घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे
हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे।
इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे।
शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्ते
हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैं
छत से दीवारें जुदा होंगी तो डर जाओगे।
पहले हर चीज़ नज़र आएगी बे-मा'नी सी
और फिर अपनी ही नज़रों से उतर जाओगे।
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निदा फ़ाज़ली
वाह वाह वाह
जवाब देंहटाएंऐसी रचना पढ़कर मन बाग़ बाग़ हो जाता है.
आपका आभार.
सादर धन्यवाद।
हटाएंसादर धन्यवाद सर।
जवाब देंहटाएंवाह, बेहद उम्दा
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
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