कभी हम सौदा-ए-बाज़ार हुए
कभी हम आदमी बीमार हुए
और जो रहा बाकी बचा-खुचा
उसके कई तलबगार हुए॥
सितम भी यहाँ ढाए जाते हैं
रहनुमाई की तरह
पैर काबे में है
अजब कशमकश है
दोनों जानिब मेरे
एक आसमान की बुलंदी की तरफ
तो दूसरा जमीन की गहराई है॥
इबादतगाह तक मैं जाता नहीं
और खुदा कहीं मिलता नहीं
थक गया हूँ भागते-भागते मैं
कि घर तक रौशनी आई है॥
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राजीव उपाध्याय
चर्चा में स्थान देने के लिए सादर धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंउम्दा //बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद
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