संकरी गलियों से गुजरते हुए
धीमे और सधे कदमों से
लहरायी थी चौकीदार ने लालटेन अपनी
और कहा था , “सब कुछ ठीक है!"
बैठी बंद जाली के पीछे औरत एक
नहीं था पास जिसके बेचने को कुछ भी;
रुककर दरवाजे पर उसके
धुप्प अँधेरे में ठिठुरता एक आदमी बुढ़ा
नहीं था पास जिसके खाने को दाना भी एक;
सुनसान गली में गूँजी थकी आवाज
चौकीदार की, “सब कुछ ठीक है!”
गुजरा चौकीदार उस घर से,
पसरी थी खामोशी
मरा था एक बच्चा जहाँ;
और जली थी एक मोमबत्ती
चौकीदार जोर से चीखा, “सब कुछ ठीक है!”
पुरी रात धीमे-सधे कदमों से
चौकीदार ने पुरी रात गुजारी
हर छोटी गली से
और कहा, “सब कुछ ठीक है!”
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मिरियम वेडर
(अनुवाद राजीव उपाध्याय)
सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
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