हालाँकि बाघ जंगल का राजा है, लेकिन मानवीय क्रूरता पर तो उसका भी वश नहीं है। संजीव ने गहरी संवेदना के साथ उपेक्षितों का पक्ष रखा है। वह बिना किसी भूमिका के अगर ऐसा कर सके तो इसलिए कि उनकी लेखनी बहुत ईमानदार है।
ऊपर से उसे सुंदर पत्नी जो मिली थी। ‘बनमानुष जगेसर के साथ मानुख कनिया!’ गरीब और निरीह के घर में सुंदर बेटी-बहू हो तो उनकी जान में धुकधुकी लगी रहती है। इसलिए तो ‘शहर लौटने वक्त जब वह बाप का पांव छूने गया तो उसका बाप आशार्वाद की जगह एक कड़वा सच बोल पड़ा, “जा रहे हो तो कनिया को किसके भरोसे छोड़े जा रहे हो? क्या यहाँ तुम्हारा बाप बैठा है कि…”’ यह बात चलित्तर महतो को इसलिए कहना पड़ा क्योंकि ‘बाप-बेटे के बीच सवाल सिर्फ़ पैसे का ही नहीं था, सवाल इधर मुखिया और उधर सत्तो का भी था। उस आतंक के बिंदु को बिना छुए, उसके इर्द-गिर्द पैंतरे भांजते हुए बाप-बेटे कनिया को एक-दूजे पर ठेल रहे थे।’ छुपा कुछ भी नहीं है, सब जग-जाहिर है, यह बात सभी जानते हैं, लेकिन जुबान पर कोई नहीं लाता। लोलुप कुत्ता लार टपकाता चारों ओर चक्कर लगाया करता है बस उस कुत्ते से बचना होता है लेकिन क्या सभी अपना इज्जत-आबरू बचा पाते हैं? जगेसर चाहते हुए भी नहीं बचा सका। बाप जिस वजह से बहू को बेटे के पास भेज पाया, लेकिन जगेसर इस चालाक दुनिया में अपनी रक्षा नहीं कर पाया। सत्तो ने सेंध लगाना चाहा, वह एक हद तक कामयाब भी हो गई, भले ही फायदा उसे नहीं हुआ मुखिया जी और उनके सुपुत्र सुरेन्द्रजी को तो इसका फायदा हुआ ही। अचरज तो यह है कि ऊपर से हम संस्कार की बातें करते हैं, भाव में बहकर मानवता की बातें करते हैं। लेकिन हम इतने ही मानवीय हैं, तो मुखिया या सत्तो जैसे जोंक इतने शक्तिशाली क्यों हैं, सारी शक्तियाँ उनका मुँह क्यों जोहती है?
आखिर इन सबके बीच जगेसर जैसे लोग अपना बचाव कैसे करे? जगेसर अपना बचाव नहीं कर पाया। अपने परिवार के लिए वह दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाया। जगेसर जैसे व्यक्ति की उस हालत में स्थति क्या होगी? वह अपने बारे में क्या सोचता होगा? वह बूधन भाई जैसा दुनियादार भी नहीं है, जहाँ जरूरत पड़े तो चालाकी से अपना काम निकाल ले, चालाकी काम न आई पर कोशिश तो की ही। इससे जीवन जीने का एहसास बना रहता है। लेकिन जगेसर के लिए इसका भी सहारा नहीं है। बूधन भाई के उकसाने के बाद भी सत्तो का झूमका छीनने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। ‘भैंस की तरह खुर धमकाते सत्तो आकर चली जाती है।’ बूधन भाई उसे खरी-खोटी सुनाते हैं तो वह वह खिसियाई खीस निकाल देता है। वह अपने को कोसते हुए अपने बाप की मर्दानगी का किस्सा बूधन भाई को सुनाता है। मर्द बाप का डरपोक बेटा! और इसी जगह उसके ऊपर बाप का कब्जा हो जाता है। जगेसर पर बाप की सवारी आ गई!
