दम साधे दबे पाँव
तीसरे पहर रात का सिराता अन्धेरा
और सन्नाटा
सन्नाटे और अन्धेरे को थाह-थाह
दबे पाँव चलता हूँ मैं
सोयी हैं बेसुध... पत्नी और बेटियाँ
धीरे-से टटोलता हूँ घड़ा
और गिर पड़ता है झन्न से ग्लास
घबरा कर जागती है धरती
और नदियाँ
बारी-बारी से कोसकर सब सो जाती हैं।
इसी तरह, ठीक
दम साधे दबे पाँव, मैं
गुज़र जाना चाहता हूँ इस दुनिया से
लेकिन हो ही जाती है
कोई न कोई आहट
और यह दुनिया
झल्ला उठती है मुझ पर
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बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद सर
हटाएंबहुत सुंदर ... गहन रचना
जवाब देंहटाएंसादर
हटाएंसादर धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा है आपने!!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ..इतना उम्दा लिखने के लिए !