क्योंकि
मैं रुक ना सकी
मृत्यु के लिए
दयालुता से मगर
इन्तजार उसने मेरा किया
और रूकी जब
तो हम और अमरत्व
धीरे-धीरे बढ़ चले
सफर पर हम
जल्दबाजी नहीं उसे।
सब कुछ छोड़ दिया मैंने
अपनी मेहनत और आराम भी।
शिष्टता उसकी ऐसी थी!
हम स्कूल से होकर गुजरे
बच्चे खेल रहे थे जहाँ
दोपहर की छुट्टी में
घंटी बजने तक।
हम खेतों से होकर गुजरे
जो एकटक देख रहे थे अन्न को
हम डूबते हुए सूरज से
होकर गुजरे
जो पकड़ा था धरती को।
या यूँ कहें
छोड़कर आगे बढ़ गया सूरज हमको।
ओस की बूँदों ने
ठंड का तरकश निकाली
मेरे पास सिर्फ एक पतली
रेशमी ओढ़नी बस थी।
हम एक भवन के सामने रुके
जो उग आया था शायद जमीन से
और छत उसकी
बड़ी मुश्किल से दिखाई देती थी
जैसे कारनीस हो कोई।
तब से सदियाँ बीत गई हैं
फिर भी मगर
दिन से भी छोटा लगता है।
मैंने सबसे पहले
घोड़े के सिर का अनुमान लगाया
जो शाश्वत की दिशा में खड़ा था।
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(अनुवाद - राजीव उपाध्याय)
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-12-2019) को "आज मेरे देश को क्या हो गया है" (चर्चा अंक-3546) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा में स्थान देने के लिए सादर धन्यवाद सर।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 11 दिसंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! ,
स्थान देने के लिए सादर धन्यवाद।
हटाएंबेहतरीन अनुवाद गहन भाव रचना।
जवाब देंहटाएंसादर आभार।
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