अब इस बात की व्याख्या कैसे हो? किस तरह से इसकी व्याख्या की जाए? ज़िंदगी जीने का संबल उसे मिल गया या उसे और भी हाशिए पर भेज दिया गया? जैसे समाज उसे हाशिए पर भेजता रहा, उसके बाप का प्रेत भी उसे हाशिए पर भेज कर उस पर अधिकार कर लिया? इसमें एक तथ्य दिलचस्प है कि उसके बाप की सवारी तभी आती है जब वह अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में वह खुद को अक्षम पाता है। वह अपने को दुत्कारता रहता है। वह लाख अपने को सजा दे ले लेकिन उसके गुनाह के लिए पर्याप्त नहीं होता। ‘चने फांक-फांककर, माड़ पी-पीकर वह दिन काटता है। बीमारियाँ आती है, बिना दवा-दारू के, प्रतिरोध के निचोड़कर चली जाती है। जगेसर फिर टहलने लगता है अपनी हाफ़ पैंट और क़मीज़ पहनकर। मौसम बदलते, लेकिन जगेसर के लिए दुनिया जस की तस पड़ी रहती। जगेसर ने एक सिद्धांत बना लिया था कि पूरी कमाई तो पूरा खाना, कमाई नहीं तो खाना नहीं। शो-केस में सजी मिठाइयाँ, झूलते कपड़े, फलों का अंबार ललचा-ललचाकर हार गए, हार गई ललचा-ललचाकर सत्तो की लड़कियां --- लैला, माला, रानी, डॉली।’ यह किसी संन्यासी से कम त्याग तो नहीं है? संन्यासी जो सब कुछ त्याग इसलिए करते हैं कि उन्हें ईश्वर मिले; लेकिन जगेसर को क्या मिला? अस्मिता तो बहुत दूर की बात है, क्या इन सबके बाद भी अपने होने के लिए वह तर्क जुटा पाया? शायद नहीं, वह इसमें भी कामयाब नहीं रहा। इसलिए बाप की सवारी आकर उसकी ओर से तर्क देता है। ठीक वैसे ही जैसे भक्त की विनती पर भगवान आते हैं, उसकी रक्षा के लिए। तभी तो जगेसर के अंदर से काका कहते हैं, “नामरद हैं, सब का सब नामरद! तनिको हिम्मत करबे नहीं करेगा सब! अरे, पटकनिया दे के मार! ऐसे भी तो मरिए रहा है।” जिस छोटे दारोगा उस्मान ख़ा के हड़काने पर जगेसर पैंट में पेशाब कर देता है, जगेसर के अंदर से काका उस उस्मान ख़ा को कह उठते हैं, “ऐ बड़ कानूनी, तू का करता है रे?”
यह थोड़ा अजीब नहीं लगता कि एक ही शरीर में दो लोग रह रहे हैं? एक आदमी खुद ही अपना बाप बन बैठा है? जगेसर खुद को ही अपना बाप समझता है, इस कारण उसके घर वाले को अकथनीय पीड़ा सहनी पड़ती है। अपनी माँ को पत्नी और पत्नी को पुत्रवधू समझता है। मुखिया जी सर्वेक्षण दल के लोगों के पूछने पर कहते है, “तब और का! जनाना को पास फटकने नहीं देता। उसके सामने वह परदा करके रहती है। जरा भी बेअदबी देखी कि फनफना उठता है। देहरी पर पाँव रखेगा तो खाँसकर!” उसकी माँ सर्वेक्षण दल के लोगों से भीगे कंठ से कहती है, “का पूछते हैं, जिस पर भीगती है, वही जानता है। उस दिन हम गोरू के हाँकने के डंडे से उसका कपार फोड़ दिए। तइयों पे दई दहिजार नय पसीजता है। मार खाने के बाद मति फिरी। अपने बड़बड़ाने लगा – ठीक! अब ई उमर में ई गंदा बात ठीक नय है। लड़का बच्चा जवान हो गया है। छी: और अपने गाल पर थप्पड़ मारता रहा।“ सुनकर रस्तोगी साहब, “स्ट्रेंज एंड ऑफुल!” कहकर गहरी सांस लेते हैं! अजीब तो लगेगा ही जब एक व्यक्ति अपनी माँ के साथ पत्नी का अंतरंग जीवन जीना चाहेगा!
