जो सब चाहते थे, वही कर रहा हूँ।
खुशियों को तेरी, नज़र कर रहा हूँ।।
तमाम उम्र्, जो सीखा था मैंने।
भूलाकर सब, नया शहर कर रहा हूँ॥
ये जो कहानी, कही अनकही सी।
लबों पे तेरे, लज़र कर रह हूँ॥
धूँधला ही सही, कोरा काग़ज नया हूँ।
लफ़्ज़ों पे तेरे बशर कर रहा हूँ॥
©राजीव उपाध्याय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें