आज कल सेमिनारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। एक से बढ़कर एक धुरंधर वक्ता अपने कौशल का परिचय देते हुए दिख जाते हैं और इन वक्ताओं का सबसे बड़ा कौशल ये है कि विषय चाहे कुछ भी हो पर वे अपनी ही राग अलापते हैं। अपने विशेष गुणओं के प्रदर्शन हेतु विषय केंद्रीत होना उन्हें गवारा नहीं होता। वजह? वही विद्वता दिखाना। कौशल प्रदर्शन के ये मंच केवल टी.ए.डी.ए.का खेल मात्र नहीं हैं बल्कि सुर्खियों में बने रहने की महत्त्वपूर्ण लालसा की पूर्ति का माध्यम हैं।
एक बार की बात है कि एक ऐसे ही मंच के आस-पास मडराने का अवसर मिला जिसमें एक महानुभाव, जो एक बड़े वाले दलित चिंतक हैं, ने अपने कला प्रदर्शन हेतु तथ्यों से खिलवाड़ करने की सीमा से भी आगे निकल गये। खैर ये उन जैसे विद्वानों का सार्वभौमिक अधिकार जो है। तो उन्होंने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए बाल गंगाधर तिलक का संबंध द्वितीय गोल मेज संमेलन (1932) से कर दिया। महान उद्देश्य बस इतना था कि वो दिखाना चाहते थे कि तिलक उच्च वर्ग के थे और अम्बेडकर के जन्मजात विरोधी जबकि तिलक की मृत्यु 1920 में ही हो गयी थी। वैसे उपर वाली दुनिया अगर है तो तिलक वहाँ से उनको धन्यवाद कर रहे होंगे कि उन महान विचारक के वजह से उन्हें कुछ और साल जीने को मिल गया।
वैसे भी साहित्य में मार्क्सवादी होने का फैशन बहुत पहले ही निकल पड़ा था आजकल पुनः उफान मार रहा है। खैर, तो दिल्ली के इस महान पुरोधा ने तो मार्क्सवाद की सफलता पर प्रश्नचिह्न लगाने उपक्रम में व्यावहारिक शब्द के अर्थ का अनर्थ ही कर दिया। वो उसे यूटोपिया भी मानते है और व्यावहारिक भी। कमाल है ना? वैसे ही इन तमाम तरह के महान पुरोधाओं के अलावा वे लोग भी है जो मंच पर अच्छा भाषण देते हैं और लोगों से उन बातों को व्यावहार में उतारने की बात भी करते हैं। परन्तु ये लोग अपनी महानता का प्रदर्शन करते हुए अपने व्यावहार में इतनी कलाकारी करते हैं कि 64 कला के निर्माण कर्त्ता भी पानी माँगने लगे। इसलिए मुझ अपराधी का श्रोताओं से अपील है कि कृपया आप वक्ता की कला पे ध्यान दें। आपके स्वास्थ्य के लिए लाभकर होगा।
चिन्तकों का कार्य है चिन्ता करना और चिन्ता का घोड़ा मन के घोड़े की तरह होता है जो कब जाने किस दिशा में निकल जाए कहा नहीं जा सकता। वैसे भी जिस चीज को आप समझ नहीं सकते या फिर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते वही चीज चिन्तकों के हिसाब से स्तरीय होती है। अतः बुद्धि नामक जीव से कहिए की वो चुपचाप कहीं गुलाटी मारकर बैठ जाए और होने वाले हर नाटक और एकांकी का लाभ उठाते हुए मनोरंजन करे। नहीं तो किसी चिन्तक का चेला बन जाए। फिर देखो कि क्या कमाल होता है। कुछ बड़े और भारी-भरकम शब्दों के साथ तो वैसे खेलेगा जैसे पन्द्रह अगस्त को पतंग उड़ती है।
जवाब देंहटाएंराहुल सांकृत्यायन