सबसे ज्यादा अजीब और आश्चर्यजनक है दोनों व्यक्तित्व का एक-दूसरे से विपरित होना। जितना ही ज्यादा डरपोक जगेसर है, उतना ही ज्यादा साहसी उसका बाप है। जगेसर मेमना है तो उसके अंदर का चलित्तर महतो शेर है! यह भी ध्यान देने की बात है कि गाँव आने के बाद जगेसर पर बाप का ही राज कायम हो जाता है। चलित्तर के आगे जगेसर पीछे धकेल दिया जाता है। इसके पीछे कारण भी है कि गाँव में चुनौती बड़ी है। गाँव में जो कुछ हो रहा है, मुखिया जी और उनका बेटा जो कुछ कर रहा है, उससे टक्कर लेने के लिए चलित्तर महतो की ज़रूरत है। मुखिया वहाँ के पूरे वातावरण को, पूरे जीवन हो प्रभावित कर रहा है उसने बाँध बांधकर पानी रोककर उस इलाके के जीवन को दूभर बना दिया है। इसलिए तो जगेसर के अंदर का चलित्तर महतो आए दिन बाँध काटने की कोशिश में लगा रहता है। रातभर प्रेत की तरह जंगल में चक्कर काटकर जीवन बचाने की कोशिश में लगा रहता है। मरियल बाघ को सर्वेक्षण दल के सामने लाकर खड़ा कर देना इसी का नतीजा तो है। इसलिए तो मार खाने पर भी वह सुरेंद्र को नहीं बताता है कि बाध कहाँ है। यहाँ तक कि डॉक्टर को भी नहीं बताता है क्योंकि उसे डर है कि लोग उस बाघ को मार देंगे।
यह सब कुछ इस सिद्धांत पर काम करता हुआ लगता है कि जब जीवन बचाने की चुनौती हो और कोई व्यक्ति सक्षम न हो तो कोई शक्ति उनकी रक्षा के लिए आ जाती है। उस गाँव के समूचे व्यक्ति को विश्वास है कि चलित्तर महतो प्रेत बनकर मुखिया से बदला लेने आए हैं। यह विश्वास उन असहाय लोगों के जीवन का सहारा है, क्योंकि समूचे गाँव में चलित्तर महतो ही तो एक व्यक्ति था, जो मुखिया को चुनौती देता रहता था। चलित्तर महतो का प्रेत विजयधन देठा की लोक-कथा पर आधारित ‘दुविधा’ कहानी के उस भूत की तरह है, जो शादी करने के बाद अगले ही दिन नई ब्याही पत्नी को छोड़कर धन के लालच में वर्षों के लिए घर से चले गए पति की जगह लेता है। वह भूत लालची बाप को रोज़ पाँच सोने की मोहरे देता है और उस ब्याही पत्नी को बहुत प्यार करता है। उसका उस नई ब्याहता से इतना प्रेम है कि वह यह असलियत भी नहीं छुपाता कि वह भूत है! ‘दुविधा’ कहानी के बहाने इस तरह की लोक-कथा पर गौर करें तो हमें यह सूत्र मिलता कि इस तरह की लोक-कथाओं में ‘भूत’ जैसी चीजें जीवन के लिए संबल जुटाने की ‘कीमिया’ का कार्य करती है। भूत-प्रेत, जादू-टोना, झाड़-फूंक में उन लोगों का ही विश्वास होता है, जो कहीं-न-कहीं अपनी अक्षमता की वजह से मस्तिष्क के बुद्धिगत तर्क जुटा नहीं पाते हैं। जब तक चलित्त्तर महतो थे, जगेसर की गाड़ी किसी तरह चल रही थी। चलित्तर महतो के जाने के बाद उसकी हर कोशिश कम पड़ गई। वह अपनी हर कोशिशों से वह अपने को नकारा ही साबित करता रहा। वह अपने लिए दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता था, जबकि उसके कंधे पर माँ और पत्नी की जिम्मेदारी थी। वह अपनी पत्नी के लिए छुपाकर पैसे जोड़ता है, लेकिन उसका बाप उसका पोल खोलता है। आखिर बाप को इसके लिए हस्तक्षेप क्यों करना पड़ता है? क्योंकि उसमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह इसके लिए अपने को धिक्कार सके कि ‘तुम्हें अपनी पत्नी तो दिखती है, पर माँ नहीं दिखती; लानत है तुम पर!’
