स्त्री कितनी आज़ाद
स्त्री कितनी आज़ाद
और
कहाँ से
मन से,
देह से
सोच से?
पुरुषों की फिसलती निगाहें
नापती हैं जब उसके
जिस्म के भूगोल को
नहीं उठता कोई भूचाल
न सुनामी आती है!
पर जब वो सचेत दिखती है
अपने संरचनाओं के प्रति,
पा जाती है कई ख़िताब वो
कुलटा, बदचलन, और भी क्या -क्या!
आज भी तू एक वस्तु है
जिसे तुल रहा
पुरुषवादी संचालन
का समाज,
जिसमें कभी अपनी
मर्ज़ी से
चलने पर
वैश्या, कुलटा-व्यभिचारिणी, पतिता ...
और जब वही
पुरुष की मर्ज़ी से प्यास मिटाती है
गाड़ियों में,
सड़कों पर,
होटलों के बंद कमरो में,
रखैल बनकर
एक रात या फिर पूरी उम्र ...
बंद हो जाती है
वो दराज़ें जिनमें
पुरुषों के लिए
कोई सजा की
विधान लिख कर
नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।
एक जिस्म
रौंदने के लिए
कुचलने के लिए
किसी और की इच्छाओं से
संचालित।
सांसों का स्पंदन
भी फीका और बेस्वाद,
धड़कता है
पर अपना
ही इख़्तियार नही उनपर…
चलते हैं पग
पर रास्ते और मंजिल भी
मेरे द्वारा तय नहीं,
रह गयी बनकर बस एक
जिस्म जिसे बनाया गया
कुचलने के लिए।
चाँद पर जाओ
या मंगल पर
सदियों से
फड़फड़ा रही है,
स्त्री की आज़ादी
अपनी शर्त पर आज़ाद होने के लिए...।
---------------------------------
झूलते हाथ-पांव,
ढूंढ रहे
मुक्ति का रास्ता।
भटक रहा सड़कों पर
बिता हुआ कल।
सरहद बन गयी जबसे
घर की दीवारें...
यादें नापती हैं ज़मीं
कभी आकाश।
हथियार डाले उनका आज
बैठ गया है
वील चेयर पर...
धराशायी सिपाही सा,
पुकार रहा
कुछ बुजुर्गों का भविष्य!
जी रहा है कछुआ
छिपा कर,
खोल के भीतर का रहस्य...
जो बिलकुल सपाट है।
---------------------------------
जब पहुंच जाती है
घुटनों में
तब पैदा होते हैं
कुक्कुरमुत्तों जैसे,
हर नुक्कड़ हर गली
बिगड़ैल शोहदे ,
शब्दों के बरछी- भाले,
और तीर करते हैं
एक साथ आक्रमण।
आती -जाती
हर स्त्री वर्ग पर,
वय का कोई बंधन नहीं।
बस वो होनी चाहिए
एक स्त्री देह
जिसपर वो लिखते रहते हैं
ललचाती निगाहों से
तहरीर।
निगाहें नहीं
होती हैं,
एक्स-रे मशीन
जाँच पड़ताल के बगैर
हटती ही नहीं!
कुकुरमुत्ते की
हर प्रजातियां शामिल
होती हैं इसमें
बड़े बाप के
बिगड़ैल कुकुरमुत्ते,
उन कुकुरमुत्तों के
पिछलग्गे कुकुरमुत्ते,
कुछ,
मांग की वस्तुओं पर
पनपते कुकुरमुत्ते।
महंगे फ़ोन,
कीमती गाड़ियां,
जीन्स पैन्ट,
गॉगल्स
बना देते हैं
हर गली में एक नवाब।
साथ ही विचरते हैं
मंत्री और प्यादे भी …
तितलियों के पीछे
फिरते हैं
करते जासूसी
बता देती है
गुप्तचरों की
तहकीकात
समूह में है कि
उड़ रही अकेली तितली ...
संभल कर उड़ना
ए तितलियों।
जारी है
शोहदों का सफर …
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और
कहाँ से
मन से,
देह से
सोच से?
पुरुषों की फिसलती निगाहें
नापती हैं जब उसके
जिस्म के भूगोल को
नहीं उठता कोई भूचाल
न सुनामी आती है!
पर जब वो सचेत दिखती है
अपने संरचनाओं के प्रति,
पा जाती है कई ख़िताब वो
कुलटा, बदचलन, और भी क्या -क्या!
आज भी तू एक वस्तु है
जिसे तुल रहा
पुरुषवादी संचालन
का समाज,
जिसमें कभी अपनी
मर्ज़ी से
चलने पर
वैश्या, कुलटा-व्यभिचारिणी, पतिता ...
