एक दिन नदी ने अरार को उलाहना दी
तुमने कभी जाना ही नहीं
मेरे भीतर के रस को
सदा से कटे रहे हो मुझसे
सूखे और तने रहकर
अरार ने मुँह खोला
मासूमियत चपल हुई
मेरी प्रिय नदी
मेरे सूखे और कठोर बदन के अंदर
तुमने भी कहाँ झाँका ?
तुम हमेशा अपने तटों की मर्यादा में रही
एक बार तो अपने दिल की सुन
उछाल अपनी लहरों को मेरी ओर
कसम से मैं ढह जाऊँगा उसी क्षण
तुझमें समाने को
मेरे स्वभाव की विवशता है
कि पहल पहले नहीं कर सकता।
-------------------------
रामरक्षा मिश्र विमल (सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह 'पहल' से)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें