शुक्रवार, 11 मार्च 2022

माँ का घर - संतोष कुमार चतुर्वेदी

मैं नहीं जानता अपनी माँ की माँ का नाम
बहुत दिनों बाद जान पाया मैं यह राज
कि जिस घर में हम रहते हैं
वह दरअसल ससुराल है माँ की
जिसे अब वह अपना घर मानती है
फिर माँ का अपना घर कहाँ है
खोजबीन करने पर यह पता चला
कि मामा के जिस घर में
गर्मियों की छुटि्‌टयों में
करते रहते थे हम धमाचौकड़ी
वही माँ का घर हुआ करता था कभी
जहाँ और लड़कियों की तरह ही वह भी
अपने बचपन में सहज ही खेलती थी कितकित
और गिटि्‌टयों का खेल
जिस घर में रहते हुए ही
अक्षरों और शब्‍दों से परिचित हुई थी वह पहले-पहल
वही घर अब उसकी नैहर में
तब्‍दील हो चुका है अब

अपना जवाब खोजता हुआ मेरा सवाल
उसी मुकाम पर खड़ा था
जहाँ वह पहले था
माँ का घर एक पहेली था मेरे लिए अब भी
जब यह बताया गया कि
हमारा घर और हमारे मामा का घर
दोनो ही माँ का घर है
जबकि हमारा घर माँ की ससुराल
और मामा का घर माँ का नैहर हुआ करता था

हमारे दादा ने रटा रखा था हमें
पाँच सात पीढी तक के
उन पिता के पिताओं के नाम
जिनकी अब न तो कोई सूरत गढ़ पाता हूँ
न ही उनकी छोड़ी गयी किसी विरासत पर
किसी अहमक की तरह गर्व ही कर पाता हूँ
लेकिन किसी ने भी क्‍यों नहीं समझी यह जरूरत
कि कुछ इस तरह के ब्‍यौरे भी कहीं पर हों
जिनमें दर्ज किये जाय अब तक गायब रह गये
माताओं और माताओं के माताओं के नाम

हमने खंगाला जब कुछ अभिलेखों को
इस सिलसिले में
तो वे भी दकियानूसी नजर आये
हमारे खेतों की खसरा खतौनी
हमारे बाग बगीचे
हमारे घर दुआर
यहाँ तक कि हमारे राशन कार्डों तक पर
हर जगह दर्ज मिला
पिता और उनके पिता और उनके पिता के नाम
गया बनारस इलाहाबाद के पण्‍डों की पुरानी पोथियाँ भी
असहाय दिखायी पड़ी
इस मसले पर
माँ और उनकी माँ और उनकी माताओं के नाम पर
हर जगह दिखायी पड़ी
एक अजीब तरह की चुप्‍पी
घूंघट में लगातार अपना चेहरा छुपाये हुए

तमाम संसदों के रिकार्ड पलटने पर उजागर हुआ यह सच
कि माँ के घर के मुददे पर
बहस नहीं हुई कभी कोई संसद में
दिलचस्‍प बात यह कि
बेमतलब की बातों पर अक्‍सर हंगामा मचाने वाले सांसदों ने
एक भी दिन संसद में चूं तक नहीं की
इस अहम बात को ले कर
और बुद्विजीवी समझे जाने वाले सांसद
पता नहीं किस भय से चुप्‍पी साध गये
इस मुद्‌दे पर

और अपने आज में खोजना शुरू किया जब हमने माँ को
तब भी तकरीबन पहले जैसी दिक्‍कतें ही पेश आयीं
घर की मिल्‍कियत का कागज पिता के नाम
बैंकों के पासबुक हमारे या हमारे भाइयों या पिता के नाम
घर के बाहर टंगे हुए नामपट्‌ट पर भी अंकित दिखे
हम या हमारे पिता ही।

हर जगह साधिकार खड़े दिखे
कहीं पर हम
या फिर कहीं पर हमारे भाई
या फिर कहीं पर हमारे पिता ही
जब हमने अपनी तालीमी सनदों पर गौर किया
जब हमने गौर किया अपने पते पर आने वाली चिटि्‌ठयों
तमाम तरह के निमन्‍त्रण पत्रों
जैसी हर जगहों पर खड़े दिखायी पड़े
हम या हमारे पिता ही
अब भले ही यह जान कर आपको अटपटा लगे
लेकिन सोलहो आने सही है यह बात कि
मेरे गाँव में नहीं जानता कोई भी मेरी माँ को
पड़ोसी भी नहीं पहचान सकता माँ को
मेरे करीबी दोस्‍तों तक को नहीं पता
मेरी माँ का नाम।

अचरज की बात यह कि
इतना सब तलाश करते हुए भी
जाने अंजाने हम भी बढे जा रहे थे
लगातार उन्‍हीं राहों पर
जिन्‍हें बड़ी मेहनत मशक्‍कत से संवारा था
हमारे पिता
हमारे पिता के पिता
हमारे पिता के पिता के पिताओं ने
एक लम्‍बे अरसे से।

खुद जब मेरी शादी हुई
मेरी पत्‍नी का उपनाम न जाने कब
और न जाने किस तरह बदल गया मेरे उपनाम में
भनक तक नहीं लग पायी इसकी हमें
और कुछ समय बाद मैं भी
बुलाने लगा पत्‍नी को
अपने बच्‍चे की माँ के नाम से
जैसा कि सुनता आया था मैं पिता को
बाद में मेरे बच्‍चों के नाम में भी धीरे से जुड़ गया
मेरा ही उपनाम।

अब कविता की ही कारीगरी देखिए
जो माँ के घर जैसे मुद्‌दे को
कितनी सफाई से टाल देना चाहती है
कभी पहचान के नाम पर
कभी शादी ब्‍याह के नाम पर
तो कभी विरासत के नाम पर।

न जाने कहाँ सुना मैंने एक लोकगीत
जिसमें माँ बदल जाती है
कभी नदी की धारा में
कभी पेड़ की छाया में
कभी बारिश की बूँदों मे
कभी घर की नींव में होते हुए
माँ बदल जाती है फिर माली में
बड़े जतन से परवरिश करती हुई अपने पौधों की
फिर बन जाती है वह मिट्‌टी
जिसमें बेखौफ उगते अठखेलियाँ करते
दिख जाते हैं पौधे
पौधों में खोजो
तो दिख जाती है पत्‍तियों में
डालियों में फूलों में फलों में
फिर धीमे से पहुँच जाती हमारे सपनों में।

धान रोपती बनिहारिने गा रहीं हैं
कि जिस तरह अपने बियराड़ से बिलग हो कर
धान का बेहन दूसरी धूल मिट्‌टी में गड़ कर
लहलहाने लगता है फूलने फलने लगता है
उसी तरह गुलजार कर देती हैं अपनी विस्‍थापित उपस्‍थिति से
किसी भी घर को महिलाएँ
खुद को मिटा कर।

और जहाँ तक माँ के घर की बात है
मैं हरेक से पूछता फिर रहा हूँ
अब भी अपना यह सवाल
कोई कुछ बताता नहीं
सारी दिशाएँ चुप हैं
पता नहीं किस सोच में।

जब यही सवाल पूछा हमने एक बार माँ से
तो बिना किसी लागलपेट के बताया उसने कि
जहाँ पर भी रहती है वह
वही बस जाता है उसका घर
वहीं बन जाती है उसकी दुनिया
यहाँ भी किसी उधेड़बुन में लगी हुई माँ नहीं
बस हमें वह घोसला दिख रहा था
जिसकी बनावट पर मुग्‍ध हो रहे थे हम सभी।
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संतोष कुमार चतुर्वेदी

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