ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं।
इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं,
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं|
ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।
सच घटे या बड़े तो सच न रहे,
ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।
जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता-पता ही नहीं।
धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं।
कैसे अवतार कैसे पैग़म्बर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं।
उसका मिल जाना क्या, न मिलना क्या
ख्वाब-दर-ख्वाब कुछ मज़ा ही नहीं।
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में,
आईना झूठ बोलता ही नहीं।
अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
‘नूर’ संसार से गया ही नहीं।
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कृष्ण बिहारी 'नूर'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-08-2019) को "मेरा वजूद ही मेरी पहचान है" (चर्चा अंक- 3419) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद सर।
हटाएंइस ब्लॉग प्र मैं पहली बार आया हूँ.
जवाब देंहटाएंऔर इतनी शानदार रचना पढ़कर मन बेहद प्रसन्न हुआ... 'जड़ दो चांदी में चाहे सोने में'....' निशब्द हूँ मैं.
आभार.
मेरे ब्लॉग पर भी पधारें - कायाकल्प
सादर आभार।
हटाएंवाह ...
जवाब देंहटाएंगज़ब ... कमल की ग़ज़ल और लाजवाब शेर नूर साहब के ...
सादर आभार।
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 7 अगस्त 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
स्थान देने के लिए सादर धन्यावद।
हटाएंवाह बेमिसाल, ग़ज़ल हर शेर लाजवाब।
जवाब देंहटाएंउम्दा भाव लिए बेहतरीन सृजन।
सादर आभार।
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