अटूट बंधन के मई अंक में प्रकाशित कविता। धन्यवाद वंदना वाजपेयी जी
आदमी
चुपचाप रहे
या बातें करे बहुत
जिन्दगी
बेपरवाह
चलती रहती है।
तरतीब भी वही
तरकीब भी वही
जिन्दगी खामोश
उसी पुराने धर्रे से
पिघलती रहती है।
बस
आँख नई होती है
जो सब कुछ
नया गढ़ती है।
© राजीव उपाध्याय
आदमी
चुपचाप रहे
या बातें करे बहुत
जिन्दगी
बेपरवाह
चलती रहती है।
तरतीब भी वही
तरकीब भी वही
जिन्दगी खामोश
उसी पुराने धर्रे से
पिघलती रहती है।
बस
आँख नई होती है
जो सब कुछ
नया गढ़ती है।
© राजीव उपाध्याय
नई आँख
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद कौशिक जी
हटाएंबिल्कुल सही, देखने का नजरिया अलग होता है...सुंदर लिखा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रश्मि जी। रचना की स्वीकार्यता संबल प्रदान करती है कि जो कर हैं सही है।
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सुमन जी
हटाएंसुन्दर ,बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करते हुए , बेहतरीन अभिब्यक्ति , मन को छूने बाली पँक्तियाँ
जवाब देंहटाएंकभी इधर भी पधारें
बहुत-बहुत धन्यवाद आपको मदन जी। ये मेरे लिए खुशी की बात है कि कविता आपको अच्छी लगी। सादर धन्यवाद
हटाएंचर्चा में शामिल करने के लिए सादर धन्यवाद
जवाब देंहटाएंजिन्दगी का ढर्रा वही रहता है .
जवाब देंहटाएंफर्क बस नजर का!
बहुत-बहुत धन्यवाद वाणी गीत जी
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