जगेसर के अंदर उसके बाप का घुसपैठ इसलिए है कि कम-से-कम जगेसर जी तो सके। जीने का हक़ तो उससे कोई न छीने। न सत्तो रानी, न मुखिया, न मुखिया का बेटा। चरित्तर महतो प्रेत भी तो इसलिए बना क्योंकि उसे ज़िंदा ही बाघ का निवाला बना दिया गया था। वह भी इसलिए कि जिस बाघ के शिकार के पाड़ा को बांधकर रखा गया था, बूढ़े ने उसे खोल दिया था और ऐसा करते हुए वह पकड़ा गया था, इसलिए उस पाड़ा की जगह उसे ही बांध दिया गया। क्योंकि उतनी बड़ी शक्ति से वह बूढ़ा अकेला लड़ रहा था। जो भी यहाँ आता है वही मुखिया का भाई-बंधु बन जाता है। काका ने सबको घूम-घूमकर कहा, “गंगा माय को बाँध रहे हैं मुखिया जी, समसे इलाका का खेती, ढोर-डाँगर, पशु-पाखी-इदमी, तड़प-तड़प के मरेगा, कुछ करो!” पर किसी ने कुछ नहीं किया। इसलिए बूढ़ा प्रेत बनकर अपना वही कार्य कर रहा है। आए दिन बांध काट देता है। बूधन भाई के शब्दों में, “जब तक बुढ़वा हतिया का बदला नहीं लेगा, जाएगा नहीं, डागडर आवे चाहे डागडर का बाप!”
और डॉक्टर साहब उस प्रेत को भगाना चाहते हैं, वह जगेसर का इलाज करना चाहते हैं, जिसका इलाज रांची में भी नहीं हो सका था। काफी खोज-बीन के बाद डॉक्टर साहब का ध्यान यू के के मेडिकल काउंसिल की प्रकाशित उस रपट पर चला जाता है, जिसमें लिखा है --- ‘ऐसे रोगी की चिकित्सा में परिवार, वंश, समाज, भ्रूण के साथ-साथ आर्थिक और स्वस्थ सामाजिक परिवेश भी अनिवार्य है।’ यहाँ डॉक्टर साहब के उस विचार को यहाँ जिक्र करना अप्रासांगिक नहीं होगा, जो वह सोचते हैं --- ‘और मैं देखता रहता इस अर्थनीति और सामाजिक परिवेश को। भिनभिनाती मक्खियों के बीच मूज की झिलंटी खाट पर भिखारियों की तरह लेटे कराहते रोगी, खुनाए बैंडेज और थूक-खँखार पर काँव-काँव करते कौंवों और कुछ ढूँढ़ते कुत्तों को, अस्पताल के बाहर बकरियों और पिग्मीजाति के दयनीय इंसान! कितनी-कितनी दूर से दवा के लिए आते हैं ये और मैं इन्हें क्या देता हूँ? समाज, परिवार, वंश, भ्रूण --- ऊपर से नीचे तक क्षरण की एक प्रक्रिया। एक पूरी जाति ग़ायब हो रही थी। सरकार की चिंता किस दुर्लभ नस्ल के संरक्षण के लिए है? …… मैंने जहाँ-जहाँ इस बात को उठाने की कोशिश की, लोग कुनैन की गोली-सा मुँह बना बैठे, “अमा यार, नौकरी करनी है है तो चुप रहो। सब लूट रहे हैं, तो तुम भी लूटो।” … लगता है, चलित्तर महतो का भूत मेरे सिर पर सवार हो गया है। नस्लें ही खराब होती जा रही हैं। केंचुआ बनता जा रहा देश! कोई प्रतिकार नहीं, कोई प्रतिवाद नहीं। आग की लपटों में घिरे रबर की तरह खुद में सिकुड़ते जाना। हजारों वर्ष पहले आदमी तनकर सीधा खड़ा हुआ था होमोसैपियंस बनकर। क्या फिर उसी के पीछे लौटा जा रहा है आहिस्ता-आहिस्ता…’
वर्तमान अर्थनीति और उसके अनुरूप ढलता सामाजिक परिवेश में जगेसर जैसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। उपर से सरकार का ढुल-मुल रवैया के बीच ऐसे लोगों को कौन बचाएगा! जिनके पास इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वो अगर इनके सुरक्षा का जिम्मा न ले तो इन परिस्थियों में प्रेत को ही आकर जगेसर जैसे लोगों के लिए लड़ना पड़ेगा। यह उस उपेक्षित हाशिए पर जी रहे समुदाय का सवाल है, जिसकी