मैं पथ बन
हर पल खड़ा हूँ
कितने पथिक
आए-चले गए।
कुछ देर तक ठहरे
कुछ गहरे कहीं तक उतरे
और पल में कुछ
कहानी नई कर गुजरे।
कितने पथिक
ठंडक सुबह की कभी
तो उमस शाम की भी
कुछ चाँदनी रातें
तो भयानक दोपहर भी
उदासियाँ और उबासियां
बदल-बदल कर लिबास अपना
वक्त संग खेलते गए
वक्त में पिघलते गए।
कितने पथिक
आए-चले गए॥
पर आज भी मैं
धूल की चादर चेहरे पर लगाए
बीच राह आकर खड़ा हूँ
और हूँ सहेजता
कि कहानी कोई
मूँडेर से बिखर ना जाए।
कितने पथिक
आए-चले गए॥
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राजीव उपाध्याय
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (05-06-2019) को "बोलता है जीवन" (चर्चा अंक- 3357) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सभी मौमिन भाइयों को ईदुलफित्र की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद सर
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर।
हटाएंबहुत बढ़िया कविता। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंiwillrocknow.com
सादर ध्नन्यवाद नितीश जी।
हटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद।
हटाएंबहुत ही सुंदर चित्रण
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के सादर आभार संजय जी।
हटाएंअच्छी रचना
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