बुधवार, 17 जून 2015

जिन्दगी

अटूट बंधन के मई अंक में प्रकाशित कविता। धन्यवाद  वंदना वाजपेयी जी

आदमी
चुपचाप रहे
या बातें करे बहुत
जिन्दगी
बेपरवाह
चलती रहती है।

तरतीब भी वही
तरकीब भी वही
जिन्दगी खामोश
उसी पुराने धर्रे से
पिघलती रहती है।

बस
आँख नई होती है
जो सब कुछ
नया गढ़ती है।

© राजीव उपाध्याय

11 टिप्‍पणियां:

  1. बि‍ल्‍कुल सही, देखने का नजरि‍या अलग होता है...सुंदर लि‍खा

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    1. धन्यवाद रश्मि जी। रचना की स्वीकार्यता संबल प्रदान करती है कि जो कर हैं सही है।

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  2. सुन्दर ,बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करते हुए , बेहतरीन अभिब्यक्ति , मन को छूने बाली पँक्तियाँ

    कभी इधर भी पधारें

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आपको मदन जी। ये मेरे लिए खुशी की बात है कि कविता आपको अच्छी लगी। सादर धन्यवाद

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  3. चर्चा में शामिल करने के लिए सादर धन्यवाद

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  4. जिन्दगी का ढर्रा वही रहता है .
    फर्क बस नजर का!

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