चिंता किसी को नहीं है। जिनके बारे में यह मानकर चला जाता है कि आदमी में उनकी गिनती है ही नहीं। हम आधुनिक युग में, विज्ञान के युग में वैज्ञानिक ढंग से सोचते हैं, बहुत-सी चीज़ों पर आश्चर्य प्रकट करते हैं, बहुत-सी चीज़ों को मानने के लिए तैयार नहीं होते कि इससे हमारे आधुनिक सोच में बट्टा न लग जाए। पर क्या यह सही नहीं है कि हमने अपने दिमाग को बहुत सीमित कर लिया है। यह बात इसलिए नहीं कि किसी प्रेत के पक्ष में दलील दी जा रही है। सवाल महसूसने का है, सिर्फ सोचना काफी नहीं, वाद-विवाद तो बहुत छोटी चीज़ है। सरकार बाघ बचाने के लिए दल को भेजती है कि बूझे-समझे कि बाघ गायब क्यों हो रहे हैं। और वह दल उन लोगों के शरण में पहुँच जाते हैं, जो उस बाघ के विलुप्त होने के लिए ज़िम्मेदार है। जो सुरक्षा करने आए हैं वही उसके क्षरण में हिस्सेदार बन जाते हैं। और उस विलुप्त होती जाति को बचाने में कोई सहयोग करता है तो वह है प्रेत। जगेसर सर्वेक्षण दल के सामने एक मरियल बाघ को सामने कर देता है और उनसे कहता है, “हुज़ूर, अब वो बाघ कहाँ! साले बिलाए हुए जा रहे हैं। देखकर कोई कहेगा कि बाघ का बच्चा है? खाने को तो दूर, पीने का पानी तो है नहीं कहीं। यह तो न जाने कहां से एक दिन पानी की टोह में हमारी कुंइया में गिर पड़ा था। बचाया और पाला तो पोस मान गया। सोचा, बचा लें ताकि ‘नसल’ ही बची रहे। सोचा, देखने आए हैं तो दिखा दें, नहीं तो कहेंगे बाघई नहीं हैं। (और लगे हाथों वह मुखियाजी से कहता है) आप… बेकारे न भटका रहे हैं यहाँ-उहाँ। अपने कुतवों को दिखा दीजिए ले जाकर अब तो वही बाघ हैं।” यहाँ जगेसर चलित्तर महतो के रूप में कितना बड़ा व्यंग करता है!
उन सर्वेक्षण दल के लोगों के लिए ‘दोपहर के भोजन का पूरा शाही इंतज़ाम था, मुखियाजी की ओर से, जंगली मुर्गियों से लेकर बकरे और मछली तक और देशी महुए से लेकर व्हिस्की तक।’ लेकिन इसका इंतजाम किस कीमत पर था? एक ओर पथरीली-पठारी जमीन और बीहड़-से इलाके थे जिसमें आदमी, मकान, मवेशी, फसलें --- सब कुछ दयनीय था। लेकिन दूसरी ओर हवेली की चारदीवारी थी। जर्सी गायों और मुर्रा भैंसों का हुजूम। ट्रैक्टर, थ्रेसर, पत्थर काटकर की जा रही बोरिंग, पुआल का पहाड़, बाग-बगीचें, नौकर-चाकर। मुखियाजी के साम्राज्य में ऊँचे-नीचे पठारी जमीन के हरे-भरे खेत हरी आभा विकीर्ण कर रहे थे। बरसीम, मटर, खेंसारी, गन्ने, अरहर और गेंहूँ की फसलों का वैभव बिखरा पड़ा था। अधिकांश खेतों में मजदूर काम कर रहे थे। सामने नदी थी। जिसे बाँध बनाकर रोक लिया गया था।
तभी तो रस्तोगी साहब कहते हैं, “सच पूछिए तो आइंस्टाइन ने क्या कहा था, हर चीज़ हर दूसरे से जुड़ी है। कोई भी समस्या एकांगी नहीं। इस पूरे इलाके की सूखी फ़सलें, सूखे इंसान, मरियल मवेशी और इनका दयनीय परिवेश सिर्फ़ इस वजह से है कि जिनके पास ताक़त और पैसा है, उन्होंने इसे व्यक्तिगत संपत्ति बना रखा है। नदी यहाँ बंध गई है तो आगे पानी जाएगा कहाँ से? बाघ … बाघ हुआ भी तो पानी पीने उसे यही आना पड़ेगा। देखिए उस तरफ, लिलीपुट राज्य के छोटे-छोटे मवेशी पानी पी रहे हैं। बांध से औरत घड़ा भर-भरकर ले जा रही है।” इस पर ख़ान साहब ने कहा, “इस पर तुर्रा यह कि इन्हीं के यहाँ डेरा डालकर हम इनके द्वारा पैदा की गई प्रॉब्लम्स पर डिस्कस करने आए हैं।”
