शुक्रवार, 11 मार्च 2022

माँ का घर - संतोष कुमार चतुर्वेदी

मैं नहीं जानता अपनी माँ की माँ का नाम
बहुत दिनों बाद जान पाया मैं यह राज
कि जिस घर में हम रहते हैं
वह दरअसल ससुराल है माँ की
जिसे अब वह अपना घर मानती है
फिर माँ का अपना घर कहाँ है
खोजबीन करने पर यह पता चला
कि मामा के जिस घर में
गर्मियों की छुटि्‌टयों में
करते रहते थे हम धमाचौकड़ी
वही माँ का घर हुआ करता था कभी
जहाँ और लड़कियों की तरह ही वह भी
अपने बचपन में सहज ही खेलती थी कितकित
और गिटि्‌टयों का खेल
जिस घर में रहते हुए ही
अक्षरों और शब्‍दों से परिचित हुई थी वह पहले-पहल
वही घर अब उसकी नैहर में
तब्‍दील हो चुका है अब

मंगलवार, 8 मार्च 2022

कह सकता नहीं - राजीव उपाध्याय

बहुत कुछ है
जो कहना चाहता हूँ
कह सकता नहीं मगर
कि रौशन हैं कई चुल्हे
मेरी इस एक चुप्पी पर!

गुरुवार, 3 मार्च 2022

कहानियों का भार - श्रुतिका साह

कुछ किताबों की कहानियों का भार
इतना अधिक होता है
कि
आप चाह कर भी
उन किताबों को
पूरी रात सीने पर रख कर
नहीं सो सकते!

सोमवार, 24 जनवरी 2022

आधा अंधेरा है, आधा उजाला है - अनामिका

(एक लोरी गीत: गर्भस्थ शिशु के लिए)

आधा अंधेरा है, आधा उजाला है
इस प्रसन्न बेला में
रह-रहकर उठती है
एक हरी मितली-सी,
रक्त के समंदर से लाना है अमृतकलश!

मेरी इन सांसों से
कांप-कांप उठते हैं जंगल,
दो-दो दिल धड़क रहे हैं मुझमें
चार-चार होंठों से पी रही हूं मैं समंदर!
चूस रही हूं एक मीठी बसंती बयार
चार-चार होंठों से!
चार-चार आंखों से कर रही हूं आंखें चार मैं
महाकाल से!

रविवार, 23 जनवरी 2022

वे बच्चे - अशोक वाजपेयी

प्रार्थना के शब्दों की तरह
पवित्र और दीप्त
वे बच्चे।

उठाते हैं अपने हाथ¸
अपनी आंखें¸
अपना नन्हा–सा जीवन
उन सबके लिए
जो बचाना चाहते हैं पृथ्वी¸
जो ललचाते नहीं हैं पड़ोसी से
जो घायल की मदद के लिए
रुकते हैं रास्ते पर।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

उलझन - जावेद अख़्तर

करोड़ों चेहरे 

और उनके पीछे 

करोड़ों चेहरे

ये रास्ते हैं कि भिड़ के छत्ते 

ज़मीन जिस्मों से ढक गई है 

क़दम तो क्या तिल भी धरने की अब जगह नहीं है

ये देखता हूँ तो सोचता हूँ

कि अब जहाँ हूँ

वहीं सिमट के खड़ा रहूँ मैं

मगर करूँ क्या

कि जानता हूँ

कि रुक गया तो 

जो भीड़ पीछे से आ रही है 

वो मुझको पैरों तले कुचल देगी, पीस देगी

बुधवार, 15 दिसंबर 2021

आसमानी चाँद जाने क्या हुए - चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह 'बशर'

आसमानी चाँद जाने क्या हुए?
आँख के सपने सुहाने क्या हुए?

गुम हुईं क्यों बात की गहराइयाँ?
मुल्क के सारे दिवाने क्या हुए?

मिट गए क्यों फूल खुशबूदार सब?
बुलबुलों के मीठे गाने क्या हुए?

हाशिए पर लोग बढ़ते जा रहे,
एकता के ताने-बाने क्या हुए?

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

चुप रहने की सलाहियत - राजीव उपाध्याय

जानता हूँ
चुप रहने की सलाहियत
वो यूँ ही नहीं देते।

हर बार रोए हैं
वो लफ्जों की लकीरों पर
जिनकी मात्राओं में
ना जाने किस किस की कहानी है।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2021

ठुकरा दो या प्यार करो - सुभद्राकुमारी चौहान

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं।

धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं।

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी।

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं।

सोमवार, 16 अगस्त 2021

दर्द - त्रिलोचन

दर्द कहाँ ठहरा
साँसों की गली में
देता रहा पहरा।

जीवन के सागर का
तल सम नहीं है
कहीं कहीं छिछला है
कहीं कहीं गहरा।