रोज़ जब धूप पहाड़ों से उतरने लगती
कोई घटता हुआ बढ़ता हुआ बेकल साया
एक दीवार से कहता कि मेरे साथ चलो।
और ज़ंजीरे-रफ़ाक़त से गुरेज़ाँ दीवार
अपने पिंदार के नश्शे में सदा ऐस्तादा
कौन दीवार किसी साए के हमराह चली
कौन दीवार हमेशा मगर ऐस्त्तादा रही
वक़्त दीवार का साथी है न साए का रफ़ीक़।
और अब संगो-गुलो-ख़िश्त के मल्बे के तले
उसी दीवार का पिंदार है रेज़ा -रेज़ा
धूप निकली है मगर जाने कहाँ है साया।
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अहमद फ़राज़
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