स्वयं शून्य
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गुरुवार, 21 जुलाई 2011
टुक टुक चलती ये जीवन गाड़ी
टुक टुक चलती ये
जीवन गाड़ी
और मैं इक काठ का घोड़ा
ना गाड़ीवान है ना कोई सवारी
फ़िर भी सब कुछ लगता क्यों भारी भारी?
©
राजीव उपाध्याय
1 टिप्पणी:
Manisha Bhatia
5 सितंबर 2011 को 3:24 pm बजे
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