रविवार, 4 दिसंबर 2011

सब सोते हैं, मैं रोता हूँ

सब सोते हैं, मैं रोता हूँ
सब जगते हैं, मैं सोता हूँ।



इश्क ने जब से है रंगत बदली
डुबा डुबा सा रहता हूँ
घाव मरहम है अब जख़्मों का
ख़ून से अपने यूँ धोता हूँ।
सब सोते हैं, मैं रोता हूँ।।

कोई तल्ख़ी अब ना रही
आँखों में अब तूम रहती हो
बरसों बीत गए, तूमसे मिले-बिछड़े
पर अब भी सांसों में बची हो।
सब कुछ खोकर तूमको पाता हूँ
मैं नहीं अब, बस तूममें जीता हूँ।
सब सोते हैं, मैं रोता हूँ।।
© राजीव उपाध्याय

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें