शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

उलझन - जावेद अख़्तर

करोड़ों चेहरे 

और उनके पीछे 

करोड़ों चेहरे

ये रास्ते हैं कि भिड़ के छत्ते 

ज़मीन जिस्मों से ढक गई है 

क़दम तो क्या तिल भी धरने की अब जगह नहीं है

ये देखता हूँ तो सोचता हूँ

कि अब जहाँ हूँ

वहीं सिमट के खड़ा रहूँ मैं

मगर करूँ क्या

कि जानता हूँ

कि रुक गया तो 

जो भीड़ पीछे से आ रही है 

वो मुझको पैरों तले कुचल देगी, पीस देगी

तो अब जो चलता हूँ मैं

तो ख़ुद मेरे अपने पैरों में आ रहा है

किसी का सीना

किसी का बाज़ू

किसी का चेहरा

चलूँ

तो औरों पे ज़ुल्म ढाऊँ

रुकूँ

तो औरों के ज़ुल्म झेलूँ

ज़मीर

तुझको तो नाज़ है अपनी मुंसिफ़ी पर

ज़रा सुनूँ तो

कि आज क्या तेरा फ़ैसला है।

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जावेद अख़्तर 

3 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२२-०१ -२०२२ ) को
    'वक्त बदलते हैं , हालात बदलते हैं !'(चर्चा अंक-४३१३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. 'ज़मीर' लफ्ज़ कुछ सुना-सुना सा लग रहा है.
    अरे याद आया ! ये तो वही हज़रत हैं जो कि कामयाब लोगों के दिलों में हमेशा सोते रहते हैं.

    जवाब देंहटाएं