मतलब समस्या क्या है यह भी पता चल जाता है, लेकिन फिर भी कोई कुछ कर नहीं पाता। लेकिन अगर किसी के अस्तित्व का सवाल हो, जीने और मरने का सवाल हो तो वह दूसरे के भरोसे कैसे रहे? जगेसर जैसे लोगों को बचाने का सवाल हो तो सरकार, समाजिक संगठन या इसी जैसी कोई चीज़े क्या करेगी? क्या ये इनके लिए कुछ कर सकते हैं? जब तक गाँव में मुखिया जैसे लोग हों और शहर में सत्तो रानी जैसी, तो जगेसर का तो कुछ भला होने वाला नहीं है, क्योंकि इन्हीं का खून चूसकर तो वह मोटे होते हैं और नरक बनाने का कारखाना खोलते हैं। और जो कोई मुखिया या सत्तो जैसे लोगों को रोक सकता है, वही जब उनका संरक्षण करने लगे तो जगेसर के लिए तो प्रेत का ही सहारा रह जाता है। जिनके लिए सच में प्रेत अगर अंधविश्वास है तो उनके लिए जगेसर जैसे लोगों का और इनकी कौमों का अस्तित्व भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि हम जिस मानवीय गुणों को जानते हैं और जिनकी बात करते हैं, वह सब कुछ जगेसर जैसे लोगों के लिए मुख्य धारा के सामाजिक सरोकार में सपना है। यही तो संजीव ‘प्रेम-मुक्ति’ कहानी के माध्यम से कहना चाहते हैं। और प्रेत तभी दम लेता है जब वह अपना कार्य पूरा कर देता है, ताकि उनके बाद आने वाली पीढ़ी के ज़िंदा होने की संभावनाए बची रहे। उसने बाँध काट दिया, उसने सुरेंद्र से बदला ले लिया। जब प्रेत अपना काम कर चुकता है तो वह मुक्त भी कर देता है और मुक्त भी हो जाता है।
संजीव इस कहानी में छोटे-से बिंदु से विराट फलक को छूते हैं। वह सब कुछ खोलकर रखते हैं। उन्होंने समाजिक अंतर्विरोध को इस कहानी के माध्यम से स्पष्ट किया है। भारत जैसे देश के लिए यह चुनौती है कि जो वर्ग उपेक्षित हैं और सदियों से उनकी उपेक्षा होती आई, उसे मुख्य धारा में कैसे शामिल किया जाय। और अगर आज तक शामिल नहीं किया गया या वह शामिल नहीं हो सके तो किस वजह से; यह भी इस कहानी के माध्यम से कुछ न कुछ उजागर होता ही है। जब तक हम गहरी मानवीय संवेदना से अछूते रहेंगे, चाहे हममें कितना भी धार्मिक संस्कार गहरा हो, चाहे हम विचारों से कितना भी उन्नत क्यों न हों, लेकिन हमें दरारों को भरना नहीं आएगा, जहाँ सब कुछ को पाट कर सबको एक्य रूप में देखा जाए। और उस एक्य रूप में सबको शामिल करना, अगला-पिछला, छोटा-बड़ा, नदी-पहाड़, जीव-जंतु, पूरी पृथ्वी, पूरी सृष्टि, पूरा ब्रह्मांड। और यह संभव है, गहरा मानवीय बोध से। समाज तब तक मानवीय गुणों को आत्मसात नहीं कर पाएगा, जब तक शक्तिशाली की पूजा होती रहेगी। तब इस हालत में जगेसर जैसे लोगों का क्या हाल होगा, तब तक तो यही मानकर चलना पड़ेगा कि डार्विन का विकासवादी सिद्धांत से ही ज़िंदगी चलती है। इस हालत में तो जगेसर जैसे प्राणी ही लुप्त हो जाएंगे, जैसे बाघ लुप्त हो रहे हैं। हालाँकि बाघ जंगल का राजा है, लेकिन मानवीय क्रूरता पर तो उसका भी वश नहीं है। संजीव ने गहरी संवेदना के साथ उपेक्षितों का पक्ष रखा है। वह बिना किसी भूमिका के अगर ऐसा कर सके तो इसलिए कि उनकी लेखनी बहुत ईमानदार है।
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