और जब वही
पुरुष की मर्ज़ी से प्यास मिटाती है
गाड़ियों में,
सड़कों पर,
होटलों के बंद कमरो में,
रखैल बनकर
एक रात या फिर पूरी उम्र ...
बंद हो जाती है
वो दराज़ें जिनमें
पुरुषों के लिए
कोई सजा की
विधान लिख कर
नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।
एक जिस्म
रौंदने के लिए
कुचलने के लिए
किसी और की इच्छाओं से
संचालित।
सांसों का स्पंदन
भी फीका और बेस्वाद,
धड़कता है
पर अपना
ही इख़्तियार नही उनपर…
चलते हैं पग
पर रास्ते और मंजिल भी
मेरे द्वारा तय नहीं,
रह गयी बनकर बस एक
जिस्म जिसे बनाया गया
कुचलने के लिए।
चाँद पर जाओ
या मंगल पर
सदियों से
फड़फड़ा रही है,
स्त्री की आज़ादी
अपनी शर्त पर आज़ाद होने के लिए...।
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बुजुर्गों का भविष्य
लटकती झुर्रियांझूलते हाथ-पांव,
ढूंढ रहे
मुक्ति का रास्ता।
भटक रहा सड़कों पर
बिता हुआ कल।
सरहद बन गयी जबसे
घर की दीवारें...
यादें नापती हैं ज़मीं
कभी आकाश।
हथियार डाले उनका आज
बैठ गया है
वील चेयर पर...
धराशायी सिपाही सा,
पुकार रहा
कुछ बुजुर्गों का भविष्य!
जी रहा है कछुआ
छिपा कर,
खोल के भीतर का रहस्य...
जो बिलकुल सपाट है।
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जारी है शोहदों का सफर
सोच की सवारीजब पहुंच जाती है
घुटनों में
तब पैदा होते हैं
कुक्कुरमुत्तों जैसे,
हर नुक्कड़ हर गली
बिगड़ैल शोहदे ,
शब्दों के बरछी- भाले,
और तीर करते हैं
एक साथ आक्रमण।
आती -जाती
हर स्त्री वर्ग पर,
वय का कोई बंधन नहीं।
बस वो होनी चाहिए
एक स्त्री देह
जिसपर वो लिखते रहते हैं
ललचाती निगाहों से
तहरीर।
निगाहें नहीं
होती हैं,
एक्स-रे मशीन
जाँच पड़ताल के बगैर
हटती ही नहीं!
कुकुरमुत्ते की
हर प्रजातियां शामिल
होती हैं इसमें
बड़े बाप के
बिगड़ैल कुकुरमुत्ते,
उन कुकुरमुत्तों के
पिछलग्गे कुकुरमुत्ते,
कुछ,
मांग की वस्तुओं पर
पनपते कुकुरमुत्ते।
महंगे फ़ोन,
कीमती गाड़ियां,
जीन्स पैन्ट,
गॉगल्स
बना देते हैं
हर गली में एक नवाब।
साथ ही विचरते हैं
मंत्री और प्यादे भी …
तितलियों के पीछे
फिरते हैं
करते जासूसी
बता देती है
गुप्तचरों की
तहकीकात
समूह में है कि
उड़ रही अकेली तितली ...
संभल कर उड़ना
ए तितलियों।
जारी है
शोहदों का सफर …
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रजनी मल्होत्रा (नैय्यर)
जन्म: ७ जून, कुमंदी ग्राम, पलामू, झारखण्ड
चार काव्य संग्रह: 'स्वप्न मरते नहीं ', 'ह्रदय तारों का स्पन्दन', 'पगडंडियाँ' व 'मृगतृष्णा'
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
भाषा लेखन: हिंदी, पंजाबी, उर्दू.
लेखन: गीत, ग़ज़ल, कहानियां व कविताएँ.
शिक्षा: हिंदी व इतिहास में स्नातकोत्तर। हिंदी में पी.एच. डी. चल रही।
सम्प्रति: संगणक विज्ञान की शिक्षिका
वर्तमान पता: बोकारो (झारखण्ड)
मोबाइल नं: 9576693153, 9470190089
जन्म: ७ जून, कुमंदी ग्राम, पलामू, झारखण्ड
चार काव्य संग्रह: 'स्वप्न मरते नहीं ', 'ह्रदय तारों का स्पन्दन', 'पगडंडियाँ' व 'मृगतृष्णा'
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
भाषा लेखन: हिंदी, पंजाबी, उर्दू.
लेखन: गीत, ग़ज़ल, कहानियां व कविताएँ.
शिक्षा: हिंदी व इतिहास में स्नातकोत्तर। हिंदी में पी.एच. डी. चल रही।
सम्प्रति: संगणक विज्ञान की शिक्षिका
वर्तमान पता: बोकारो (झारखण्ड)
मोबाइल नं: 9576693153, 9470190089
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