सोमवार, 8 अप्रैल 2019

दुनिया झल्ला उठती है मुझ पर - विपिन कुमार शर्मा

दम साधे दबे पाँव
तीसरे पहर रात का सिराता अन्धेरा
और सन्नाटा
सन्नाटे और अन्धेरे को थाह-थाह
दबे पाँव चलता हूँ मैं
सोयी हैं बेसुध... पत्नी और बेटियाँ 
जैसे सो रहीं धरती और नदियाँ... 

धीरे-से टटोलता हूँ घड़ा
और गिर पड़ता है झन्न से ग्लास 
घबरा कर जागती है धरती
और नदियाँ 
बारी-बारी से कोसकर सब सो जाती हैं। 

इसी तरह, ठीक 
दम साधे दबे पाँव, मैं 
गुज़र जाना चाहता हूँ इस दुनिया से
लेकिन हो ही जाती है
कोई न कोई आहट
और यह दुनिया
झल्ला उठती है मुझ पर
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विपिन कुमार शर्मा

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